सिया तुम सुबह से इस काम में लगी हो , इस सब को छोड़ कर पहले कुछ खा लो तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया , कहते हुए रमेश ने सिया के हाथ से ब्रश ले लिया।
अरे यह क्या कर रहे हैं , चाचा जी थोड़ी ही तो यह चादर रह गई है, पूरी कर लूं, नहीं तो एक घंटे में कैसे पूरी चादर डिजाइन कर पाऊंगी।
बेटा, अगर नहीं हो पाएगा तो मत होने दे, बिना खाए पिए तबीयत तो नहीं खराब करनी। चाची ने भी चिंता जताते हुए कहा।
नहीं चाची, इतना बड़ा आर्डर मिला है तो जिम्मेदारी से व टाइम् से इसे पूरा भी तो करना है। वरना अगले आर्डर में देरी हो सकती है।
ठीक है तू ये पूरी कर , मैं तुझे खाना खिलाती हूं, दोनों काम हो जाएंगे , कहते हुए चाची ने सिया के मुंह में आलू का परांठे की ग्राही डाली।
और इस तरह खाना समाप्त होते-होते सिया का आर्डर भी पूरा हुआ।
चाचा मैं ये आर्डर दे कर आती हूं। तैयार हो कर सिया जाने के लिए बोली।
अकेली मत जाना, पीहू को लेकर जाना। पर चाचा पीहू अभी पाठशाला से आई है, मैं स्वयं ही चली जाती हूं।
कहते हुए सिया ने बाहर कदम बढ़ाए।
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ये एक बढ़ा कारखाना था जहां चादरें, टेबल क्लॉथ आदि तैयार किए जाते थे। चादरों व अन्य कपड़ों पर ब्लाक पिरंटिग व पेंट आदि होता था। सिया को कपड़ों पर पेंट ब बाल्टिक पेट करना आता था। विश्विद्यालय में पढ़ने वाली रेनू ने ही उसकी पहचान इसके सिखाने वाले स्कूल में करा दी। सिया जाते हुए यह सब सोचने लगी।
तभी उसे अहसास हुआ कि उसकी जिंदगी तो एक ऐसे मोड़ पर आ गई थी कि उसे चारों ओर अंधेरा ही नजर आ रहा था। तभी चाचा चाची के इस परिवार ने उसे अपना लिया, शोभित और प्रीति जो कि उसकी सौतेली बहन व जीजा थे , उन्होंने उसे अपने साथ कलकत्ता ले जाने से मना कर दिया। उसकी मां का तो छोटे होते हुए ही देहांत हो गया था। पिता ने फिर से एक बार घर बसा लिया। वह पिता के सामने तो बहुत प्यार करती
पर बाद में सारा काम करा बदला लेती। और यही सब गुण प्रीति उनकी बेटी में भी आए। पर कुछ सालों बाद पिता का भी निधन हो गया अब तो दोनों का अत्याचार सिया के ऊपर और भी बढ़ गया।
प्रीति की शादी तय हो जाने पर दोनों मां बेटी बहुत खुश हुई। प्रीति शादी कर के कलकत्ता जा रही थी। शोभित प्रीति का पति उसे साथ ले जाने को तैयार नहीं था। दोनों मां बेटी उसे सड़क पर छोड़ कर चली गई । मासूम सिया रोने के अलावा कुछ न कर पाई। वह इतने बड़े संसार में निपट अकेली थी। कुछ ने कहा कि इसे किसी रिश्तेदार के यहां छोड़ दो।
पर कोई अपने घर रखने को तैयार नहीं हुआ। सब मिलकर उसे अनाथालय भेजने ही वाले थे कि रमेश जी का परिवार आगे आया । ये लोग लखनऊ भाई के बेटे की शादी में आए हुए थे जो कि इनके पड़ोस में ही था। इन लोगों ने जब रिश्तेदारों का यह सब तमाशा देखा तो खुद को रोक नहीं पाए और सिया की जिम्मेदारी उठाते हुए उसे साथ भोपाल ले गए। विरोध करने के लिए कोई था ही नहीं, सो सिया चुपचाप उनके साथ चली आई।
इस समय सिया दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी। उसने रमेश जी व सावित्री को चाचा चाची कहना शुरू किया । वह शुरू में तो दिन रात रोती ही रहती तब एक दिन दोनों पति-पत्नी ने उसे समझाया कि अब यह उसका भी घर है। पीहू उसकी छोटी बहन हैं। इसलिए वह आगे पढ़ाई करें। कुछ दिन ऐसे ही बीतने पर अब सिया
सब कुछ भूलकर पढ़ाई में लग गयी। दसवीं, बारहवीं उसने अच्छे नंबरों से पास की व अच्छे से कालेज में ऐडमिशन भी ले लिया। पीहू की भी पढ़ाई में मदद की। विश्वविद्यालय में चल रहे कोर्स पेंटिंग, डिजाइनिंग आदि में चाचा चाची से पूछकर एडमिशन लिया। सिया को ये कोर्स इतना रूचिकर लगा कि उसने इसके बड़े कोर्स में दाखिला ले लिया। और वह काफी अच्छे डिजाइन बनाने लगी। तभी चाचा ने उसकी रूचि को देखते हुए
उसकी जान पहचान कारखाने में करा दी। सिया ने चादरों, आदि पर विस्तार से जानकारी ली अब वह बड़े अधिकारियों की नजर में आ गई। धीरे-धीरे उसका काम बढ़ने लगा तथा उसकी पढ़ाई को देखते हुए उसे घर पर भी काम करने की अनुमति मिल गई। तभी कारखाना आ गया। उसके लिए एक बडा आर्डर मिला था। उसकी मेहनत रंग लाई पर वह आते हुए यही सोच रही थी
कि चाचा चाची व पीहू जो आज उसे जान से भी ज्यादा प्यारे हैं आज यह सब जानकर कितने खुश होंगे आखिर इतनी बड़ी दुनिया में वही तो उसके अनमोल रिश्ते हैं
*पूनम भटनागर