“जिंदगी के मेले में
कौन अपना और कौन पराया
जिसने जाना, वो सिकंदर कहलाया “
वो फकीर तो तन्मय हो गाता चला जा रहा था, पर मेरे दिल में अनेक प्रश्न उभर आये। सच है कौन अपना और कौन पराया, जीवन भर हम इसी में उलझें रहते। खून के रिश्ते ही अपने होते है, बचपन से यही सीख मिलती है। होते भी है, पर तब जब दोनों तरफ से अपना पन हो। अतीत के वे पन्ने ना चाहते उभर आये।
“अरे प्रभा ये लड़का जेठ की रस्म कैसे कर सकता है, ये हमारा अपना नहीं है, रस्म तो अपने घर के ही लोग करेंगे”बाबूजी की कड़कती आवाज गूंज उठी। पर मैंने निर्णय ले लिया था, सिर्फ दिखावे या नाम के रिश्ते या अपने लोगों से कोई वास्ता ना रखेगी।सो बाबूजी को जवाब दे दिया।
“बाबूजी, मयंक का सही अर्थो में भाई यही है, क्योंकि जब मयंक को जरूरत थी, तब मयंक के पास इसके सिवा कोई नहीं था, इसलिये सही अर्थो में भाई यही है, इसलिये जेठ की रस्म सोहम ही करेगा “।
बाबूजी अग्नेय नेत्रों से देखते, वहाँ से चले गये, उनको उम्मीद नहीं थी हमेशा चुप रहने वाली बहू का मुँह खुल सकता है। पर आज मुझे मुँह खोलना जरुरी लगा। जेठ का बेटा, तब फोन भी नहीं उठा रहा था जब मयंक का एक्सीडेंट हुआ था। मयंक उसी शहर में पढता था, जहाँ जेठ जी का बेटा रहता था। अतः एक्सीडेंट का पहला कॉल उसी को गया। फोन उठाया जरूर उसने, जल्दी पहुँचने का वादा भी किया, पर अस्पताल पहुंचा भी नहीं,वही रहने वाला मेरा दूर का भाई, जिसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, मैंने उनको कॉल किया। उन्हीने अपने बेटे सोहम को मयंक के पास भेजा। आर्थिक स्थिति ठीक ना होने पर भी उन्होंने रूपये का बदोबस्त किस तरह किया मुझे आज तक नहीं मालूम।मयंक ठीक होकर घर आ गया। मैंने उन्हें पैसे वापस करने चाहे, उन्होंने इंकार कर दिया, भले ही मै दूर का हूँ पर हूँ तो भाई ना, फिर कैसे छोटी बहन से पैसे ले सकता हूँ। पैसे वाले मेरे अपनों ने उस समय किनारा कर लिया की पैसे खर्च करने पड़ेंगे।और वे पराये, पैसे के बारे में सोचा ही नहीं।
मैंने उसी दिन अपने -पराये की परिभाषा बदल दी। जिन रिश्तों के पीछे मै भागती थी, जिन्हे अपना समझती थी, उन रिश्तों ने कई बार धोखा दिया। फिर मैंने अपनों की परिभाषा बदली तो लोगों की आँखों में खटकने क्यों लगी।मयंक की शादी में मैंने सोहम से ही जेठ की रस्म करवाई। सबकी नाराजगी झेल कर भी। बड़े नन्दोई ने भी कहा -प्रभा तुम ठीक नहीं कर रही हो.। पलट कर मैंने भी बोल दिया,”जीजा जी जब मयंक तीन महीने अस्पताल में था, तब सबने सही किया था “। नन्दोई चुप हो गये।
दोस्तों, जिंदगी में कई बार मैंने अपनों को बेगाना और बेगानों को अपना बनते देखा। और वे पराये अपने से लगने लगे।जिंदगी की ये समझ मुझे आ गई,कई बार अपनेपन की डोर ढीली भी पड़ी पर मैंने झुक कर उन्हें उठा लिया एक मजबूती से थाम लिया।
..—-संगीता त्रिपाठी
#पराये _रिश्ते _अपना _सा _लगे