विनया के परांठा बनाते हाथ यथाशीघ्र चल रहे थे और उसकी उत्सुक ऑंखें किचन से बाहर अंजना के कमरे की ओर भी उठ जा रही थी। वो चाहती तो थी कि अंजना के कमरे में जाकर थोड़ी देर उसका इंतजार करने कहे। लेकिन छह महीने का संकोच आड़े आ जा रहा था। अंजना के रूखे व्यवहार के कारण चाह कर भी कभी वो सही से बात नहीं कर पाती थी। अंजना के चेहरे पर छाई रहने वाली नाराजगी उसके संकोच का बादल बनकर मंडराने लगता था।
“भाभी, क्या बना रही हैं, सुगंध तो बहुत अच्छी आ रही है। परांठे, मेरे लिए भी दो बना दीजिए।” रसोई में आकर संपदा कहती है।
“ठीक है दीदी, एक बार माॅं से पूछ लीजिए ना, नहीं रहने दीजिए परांठे लेती ही जाइए। कोई कमी रह गई होगी तो माॅं बता देंगी।” विनया परांठे वाली प्लेट संपदा के सामने करती हुई पूछती है।
“क्या भाभी आप भी, जरूरत होगी तो माॅं खुद ही आ जाएगी। ये तो मैं ले जाती हूॅं।” लापरवाही से कहती संपदा प्लेट ले जाने लगी।
संपदा के इस जवाब पर विनया अनजाने ही हाथ का कार्य रोक संपदा की ओर देखने लगी। सब कुछ होते हुए भी एक ही घर में सगी माॅं–बेटी के बीच ऐसा अनजाना संबंध उसे हजम नहीं होता था। भले ही छह महीने से वो रोज एक नई परिस्थिति एक नए अनुभव से गुजरती थी, फिर भी वो इसे समझ पाने में असमर्थ थी। उसे यह घर नहीं, चारदीवारी से घिरा हुआ ईंट पत्थर ही लगने लगा था और इस चारदीवारी के अंदर रहने वाले सदस्य इतने शुष्क थे कि एक दूसरे के अस्तित्व को नकारने में अपनी शेखी समझते थे। सत्य ही है यदि घर के चार लोग का संबंध ही नितांत अजनबी सा हो तो ईंट पत्थर खिलखिला तो सकते नहीं हैं और अगर ये ईंट पत्थर खिलखिलाएंगे नहीं तो घर का आकार तो नहीं ही ले सकते हैं।
“दीदी दो मिनट रुक जाइए ना तो मैं भी आपके साथ ही डिनर कर लूॅंगी। अकेले खाने की इच्छा नहीं होती है मेरी।” अपने विचारों के घोड़े का लगाम कसते हुए विनया डिनर खत्म कर रसोई में आई अंजना को एक तरह से सुनाती हुई कहती है।
“क्या भाभी, अपने कमरे में चली जाइए ना, मुझे खाते समय अपने लैपी पर सिनेमा देखने की आदत है और ये दखलअंदाजी मुझे पसंद भी नहीं है।” कहती हुई संपदा सर्र से रसोई से निकल गई।
“माॅं, क्या मैं आपके कमरे में ही बैठ कर डिनर कर लूॅं।” अपने मन को जबरदस्ती धक्का देती हुई विनया रसोई से निकलती हुई अंजना से आहिस्ते से पूछती है।
“अपने कमरे में ही खाना ले जाओ बहू।” बिना ना कहे ही अंजना इशारा देती चली गई।
मेरी हालत तो अभी साॅंप छुछुंदर सी हो रही है। आगे कैसे संभाल सकूंगी मैं। व्रत तो ले लिया मैंने सब कुछ सही करने का। लेकिन झूठे मुॅंह भी कोई किसी का दिल नहीं रखना चाहता है। माॅं कम से कम से हामी भर देती, मुॅंह से कुछ नहीं कहती है। पेट के चूहे भी ताबड़तोड़ रो धो रहे हैं। अपने कमरे में जाऊॅंगी तो हरेक निवाले के साथ मनीष के वचन की कड़वी दवाई पीनी पड़ेगी। संपदा दीदी तो बिल्कुल ही मना कर गईं हैं। डाइनिंग टेबल पर दीवारों को देखते हुए मुझसे खाया नहीं जाएगा।
“हाॅं, माॅं ने मना थोड़े किया, अपने कमरे में जाने के लिए कह गई हैं। अब मेरी इच्छा ना कि कहाॅं जाऊॅं। जो होगा सो देखा जाएगा।” सोचती हुई विनया
लगन तुमसे लगा बैठे, जो होगा देखा जायेगा
तुम्हे अपना बना बैठे, जो होगा देखा जायेगा गुनगुनाती हुई प्लेट हाथ में लिए अंजना के कमरे के द्वार पर हाथ से थपथपा कर कमरे में धड़कते दिल से प्रवेश कर गई।
उसे इस तरह कमरे में आया देख अंजना हतप्रभ रह गई। उसके चेहरे पर झुंझलाहट और प्रतिकार के मिले जुले भाव आ गए थे। एक पल के लिए विनया को तो यूं लगा कहीं अंजना उसका हाथ पकड़ कर कमरे से बाहर न कर दे। लेकिन अपना बिछावन ठीक करती उसे देखकर निगाहें हटाती हुई फिर से अपने काम में लग गई।
“माॅं, अपने कमरे में जाने की इच्छा नहीं हुई मेरी। वो क्या है ना, खाना खाते समय ताना सुनने का मन नहीं था मेरा। आप जितना ही कम बोलती हैं, मनीष तो उससे दुगुना, नहीं नहीं तिगुना बोलते हैं। बोलते हैं वो तो ठीक है, लेकिन बोलते भी क्या हैं कागज में लपेट कर पत्थर फेंकते हैं। जिससे सामने वाले का हृदय की खिड़की के शीशे ही टूट जाएं।” धम्म से बिछावन पर बैठती विनया धाराप्रवाह बोलती चली गई।
अंजना बुत सी खड़ी आश्चर्य की दृष्टि से विनया को देखे जा रही थी। इस घर में उसकी दोनों नन्दों के अलावा कोई भी इतना नहीं बोलता था। काम की बातें भी बमुश्किल किसी के मुख से निकलती थी और ये लड़की झमाझम बरसते बारिश की तरह बोल रही है।
“आप खड़ी क्यों हैं माॅं, बैठिए ना।” एक निवाला मुॅंह में डालने के बाद उसी जूठे हाथ से अंजना का हाथ पकड़ कर बिठाती हुई विनया कहती है।
“ओ ओ, सॉरी सॉरी माॅं, जूठे हाथ थे मेरे।” जिह्वा को कष्ट देती दंत पंक्ति तले दबाती अंजना का हाथ छोड़ विनया प्लेट हाथ में लिए खड़ी हो गई।
“कोई बात नहीं।” कहती हुई अंजना अपना हाथ धोने कमरे से बाहर चली गई।
“यस” इस एक कोई बात नहीं विनया के अंदर ऊर्जा का संचार कर दिया था और उसके मन में विजय की भावना आते ही चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगा और चेहरा उस थिरकन की ओट में खिल उठा था।
“कभी ना कभी बर्फ भी पिघलेगी और आग भी ठंडी हो होगी मम्मी। इस घर को भी उस घर की राह पर ना ले आई तो मेरा नाम भी विनया नहीं मम्मी।” अपनी मम्मी की बातों को गुनती हुई विनया खुद से कह रही होती है और अंजना को कमरे में आती देख सिर झुकाकर खाने पर अपनी एकाग्रता बढ़ाने लगी।
अंजना एक कोने में बैठी कभी कभी नीची नजर से विनया को देख रही थी और विनया अंजना के हाव भाव की समझती हुई भी अन्य दिनों की अपेक्षा धीरे–धीरे निवाला तोड़ रही थी, वो समझ रही थी कि अंजना को उसका इस तरह कमरे में बैठना खटक रहा था। उन पर अकेलापन हावी हो गया इस कारण ऐसी हो गई हैं माॅं कि थोड़ा बहुत उनका स्वभाव भी ऐसा है। परांठा चबाती हुई विनया अंजना के बारे में ही सोच रही थी।
डिनर खत्म कर विनया बिना कुछ कहे उठकर धीरे धीरे कमरे से बाहर निकल गई। विनया के बाहर जाते ही अंजना एक गहरी ठंडी साॅंस लेती हुई खड़ी हो गई। तभी विनया थैंक्यू माॅं बोलती पीछे से आकर अंजना के गले लग गई। उसकी हँसी अंजना के चेहरे पर हैरानगी का भाव बिखेर रही थी, उसके अप्रत्याशित गले लगने पर अंजना की ऑंखें फैल गई थी। उसके गले से लगी विनया उस समय उसे एक बच्ची की तरह प्रतीत हो रही थी, जिसकी बढ़ी हुई धडकनों का संगीत अंजना को स्पष्ट सुनाई दे रही थी। अंजना को स्मरण हो आया कि वो तो चाह कर भी अपने बच्चों को भी एक अरसे से आलिंगन में समेट नहीं पाई थी। अंजना के नयन ऑंसुओं से भर कर उसके कपोल चूमने हेतु तत्पर हो उठे और गला भर आया था लेकिन उसने खुद के भाव जब्त कर विनया को खुद से अलग किया और कमरे से निकल बालकनी की ओर बढ़ गई।
आरती झा आद्या
दिल्ली
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