कुछ साल पहले की बात है, मैं अपने बच्चों को कोचिंग कराने के लिए कोटा शहर में रह रही थी।साल के अंतिम दिन यानि कि 31दिसंबर को मैंने सोचा कि अलमारी की साफ़-सफ़ाई की जाए।आलमारी खोलने पर बड़े बेटे के बहुत सारे अनुपयोगी वस्त्र दिखाई दिये।सोचा,इन्हें किसी को दे दूँ,पर किसे,समझ नहीं आ रहा था।
शाम की चाय पीते हुए मैंने अखबार के पन्ने पलटे तो एक विज्ञापन पर मेरी नज़र ठहर गई ‘वस्त्रों को दान कर ज़रूरतमंदों की मदद करें ‘ , पढ़कर मेरी बाँछें खिल गई।अगली सुबह मैंने सभी कपड़ों का एक बण्डल बनाया और एक ऑटोरिक्शा पर लादकर विज्ञापन के नीचे लिखे पते पर पहुँच गई।मदर टेरेसा द्वारा संचालित निर्मल हृदय की एक शाखा पर मेरा ऑटोरिक्शा रुका।मैंने अंदर जाकर संचालिका महोदया को अपना गट्ठर थमाया और वापस जाने के लिए मैं जैसे ही मुड़ी कि एक बारह वर्षीय बालिका ने मेरा हाथ पकड़ लिया।
पहले तो मैं घबरा गई, फिर सिस्टर ने बताया कि ये चलने और बोलने में असमर्थ है।आपसे अपनेपन की चाह में…।इसके आगे मैं सुन न सकी।मैंने देखा, कुछ और पुरुष-महिलाएँ भी उसके पीछे आकर खड़े हो गये थें।उन्हें देखकर न जाने क्यों,मेरी आँखें भर आईं।विकलांग और मानसिक रूप से विक्षिप्त वे लोग इतनी ठंड में भी बिना चप्पल और बिना शाॅल-स्वेटर के थें।उनके लिए कुछ न कर पाने की असमर्थता मुझे कचोट रही थी। मैं वहाँ से चली आई लेकिन रास्ते भर मेरी आँखों के सामने उनके मायूस चेहरे दिखाई देते रहे।क्या कर सकती हूँ, यही सोचती रही और फिर एक दुकान के पास ऑटोरिक्शा रुकवाकर मैंने चाॅकलेट के कुछ पैकेट खरीदे और वापस वहीं चली गई।
मुझे देखकर वे सभी मेरे पास आ गये,मैंने सभी को एक-दो चाॅकलेट दिये और हाथ मिलाया।उनके चेहरों पर आई मुस्कान देखकर जो मेरे दिल को खुशी मिली,उसे शब्दों में बयान करना असंभव है।बचे हुए चॉकलेट मैंने सिस्टर को देते हुए पूछा कि मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ? उन्होंने कहा कि कपड़े और अनाज तो मिल जाते हैं लेकिन…।कहकर वह रुक गईं।मैंने कहा, “कहिये,मैं पूरा करने की पूरी कोशिश करूँगी।उन्होंने बताया कि इतनी सर्दी में पानी गरम के लिए गैंस बहुत जल्दी खत्म हो जाते हैं।
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यदि आप लकड़ियों की व्यवस्था …।मैंने मुस्कुराते हुए कुछ रुपये उन्हें दिये जो उस वक्त मेरे पर्स में थें और दो दिनों में लकड़ियों की व्यवस्था करके वापस आने का विश्वास दिलाकर मैं वापस आ गई।लौटते समय भी उन सभी के चेहरे मेरी आँखों के सामने थें लेकिन वे मुस्कुरा रहें थें जो मुझे बहुत सुकून दे रहें थें।मुझे निदा फ़ाज़ली साहब की दो लाइनें याद आ गईं – घर से मस्ज़िद है बहुत दूर,चलो यूँ कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये।मेरे नये साल की शुरुआत इतनी अनूठी होगी, कभी नहीं सोचा था।उस दिन मेरे जीवन को एक उद्देश्य मिल गया था।
दो दिनों बाद मैंने उसी ऑटोवाले को बुलाया, लकड़ियाँ तौलवाई और उन्हें लेकर वहाँ गई।उसके बाद से जब तक मैं कोटा रही,तब तक जब समय मिलता,वहाँ जाकर सबसे मिलती रही।समय न होने पर उसी ऑटो वाले को पैसे दे देती, वह सामान पहुँचा देता था।ईश्वर की कृपा रही,मैं जहाँ-जहाँ भी रही, सेवा-कार्य करती रही।सचमुच, पहली जनवरी 2009 मेरे लिए अनूठा नववर्ष था।
— विभा गुप्ता