लाला धनीराम जी जैसा अनुशासन अपने प्रतिष्ठान में रखते थे,उतना ही अनुशासन परिवार संचालन में रखते।छोटी छोटी बातों पर भी निगाह रखना उनके स्वभाव में था।एक बार धनीराम जी के मित्र उनके केबिन में बैठे थे कि तभी एक मजदूर आया और बोला बाबूजी तबियत खराब लग रही है,एक दो घंटे आराम यही कर लेता हूँ,फिर काम पर लग जाऊंगा।
धनीराम जी बोले नही नही रामदीन तुम घर जाकर आराम करो और अब कल ही आना।और हाँ ये लो 100 रुपये, दवाई आदि जरूरत पड़े तो इनसे ले लेना। धनीराम जी के मित्र आश्चर्य से उन्हें देख कर कहा कि धनीराम मेरी समझ मे ये नही आ रहा कि पहले तो तुमने उस मजदूर को घर भेज दिया
जबकि वह खुद ही एक दो घण्टे की छुट्टी मांग रहा था,फिर ऊपर से उसे 100 रुपये भी दे दिये।धनीराम जी बोले देखो मित्र वह मजदूर बीमार तो था ये उसके चेहरे से भी लग रहा था,अब उसे मैं यही फैक्टरी में आराम को कह देता तो जितने समय वह यहां रहता तो खाली होने के कारण वह बाकी मजदूरो से बातचीत करता रहता,यानि जितना नुकसान उसके न रुकने पर होता
उससे अधिक वह यहां रुक कर कर देता।दूसरे वह घर जाकर दवा दारू करेगा तो जल्द काम पर वापस आयेगा, इस कारण उसे 100 रुपये दिये।धनीराम के मित्र उनका मुख देखते रह गये।इस प्रकार धनीराम जी नर्म दिल तो थे पर काम के प्रति कठोर थे।अपने एकलौते बेटे समीर के प्रति भी दिल मे खूब प्यार होते हुए भी ऊपर से कठोर थे।
इधर कुछ दिनों से धनीराम जी कुछ टेंसन में थे।वो अपने बेटे समीर के बदलते व्यवहार और लक्षण से चिंतित थे।एक रात्रि में देर से आये समीर के लिये नौकर ने दरवाजा खोला तब अपने कमरे से झांकते हुए समीर को देख वे धक से रह गये।समीर की चाल में लड़खड़ाहट थी,साफ था
उसने शराब पी हुई है।उनकी समझ मे आ गया कि समीर की संगत बिगड़ चुकी है।सुबह उठकर धनीराम जी ने समीर से कुछ नही कहा।उन्होंने जानकारी प्राप्त की तो पता चला समीर न केवल व्यसनों में पड़ा है,वरन किसी रीना नाम की लड़की के चक्कर मे भी पड़ा है।लड़की के विषय मे जानकारी प्राप्त करने पर ज्ञात हुआ कि लड़की आवारा किस्म की है।
समीर इन सब कुचक्रो में इतना लिप्त हो गया था कि वह समझाने से मान ही नही सकता था तो फिर क्या किया जाये, सोच सोच कर धनीराम जी का सिर फटने को हो रहा था।फैक्टरी का कर्मचारी होता तो एक झटके में निर्णय ले लेते,यहां तो प्रश्न अपने एकलौते बेटे का था।लेकिन निर्णय तो लेना था।
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उस रात्रि की घटना के तीन दिन बाद धनीराम जी ने समीर को अपने पास बुलाया और कहा बेटा समीर मैंने तुम्हारा दाखिला यहां से हटाकर पिलानी में करा दिया है,वहीं होस्टल में रहना होगा।सुनकर समीर चौंका, उसने धीरे से विरोध किया पापा पिलानी तो बहुत दूर है,आपसे अलग मैं कैसे रह पाऊँगा?धनीराम जी समीर की इस भावुक अपील के पीछे का मंतव्य समझ रहे थे।उन्होंने कहा, बेटा अब तुम बड़े हो गये हो अब तो अलग रहने का अभ्यास डालना ही होगा।
अपनी तैयारी करो और परसो सुबह ही तुम्हे जाना है।समीर बेबसी में चला आया, वह अपने पिता के इस दृढ़ फैसले का कारण समझ नही पाया।एक बार फिर उसने पिता से पिलानी न जाने की अपनी अनिच्छा जाहिर की तो धनीराम जी ने दो टूक कह दिया,तो बेटा समीर अगर तुम्हें मेरा निर्णय नही मानना हो तो उसका एक रास्ता है
और वह है तुम्हारा मुझसे,इस घर से,मेरे व्यवसाय से कोई संबंध नहीं होगा।परसो तो तुम्हे इस घर से जाना ही होगा, अब यह तुम्हारी मर्जी पर है पिलानी जाओ या फिर इसी नगर में अपना अलग आशियाना बनाओ।समीर आज अपने पिता का अलग ही रूप देख रहा था।उसने चुपचाप पिलानी जाने की तैयारी करनी प्रारम्भ कर दी।
धनीराम जी का मन भी अंदर से टूट रहा था,बिना समीर के कैसे रह पायेंगे, पर उसके भविष्य को संवारने को दिल पर पथ्थर तो रखना ही पड़ेगा।समीर चला गया।धनीराम जी अकेले पड़ गये, घर खाने को दौड़ता तो उधर हॉस्टल में रहते समीर को अब व्यसनों से मुक्ति मिल गयी थी, पर रीना को वह नही भुला पा रहा था।
इसी कारण वह अपने पिता से मिलने की इच्छा दर्शाते हुए आना चाहता तो धनीराम जी उसे दीवाली पर आने को कह आने से रोक देते,वे बेटे के मनोभाव को समझ रहे थे।समीर को गये तीन माह बीत गये थे,इस बीच रीना ने अपने स्वभाव के अनुरूप दूसरे लड़के से दोस्ती कर ली।धनीराम जी पूरी जानकारी रख रहे थे,उन्होंने चैन की सांस ली।
दीवाली पर समीर घर आया।रीना से मिलने की जुगत भिड़ाने लगा तब उसे पता चला कि उसका तो बॉय फ्रेंड ही अब बदल चुका है।समीर के लिये यह दिमागी झटका था,उसे कल्पना ही नही थी कि एक लड़की इस प्रकार से भी अपना कलेवर बदल सकती है।उसे लगा कि उसके पिता ने उसे पिलानी भेजकर इस कुचक्र से उसे बचाया है।उसका मन अब अपने घर मे नही लग रहा था।दीवाली से अगले दिन ही समीर अपने पिता से पिलानी जाने की अनुमति लेकर पिलानी चला गया।अब उसे यहां अपने पिता के अतिरिक्त अन्य कोई आकर्षण नही रह गया था।अब वह अपनी पढ़ाई लिखाई मन लगाने लगा था।
गर्मियों की छुट्टियों में समीर घर आया।अधिकतर समय उसने अपने पिता के साथ व्यतीत किया अपने व्यवसाय को समझा। छुट्टियां समाप्त होने पर समीर ने जैसे ही पिलानी जाने की तैयारी शुरू की तो धनीराम जी बोले बेटा समीर अब तुम बिन बेटा मैं कैसे रह पाऊंगा,अब मत जाओ समीर,अब जाने की जरूरत भी नही है।
अब जाने की जरूरत भी नही है, सुनकर समीर के मस्तिष्क ठनका, ओह तो उसके पिता ने उसे अंध कूप से निकालने के लिये ही उसे पिलानी भेजा था।अंधेरा छट चुका था, सूर्य के प्रकाश में वह सब देख और समझ सकता था।श्रद्धा से आगे बढ़ समीर ने अपने पिता के चरण स्पर्श कर कहा थैंक्यू पापा—।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित।