Moral Stories in Hindi : पतझड़ के मौसम की उदास सी शाम थी। दूर क्षितिज में सूरज डूब रहा था, मानो वह रात के आँचल में छुप जाने को बेचैन हो । रक्तिम गगन भी नारंगी चुनरी उतार, नीली काली सी चुनरी ओढ़ रहा था । पंछी अपने अपने नीड़ की ओर वापस लौट रहे थे । चारों ओर पसरी नीरवता पंछियों के कलरव से भंग हो रही थी ।
बरामदे में चाय का प्याला लिए बैठी वैदेही घर के सामने चौकीदार से खड़े नीम के पेड़ को ध्यान से देख रही थी जिसकी शाखाओं पर बैठने के लिए पंछियों में होड़ सी लगी थी । वह सोच रही थी,
“पंछी दिन भर चाहे जितनी भी उड़ान भरें, साँझ ढले अपने अपने घरौंदों में वापस लौट आते हैं…यहाँ तक कि सुदूर देशों से सैकड़ों हज़ारों मील की यात्रा कर आए प्रवासी पक्षी भी मौसम अनुकूल होते ही अपने देश लौट जाते हैं…परन्तु यही बात इंसान पर लागू कहाँ होती है ?”
मन में यह विचार आते ही वैदेही ने अनायास ही गहरी ठंडी साँस ली । उसकी आँखों के सामने राहुल का चेहरा वैसे ही प्रतिबिम्बित होने लगा जैसे किसी ठहरी हुई झील में चाँद आसमान से उतर आया हो । उसे राहुल से की गई अपनी अंतिम बात स्मरण हो आई…
“ ममा…थोड़ा समझा करो यार…तुम जानती हो कि मैं अभी इंडिया वापस आने की नहीं सोच सकता, जानता हूँ अभी कोविड के कारण बहुत सारे भारतीय यहाँ से इंडिया वापस चले गये हैं परन्तु तुम तो जानती हो मेरे लिए परिस्थितियाँ बहुत अलग हैं…पहली बात तो यह कि जेनी कभी भी इंडिया नहीं जाना चाहेगी…और मान लो किसी तरह वह मान भी जाए तब भी चिंकी और रिंकी तो बिलकुल भी वहाँ ऐडजस्ट नहीं कर पायेंगी…क्या है इंडिया में ? न पीने लायक़ साफ़ पानी और न ही साँस लेने के लिए साफ़ हवा”
सच ही तो कहा था राहुल ने । वैदेही स्वयं को ही कोसने लगी कि क्यों उसने अपनी पड़ोसन मिसेज़ चावला की बातों में आकर राहुल से भारत आने की बात कह दी थी ।
कल शाम को ही तो मिसेज़ चावला कह रहीं थीं,
“अब तो विदेशों से भारत की उड़ानें आरम्भ हो गईं हैं और रोज़ न जाने कितने भारतीय स्वदेश लौट रहे हैं…कोरोना का क्या है…न जाने कितना लम्बा समय लगेगा इस बीमारी को जाने में, लॉकडाउन के कारण वहाँ पर भी तो सारे उद्योग धंधे चौपट हो गये हैं और फिर राहुल भी तो बेकरी की दुकान ही तो चलाता है वहाँ पर…वैदेही, तुम भी राहुल को वापस क्यों नहीं बुला लेतीं ? पुत्र होने के कारण आख़िर उसकी भी तो तुम्हारे प्रति कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं”
“दीदी, आज रात के खाने में क्या बना दें ? अरे दीदी ! आप किस सोच में डूबी हैं ? आपकी चाय तो रखे रखे ही ठंडी हो गई…हम अभी दूसरी बना लाते हैं”
कमली की आवाज़ से वैदेही, विचारों के सागर से बाहर निकल अनमनी सी बोली…
“रहने दे कमली, आज कुछ खाने का मन नहीं…रात में बस दूध पी लूँगी । तू कर्नल साहब के घर चली जा…तुझे उनका डिनर भी तो बनाना होगा”
“हाँ दीदी, कर्नल साहब तो खाने पीने के इतने शौक़ीन हैं कि पूछो मत…हम उनकी उम्र का ख़याल रखते हुए यदि कम घी के पराँठे बनाएँ तो तुरन्त टोक देते हैं कि फ़ौजी आदमी हूँ, मैं सब हज़म कर लेता हूँ”
कहकर कमली हँस पड़ी ।
“अच्छा…अच्छा…अब तू जा, कर्नल साहब का अधिक गुणगान मत कर”
वैदेही ने थोड़ा झुँझलाते हुए कहा ।
उसे न जाने क्यों कमली का हँसना खिलखिलाना नागवार गुज़रा । अजीब इंसानी फ़ितरत है यह, जब अपना मन उदास बेचैन हो तो किसी दूसरे का हँसना बोलना बिलकुल भी नहीं भाता । तब बस यही मन करता है कि सारी दुनिया उस इंसान के साथ दुखी हो और सहानुभूति जताए ।
कमली के जाने के पश्चात वैदेही उठकर घर के भीतर आ गई ।दरवाज़ा बंद किया और चुपचाप ड्राइंगरूम में पड़े दीवान पर कटे वृक्ष की भाँति गिर पड़ी । बाहर अँधेरा छा चुका था और घर के भीतर भी गहन अंधकार था । वैदेही ने जानबूझकर कोई भी बल्ब अथवा ट्यूबलाइट नहीं जलाई । उसे रोशनी के कारण बनने वाली अपनी ही परछाईं से अब भय लगने लगा था । इसी कारण से वह आजकल अक्सर यूँ ही अकेली अँधेरे में पड़ी रहती और अपने जीवन को कोसा करती ।
वैसे भी वैदेही के लिए पतझड़ का मौसम अपने साथ ख़ालीपन की सौग़ात लाता है। दिल्ली में रहते हुए भी वह लखनऊ यूनिवर्सिटी के उन्हीं सूखी पत्तियों से ढँके वीरान रास्तों पर चल पड़ती है जिनसे गुज़र कर उसकी ज़िन्दगी ठहर गई थी।
आज फिर यादों में लखनऊ ज़िन्दा हो गया था। दीवान पर लेटी वैदेही न चाहते हुए भी पुन: अतीत के स्याह गलियारों में भटकने लगी ।
क्रमश:
अंशु श्री सक्सेना
अनजाने रास्ते (भाग-2)