अपनापन – दिक्षा बागदरे : Moral Stories in Hindi

  साक्षी एक पढ़ी-लिखी कुशल गृहिणी थी। उम्र लगभग 42 वर्ष।

साक्षी की दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था अपने आसपास की महिलाओं से मिलना-जुलना।

यह मिलना-जुलना केवल समय व्यतीत करना मात्र नहीं था। इस तरह से मिलने की एक खास वजह थी।

साक्षी को अच्छा लगता था किसी के दुख-दर्द सुनना, उनकी कोई समस्या हो तो उसे हल करने का प्रयास करना। वह अपने स्तर पर भरसक प्रयास करती। उसका उन सभी महिलाओं के साथ एक विशेष “स्नेह का बंधन” बन गया था।

किसी के लिए वह बेटी थी, किसी के लिए बहू तो किसी की बहुत अच्छी सहेली।

लेकिन पता नहीं क्यों आजकल उसका मन बहुत खिन्न रहने लगा था।  किसी से भी मिलना-जुलना उसके मन को शांति नहीं दे रहा था। उसे ऐसा लगने लगा था कि वह तो सबके बारे में सोचती है मगर उसके बारे में कोई नहीं सोचता। 

हर पल एक अकेलापन उसे खाए जा रहा था। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करें?

पिछले कुछ समय से उसका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रह रहा था।  ऐसा नहीं था कि वह हर मिलने-जुलने वाले से ये चाहती थी कि वे सभी उसके बारे में सोचें। 

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मगर कहीं ना कहीं उसे कोई कमी जरूर खल रही थी। ऐसा लग रहा था कि उसे किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो उसे भी समय दे और उसे भी समझे। 

अचानक उसे ऐसा लगने लगा था कि वह कुछ चिड़चिड़ी सी हो गई है। उसका आत्मविश्वास कम हो रहा था।  वह तनाव ग्रस्त होती जा रही थी। वह पूरी तरह से अवसाद ग्रस्त हो गई थी। उसे किसी से भी मिलना-जुलने का मन नहीं करता था।

यूं तो उसका भरा पूरा परिवार था। और घर में सभी पढ़े लिखे और समझदार लोग थे। मगर पता नहीं क्यों वह अपना मन किसी के साथ साझा नहीं कर पा रही थी। उसे लगने लगा था कि सभी अपने अपने कार्यों में व्यस्त हैं। कोई भी उसकी और ध्यान नहीं दे रहा। 

फिर उसने एक दिन अपने फुफेरे भाई जो की मनोचिकित्सक थे उनसे इस बारे में चर्चा की।

उनसे बात कर कर उसे कुछ हल्का जरुर महसूस हो रहा था। उसके अंदर चलने वाले तूफानी प्रश्नों के कुछ उत्तर उसे उनसे जरूर मिले थे।

उन्होंने उसे बताया कि उम्र के जिस दौर से वह गुजर रही है उस दौर में हार्मोनल चेंजेस की वजह से मन में इस तरह के विचारों का आना-जाना सामान्य है।

उन्होंने उसे बताया कि जिन मानसिक एवं शारीरिक समस्याओं से वह इन दिनों रूबरू हो रही है उसे मेनोपॉज कहते हैं। मेनोपॉज का यह समय महिलाओं के जीवन में बहुत सारे परिवर्तन लाता है। जिसका प्रभाव महिलाओं के शरीर के साथ-साथ मन पर भी पड़ता है।

उसे अपनी दिनचर्या में परिवर्तन लाना होगा। अन्य किसी से संवेदना पाने की बजाय उसे विशेष तौर पर स्वयं पर ध्यान देना होगा। 

अपनी रुचि के कार्यों को अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा। अपने खान-पांच संबंधी आदतों में भी परिवर्तन लाना होगा। कुछ नियमित व्यायाम करने होंगे।

दूसरों से अपने लिए कुछ करने की चाहत कि अपेक्षा स्वयं अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कदम बढ़ाना होगा। 

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साक्षी ने अपने दिनचर्या को बहुत हद तक परिवर्तित किया और उसने महसूस किया कि सच में वह अब पहले की तरह ऊर्जावान महसूस कर रही थी जो उसके आत्मविश्वास में कमी आ रही थी वह अब फिर से बढ़ गया था। 

दूसरों की सहायता करने का जो भाव उसके मन में पहले था वह अब और बढ़कर एक नई दिशा की ओर कदम बढ़ा रहा था। 

अब उसे लग रहा था कि जिन समस्याओं से वह स्वयं जूझ रही थी बहुत सी महिलाएं इसी प्रकार समस्याओं के कोई समाधान नहीं ढूंढ पाती है और तनाव ग्रस्त होकर अवसाद ग्रस्त हो जाती हैं। बहुत सी महिलाएं ऐसी होंगी जो कभी भी ऐसी समस्याओं को किसी से भी साझा नहीं करती होंगी। साक्षी अब इस दिशा में भी कार्य करने लगी है।

साक्षी का अब ऐसी अनेक महिलाओं से “स्नेह का बंधन”  और मजबूती से तैयार  है।

स्वरचित 

दिक्षा बागदरे
#स्नेह का बंधन

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