अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 15) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“ये क्या कर रही हैं माॅं? अभी तो और रोटियाॅं भी तो बनानी हैं।” गूंथे आटे के बर्तन को उठाकर फ्रिज में रखती अंजना से विनया पूछती है।

“क्यों, अब कौन खाएगा।” विनया के बगल से निकलती हुई अंजना कहती है।

“मैं और आप।” विनया अंजना के हाथ से बर्तन लेती हुई कहती है।

“सबको भूखा रखकर हम खाना खाएंगी। हमारी आत्मा ना गल जाएगी।” अंजना तीखी निगाहों से विनया को देखती है।

“नहीं माॅं आत्मा तो अजर अमर होती है। हम इस तरह ज्यादा भूखे रहे तो हमारा ये स्वर्ण सा मानव शरीर, जिसमें आत्मा बसती है, ये जरूर गल जाएगा।” ऑंखें मटका कर बोलती विनया हॅंस पड़ी थी।

विनया को बच्चों की तरह ऑंखें मटकाता देख अधर तो अंजना के भी खिल उठे थे लेकिन उसने खुद को जब्त करते हुए कहा, “ठीक है, तुम खुद के लिए बना लो। मैं नहीं खा सकूॅंगी।” 

“क्यों?” विनया ने मासूमियत से पूछा।

अंजना बिना कुछ बोले रसोई से बाहर आ गई। उसकी काले घेरों से घिरी ऑंखों में नीर उतर आया था, जिसे उसने पलकों पर समेट लिया था। उसकी ऑंखों में ऑंसू थे, जो सीधे रूप से उसकी आत्मा की गहराई से उत्पन्न हो रहे दुःख को प्रकट कर रहे थे। वे एक प्रभावशाली भावनात्मक संवेदना का परिचायक थे, जो उसके अंदर के तूफानों और संघर्षों की गहराईयों से उभर रहे थे। अंजना की ऑंखों में जो ऑंसू चमक रहे थे, वो उसकी अंतरंग भावनाओं का प्रतीक था। उन ऑंसुओं में दुःख छिपा हुआ था, जो उसके ही हृदय को छू रहा था। भले ही इन अश्रुओं को अंजना ने अपने दृग में कैद कर लिया, लेकिन विनया से उसकी ये चेष्टा छुपी नहीं रह सकी।

रसोई में रैक पर रखे मोबाइल उठाती वो रसोई से बाहर की ओर झाॅंकती है और बुदबुदाती है, “शुक्र है दीदी उस मीटिंग में नहीं बैठी हैं। जल्दी से उन्हें मैसेज करूं।”

“सबको भूखा रखकर हम खाना खाएंगी। हमारी आत्मा ना गल जाएगी।” दीदी ये कहकर माॅं अपने कमरे में चली गईं। “कोई खास बात है क्या इसमें।” विनया मैसेज टाइप करती है वो संपदा के नंबर पर प्रेषित कर देती है।

“भला हो मोबाइल ईजाद करने वाला का और इसमें ब्रह्मांड भर के फीचर्स डालने वालों का।” मुस्कुरा कर सोचती हुई विनया संपदा के मैसेज की प्रतीक्षा करने लगती है।

“माॅं, आइए, हमलोग भी डिनर कर लें।” अंजना के कमरे के दरवाजे पर खड़ी विनया कहती है।

“परेशान मत करो, तुम जाकर खा लो।” अंजना विनया से कहती है।

“देखिए माॅं, मैं बहुत जिद्दी हूॅं और मुझे ये भी पता है कि आप दिन में भी लंच नहीं कर सकी हैं। इसलिए चुपचाप मेरे साथ चलिए।” विनया कमरे में आकर पूरे अधिकार से अंजना का हाथ थामती हुई कहती है। विनया का इस तरह आगे बढ़ कर अंजना का हाथ थाम लेना, जिसमें अपनापन, प्यार, विश्वास, भरोसा सबका समावेश था,

अंजना को यह स्पर्श अभिभूत कर गया। उसे प्रतीत हो रहा था मानो यह कोई मामूली स्पर्श नहीं बल्कि एक नए जीवन के आगाज का आह्वान है। उसके लिए यह स्पर्श संजीवनी सा उसकी अंतरात्मा में समाता जा रहा था। यह एक पल उन दोनों के मध्य संवेदनशीलता के साथ साथ एक भावनात्मक दृष्टिकोण विकसित कर रहा था और अंजना जो हमेशा अकेली अपने कमरे में ही खाना खाया करती थी, विनया का हाथ थामे सम्मोहित सी डाइनिंग रूम में आ गई और विनया द्वारा खींचे गए कुर्सी पर बैठ गई।

वही सोफे पर बैठा मनीष अपनी दोनों बुआ संग मंत्रणा में रमा था और अचानक माॅं और पत्नी को खाना खाने बैठते देख आश्चर्यचकित सा चुप होकर देखने लगा। वो इस प्रकार चुप हुआ मानो उसने माॅं और पत्नी की जगह भूत देख लिया। उसकी पेशानी पर बल पड़ गए थे और ऑंखें सिकुड़ कर छोटी हो गई थी, कई रेखाएं एक साथ वहाॅं उपस्थित हो गई थी और तीनों के हाव–भाव समक्ष कर भी अनजान बनती विनया मनीष को पूर्णरूपेण अनदेखा कर रही थी और मनीष सौ डिग्री पर उबल रहा था।

“सबको भूखा रख कर दोनों अपना पेट भर रही हैं। क्या खूब गृहलक्ष्मी है तुम्हारी बेटा और सास को तो देखो, समझाने के बजाय साथ ही आकर बैठ गई। तभी तो इस घर में बरकत नहीं हो रही है।” मनीष को उबलता देख बड़ी बुआ ने आग में घी डाल कर हाथ और नेत्र दोनों सेंकने का उपक्रम कर रही थी।

नहीं बुआ जी, ऐसा कैसे हो सकता है, घर के सदस्य भूखे रहे और अन्नपूर्णा खाना खा लें। मुझे पता था इतना स्वादिष्ट खाना देखते ही भरे पेट वाले को भी भूल लग जाएगी, फिर तो आप जाने कब से भूखी हैं, मतलब बेवजह ही भूखी रह गईं। इसलिए मैंने आप दोनों के लिए भी रोटियाॅं सेंक ली। आइए…कहकर विनया दोनों के लिए प्लेट निकाल कर सर्व करने लगी।

“नहीं, नहीं, अब बार बार खाना पीना हमसे नहीं होगा। एक बार में जितना हो गया, सो गया।” बड़ी बुआ हाथों को बाॅंधती हुई कहती हैं।

“हाॅं और क्या, ये दिन भर, रात भर खाना तुम दोनों सास बहू ही करो।” बड़ी बहन के साथ हाॅं में हाॅं मिलती हुई मंझली बुआ कहती हैं।

“मनीष आप कैसे भतीजे हैं। दोनों बुआ अपना घर छोड़कर आपकी देखभाल के लिए हर दस दिन में यहाॅं आ जाती हैं। ये भी नहीं सोचती हैं कि फूफा जी और भैया–भाभी को कैसा अनुभव होता है। आज तक भाभी ननद के मध्य ऐसा रिश्ता कायम नहीं हो सका और ऐसी बुआ भूखी हैं और आप सिर्फ हमारी बातें सुन रहे हैं। बुआ को खाना तो खिलाइए।” विनया जानती थी कि मनीष बुआ के लिए प्राण पण से तैयार रहता है इसलिए वो प्लेट मनीष की ओर बढ़ाती हुई प्यार से कहती है।

“हाॅं बुआ ये क्या बात हुई, आप भूखी रहेंगी। पता नहीं मेरा ध्यान इस पर कैसे नहीं गया। थैंक्यू विनया”, अपने हाथों से बड़ी और मंझली बुआ की ओर प्लेट बढ़ाता हुआ मनीष कहता है।

मरता क्या ना करता, दोनों भूखी हैं, दोनों अपनी अतिरिक्त वाणी द्वारा ये कबूल कर चुकी थी। मनीष के हाथों से उन्होंने इस प्रकार प्लेट लिया जैसे प्लेट में रोटी, सब्जी नहीं वरण विष डाल दिया गया हो। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उनका पासा उल्टा पड़ जाएगा। आज तक तो इस तरह बोल बोल कर उन्होंने अंजना का जीना दूभर कर दिया था और सर्फ के पानी से सबके दिमाग को धो धो कर एकदम चिकना करने में लगी थी और उन्हें ये विस्मृत हो गया था कि चिकना हो गए जगह पर से उन्हें भी फिसलने में समय नहीं लगेगा और अभी का प्रकरण उनदोनों को ही इस बात का अहसास करा रहा था।

“हो गया, हो गया बस मनीष और नहीं।” विनया उनके प्लेट में रोटी देने के लिए उठी तो वो दोनों विनया के बदले मनीष से कहने लगी।

“बुआ जी अभी तो आप दोनों ने केवल दो रोटी ही खाई है। मुझे मालूम है रात में चार रोटी तो जरूर खाती हैं आप दोनों। बस दो और, मनीष बोलिए ना आप। मेरे नाना कहते थे रात में भूखे पेट सोने से शरीर से एक चिड़िया भर माॅंस घट जाता है। वैसे भी मायके में बेटी भूखे क्यों सोए, ये सब तो ससुराल में होता है। है ना बुआजी।” विनया मनीष और दोनों बुआ को संबोधित करती रोटी उनके प्लेट में रख देती है।

आह, दीदी इस विनया को सबक सिखाना बहुत जरूरी हो गया है। क्या हालत कर दी इसने हमारी। ना उठा जा रहा है, ना बैठा जा रहा है, ना लेटा ही जा रहा है। अपने कमरे में दोनों टहलती हुई बातें कर रही थी और संपदा जो पानी लेने के लिए रसोई में जा रही थी, मुस्कुराए बिना नहीं रह सकी।

“इन्हें क्या पता, जादू की छड़ी से पाला पड़ा है इन दोनों का।” संपदा सोच के घोड़े दौड़ाती मंद–मंद मुस्कुरा रही थी।

आज एक दिन में कितना कुछ गुजर गया। अपने आवेग, संवेदना, अनुभूति, विनया का स्नेहिल स्पर्श और सबसे बड़ी बात, आज मैं ठहाका लगा रही थी। ओ माय गॉड बोलती बिस्तर पर लेटी हुई दिनभर के घटनाक्रम का और अपनी मनोदशा को विश्लेषित करती उठ बैठी। मैं तो अपनी दोस्तों संग भी जोर से नहीं हॅंसती, हमेशा बुआ की बातें अंतस में गूंजती रहती है और आज भाभी के घर पर, क्या मैं अपनी इस बेरंग जिंदगी से ऊब गई हूं, क्या मैं अपनी अन्य सहेलियों की तरह उड़ना चाहती हूं।

कुछ देर पहले तक तो इस तरह हॅंसने पर मैं भाभी को प्रवचन दे रही थी और फिर मुझे कोई बुआ, कोई प्रवचन याद नहीं आया। कोई दूसरा होता तो कितना सुनाता, लेकिन भाभी तो प्रसन्न हो गई। भाभी क्या भाभी का परिवार ही इस दुनिया का नहीं लगता। क्या हर घर में ही सभी सदस्य इस तरह नहीं रह सकते हैं। भाभी की माॅं ने कहा कि मतभिन्नता उनके यहाॅं भी होती है, नोक झोंक उनके यहाॅं भी होती है, चार बर्तन साथ हैं तो अपनी अपनी आवाज बुलंद तो करेंगे ही।

लेकिन इसका मतलब थोड़े ना है कि हम उन बर्तनों का उपयोग बंद कर देंगे। उचित तरीके से, धीरे से, प्यार से उन्हें यथास्थान रखेंगे तो कोई आवाज नहीं होगी। उसी तरह रिश्तों में यदि बातें होंगी। एक दूसरे का भावनात्मक सहारा बनेंगे और एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हाथ बटाएंगे, वो भी बिना ताना दिए तो बर्तनों की तरह रिश्तों को भी संभाला जा सकता है। संपदा अपने दोनों गालों पर हाथ रखे बैठी। संपदा को ऐसा लग रहा था जैसे अब इस घर के सख्त पत्थरों में भी फूल उग आएंगे और उन फूलों की सुगंध से उसका घर भी सुवासित हो जाएगा।

“भाभी, यू आर ग्रेट।” खुशियों के घोड़े पर सवार संपदा विनया के मोबाइल पर मैसेज करती खिल उठी थी।

आरती झा आद्या

दिल्ली

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