पति से बातें करती हुई यामिनी के नयन फिर से झर-झर बरस रहे थे मगर आज की यह बारिश ख़ुशियों वाली थी। वे भी प्रेम से ताके जा रहे थे कर-बद्ध एकटक उनके मुख को निहारती हुई अर्द्धांगिनी को। पति के गहरे नयनों की भाव-भरी भाषा को बाँचती हुई यामिनी बीते अतीत की भूल-भुलैया में फिर से भटकने लगीं।
अपने पिता का जितना लाड़ला था, उतना ही जिद्दी था शिवांश। बचपन से उसकी अधिकांश जिद पापा बिना शर्त पूरी कर देते थे। पिता-पुत्र के इस प्यार-दुलार के बीच में कोई भी आया तो वे कह उठते थे,
____”मेरी अपनी ख़ुशी के लिए मैं बेटे के लिए जितने दिन कर सकता हूँ, मुझे कर लेने दो…और तो किसी से कुछ माँगता नहीं हूँ मैं…सबके लिए अपने हिस्से के फ़र्ज़ निभाने से अगर पीछे हटूँ, तब कोई मुझे बोले!”
बड़ी बहन शिवांगी जितनी शान्त और संतोषी स्वभाव की थी, उससे ठीक उलट था शिवांश उन दिनों। हद दर्ज़े का शैतान और पढ़ाई-लिखाई से दूर भागने वाला। घर हो या मोहल्ला, हमउम्र बच्चों से उसकी कम ही पटती। कुछ मिनट साथ खेल कर ही अक्सर झगड़ा हो जाता और शिवांश उन्हें पीट कर भाग आया करता। दादी या चाचा-चाचियों में से कोई कितना भी फटकारे, उस पर कोई असर न होता बल्कि उल्टा ही-ही कर सबको चिढ़ाता भाग कर पिता के पीछे छुप जाता। विशाल से भी जब बेटे की शिकायत की जाती, वे अक्सर हँस कर टाल जाते।
____”अरे बच्चा है, अभी शैतानी नहीं करेगा तो क्या बुढ़ापे में करेगा…उसे बचपन जी लेने दो भई, साथ में मुझे भी मेरा बचपन…चार दिनों का खेला है सब, फिर तो…!”
एक और बात शिवांश में बहुत ख़ास थी। पिता की आँखों का तारा भले वह था लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार वह अपनी बहन शिवांगी से करता था। तीन साल के छोटे-बड़े इन दोनों भाई-बहन का जन्मदिन संयोगवश शिवरात्रि तिथि को आता था, अतः पिता ने अपने बच्चों का ऐसा अर्थपूर्ण नामकरण किया था।
जब तक शिवांश के पिता विशाल पूरे घर का खर्च अपनी जिम्मेदारी पर चला रहे थे, संयुक्त परिवार में सब आपसी प्यार तथा सहयोग से राजी-खुशी रह रहे थे। घर में हर छोटे-बड़े का अपना महत्व था, सभी को यथा-योग्य सम्मान और स्नेह मिलता था। पर कुछ साल पहले एक दिन अचानक सारी परिस्थितियाँ बदल गयी थीं।
फैक्ट्री से लौटते समय विशाल को भीषण हृदयाघात आया। कार चला रहे कृष्णा ने उनकी हालत की गम्भीरता भाँपते ही उन्हें सीधे पास वाले अस्पताल में पहुँचाया भी मगर कोई लाभ नहीं हो सका। लगभग मूर्छा की स्थिति में दो दिन अस्पताल में रहने के बाद सारी मोह-माया त्याग कर वे चल बसे। अन्तिम समय में पत्नी के छूटते हाथों को जी-जान से थाम कर कुछ कहने का प्रयास करते रहे थे पर सफल न हो सके थे। पल भर में प्राणों का पंछी माटी का पिंजरा तोड़ कर उड़ गया था।
उनके जाने के कुछ समय पश्चात ही घर-परिवार में इन दोनों भाई-बहन के साथ उनकी माँ यामिनी की अवहेलना होनी शुरू हो गयी। हर दूर-पास के रिश्तेदार की निगाहें बदल गयीं और देखते ही देखते शिवांश की मासूम शैतानियाँ सबके लिए असहनीय हो गयीं।
यामिनी जो बहुत कम उम्र में ब्याह करके इस घर में बड़ी बहू बन कर आयी थीं, अपने मधुर स्वभाव और उत्तरदायित्व निभाने के गुण के कारण जल्दी ही परिवार की धुरी बन गयी थीं, अब निरोपयोगी सामान की तरह कोने में सरका दी गयी थीं। सास के सामने ही वे देवर-देवरानियों द्वारा किसी बहाने से बड़े व सर्वसुविधायुक्त शयनकक्ष से निकाल कर दोनों बच्चों सहित मकान के पिछले हिस्से में बने बेकार पड़े कमरे में स्थानांतरित कर दी गयीं।
पितृविहीन शिवांश तब मिडिल स्कूल में पहुँचा था जब एक घटना फिर घटी और उसके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया जिसने उनकी दुनिया दोबारा से बदल कर रख दी।
उनके घर पर चचेरे भाई कियान का जन्मदिन मनाया जा रहा था। कियान के नाना-नानी भी समारोह में शामिल होने आये थे। वे अपने साथ ढेरों उपहार भी लाये थे, जिनमें से एक बैटरी-चालित खिलौना हवाईजहाज पर शिवांश का मन अटक गया था। बीते समय में मनाये गये अपने जन्मदिनों को याद कर उसने उस हवाईजहाज पर अपनी पसन्द की मुहर लगा कर अपना दावा ठोंक दिया था। चूँकि पहले शिवांश के जन्मदिन में जितने भी खिलौने उपहार के रूप में मिलते, विशाल उन्हें घर तो घर, पड़ोस तक के बच्चों को उनकी पसन्द पूछ कर बाँट दिया करते थे। इसके पीछे बेटे को सबके साथ मिल-जुल कर खेलने की सीख देना उनका उद्देश्य हुआ करता था।
बड़ी चाची यानी कियान की माँ ने जैसे ही देखा, तत्काल वह खिलौना शिवांश के हाथ से छीन कर अपने कमरे की अलमारी में बन्द कर दिया।
छोटे बच्चे को इतनी समझ नहीं आ पायी थी कि वह अपनी व परायी वस्तु का भेद समझता। उसने उस हवाईजहाज को वापस पाने की ज़िद करते ज़मीन पर लोटते हुए चिल्ला-चिल्ला कर रोना शुरू कर दिया।
यामिनी ने उसे लाख समझाने की कोशिश की, वह मानने को तैयार ही नहीं हुआ तो हार कर उन्होंने देवरानी से चिरौरी की थी,
____”थोड़ी देर के लिए खिलौना शिबू को दे दो न मँझली…खेल लेगा तो शान्त हो जाएगा…फिर तुम चाहे वापस रख देना!”
चाची कुछ बोलतीं उससे पहले ही उनकी माँ तुरन्त ही यामिनी को सुनाते हुए कहने लगीं,
____”इतनी भी जिद अच्छी नहीं होती। पूरा बिगाड़ रखा है छोकरे को तो तुमने…ये क्या दूसरे के सामान के लिए ऐसा हठ…इसके मामा ने बहुत प्यार से अपने भान्जे के लिए भेजा है खिलौना…समय रहते सँभाल लो…ऐसा ही रहा तो देखना चोर-चकार बन जाएगा एक दिन!”
यामिनी के वहाँ से मुड़ते ही वे दबे स्वर में बेटी से कहने लगीं,
____”इन सत्यानाशी की जड़ों को समय रहते निकाल देने को बोलना दामाद जी से…नहीं तो तुम्हारे बच्चों के हक़ में सेंधमारी करेंगे ये..!”
उनकी तिरस्कार भरी कपटी बातें यामिनी को अपने दिल में उतरते जहरीले तीर की तरह लगीं लेकिन अपने बच्चे की हठ कर बैठने की भूल तिस पर से अपनी बेबसी, बेचारी को खून का घूँट पीकर चुप रह जाना पड़ा। माँ की कटोरे जैसी आँखों से बरबस छलक आयी गंगा-यमुना को किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ाते बेटे ने पहली बार अपने भीतर उतरती महसूस की। थोड़ी देर बाद माँ को सामने न पाकर उन्हें ढूँढ़ने लगा। सारे घर को देखने के बाद यामिनी घर के पिछले बरामदे के नीम अँधियारे में खड़ी मिलीं। मूर्तिवत निश्चल खड़ी चुपचाप शून्य में ताक रही थीं। तुरन्त ही शिवांश ने उनके सामने पहुँच कर अपने कान पकड़ लिये। माफी माँगता हुआ सुबकने लगा,
____”अब से कोई जिद नहीं करूँगा माँ…कियान और बबलू को देख कर कोई चीज भी कभी नहीं माँगूँगा…न ही याशी और टीशा के साथ झूला झूलने को…!”
उसकी बात अधूरी ही रह गयी। छलनी-छलनी हो रहे हृदय के साथ यामिनी ने बेटे को कलेजे से लगा लिया। पति के रहते घर में मनाये जाने वाले जन्मोत्सव के दिन उनकी आँखों में तैरने लगे। अन्तिम विदा से पहले पति द्वारा उनके हाथ थाम कर अस्फुट स्वर में कहे गये बोल कानों में गूँज उठे। मन ही मन कुछ निश्चय करने के बाद एकाएक उनकी मुखमुद्रा बदल गयी। लाचारी हट कर किसी निश्चय पर पहुँच जाने का भाव चेहरे पर उभर आया। दोनों हाथों से बेटे के आँसू पोंछती हुई वे दृढ़ स्वर में बोल उठीं,
____”एक ही शर्त में तुम्हें माफ करूँगी बेटा…तुमको कसम खानी पड़ेगी कि तुम ऐसे ही जिद्दी रहोगे हमेशा…एक बार जो ठान लोगे, उससे डिगोगे नहीं, चाहे कुछ हो जाये!”
शिवांश एकदम अचंभित रह गया। कहाँ तो उसे लग रहा था कि ज़िद न करने की बात पर माँ ख़ुश होंगी और ये तो उल्टा ज़िद पर अड़ने को कह रही हैं। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि माँ गुस्से और दुःख के कारण ऐसा बोल रही हैं या फिर सच में उसे कसम खाने को कह रही हैं।
उसे चुप खड़े देख कर यामिनी ने उसका दायाँ हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रखा और फिर से अपनी बात दोहरायी।
दुविधा में पड़े शिवांश ने माँ की इच्छानुसार उनके ही शब्दों को दुहराते हुए कसम खा ली, आप जैसा बोलोगी, वही करूँगा।
अब माँ ने उसे अपने कमरे में जाकर दीदी के साथ पढ़ाई करने बैठ जाने को कहा और ख़ुद घर की रसोई की दिशा में बढ़ गयीं। सबके लिए रात का खाना बनाना अभी ही शुरू न किया तो तनिक सी देर होते ही सब उन पर चढ़ दौड़ेंगे।
अगले दिन यामिनी ने विशाल के ज़माने में व्यवसाय के विश्वासपात्र मुनीम रहे रामविलास जी को ख़बर पहुँचवायी कि वे उनके बेटे आरुष से मिलना चाहती हैं। एक समय था जब होनहार आरुष हाईस्कूल में था और रामविलास जी ने विशाल से अपनी समस्या साझा की थीं कि उनके बेटे को गणित के सवाल समझाने वाला कोई योग्य अध्यापक नहीं मिल रहा है। तत्काल समाधान सुझाते हुए विशाल ने उसी दिन से आरुष को ऑफिस में बुलाकर रोज़ एक घण्टा पढ़ाना शुरू कर दिया था। अब तो वह इतना सिद्धहस्त हो चुका था कि गणित में ही स्नातकोत्तर कर रहा था।
पिता द्वारा बताते ही उसी शाम आरुष मिलने आ गया था। यामिनी ने उससे अपने दो काम कर देने की गुजारिश की। पहले तो अपनी उँगली से सोने की अँगूठी उतार कर उसे दी और बेच कर रुपये ला देने को कहा। फिर हफ्ते में जब भी उसे समय और सुविधा हो, अपने दोनों बच्चों को गणित पढ़ा देने को कहा। शेष सभी विषय तो यामिनी स्वयं ही पढ़ाने सक्षम थीं। आरुष बहुत समझदार लड़का था। विशाल द्वारा किये गये उपकार को रत्ती भर नहीं भूला था। उसने सहर्ष दोनों काम कर देने की हामी भर दी।
अगले दिन हाथ में रुपये आते ही यामिनी ने आरुष को ही बोल कर ठीक वैसा ही खिलौना हवाईजहाज मँगवा लिया और तुरन्त ही शिवांश को कमरे में बुलाया।
शिवांश के आते ही खिलौना उसके हाथों में थमाते हुए उससे दूसरी कसम खाने को कहा।
____”शिबू…जब तक तुम असली हवाईजहाज उड़ाने लायक नहीं बन जाते बेटा…खाओ फिर से मेरी और अपनी बहन की कसम कि अपनी जिद से पीछे नहीं हटोगे…चाहे जितनी भी बाधाएँ आयें, रुकावटें आयें, तुम हार नहीं मानोगे। कुछ भी करना पड़े, करोगे और एक दिन सेना में पायलट ऑफिसर बन कर दिखाओगे…तुम्हारे पापा यही चाहते थे बच्चे, तुम्हें याद है न!…वे तुम्हें कन्धे पर बिठा कर गाया करते थे, मेरा नाम करेगा रौशन जग में मेरा राजदुलारा!”
मनचाहा खिलौना पाकर मासूम बच्चा खुशी से उछल पड़ा था। माँ ने जो भी उससे माँगा, उसने सब के लिए तत्क्षण हामी भर दी और दोस्तों को अपना खिलौना दिखाने को बाहर की ओर दौड़ पड़ा।
अब जब भी वह पढ़ने में आनाकानी करता, माँ उसे उसकी प्रतिज्ञा याद दिलातीं और वह पढ़ने बैठ जाता। माँ ने बहुत पहले ही उसे यह बता रखा था कि किसी की भी झूठी कसम खाने से उसकी उमर कम हो जाती है, जैसे अगर तुमने दीदी की कसम खायी है कि ख़ूब पढ़ोगे और जो ठीक से नहीं पढ़ाई नहीं की तो वो कसम झूठी पड़ जायेगी और उसकी उम्र कम होती जायेगी…फिर वह भी पापा की तरह…। शिवांश अपनी बहन से बहुत ज्यादा प्यार तो करता ही था, उसकी उम्र कम हो जाने की बात सपने में भी उसे सहन नहीं थी, तुरन्त ही किताब-कॉपियाँ निकाल पढ़ने में जुट जाता। आरुष के साथ भी दोनों बच्चों का अच्छा तालमेल बैठ गया था। उसके साथ गणित के सवाल हल करना सीखते हुए दोनों जीवन की उलझनों को भी सुलझाने की दिशा में बढ़ चले थे।
स्कूल में खेलकूद वाली गतिविधियों के साथ अन्य प्रतियोगिताओं में भी यामिनी शिवांश को भाग लेने को प्रेरित करती रहतीं और जब वो भाग ले लेता, बराबर से उसे उसकी पुरानी आदत याद दिलाया करतीं।
____”तुमको जूझना है बेटा। कितना भी संघर्ष करना पड़े, पापा का सपना साकार कर दिखाना है। अपनी जिद पर अड़ने की आदत भूलनी नहीं है। अगर पूरे मन से ठान लोगे, कोई भी बाधा तुम्हें रोक नहीं सकती। बहन की जो जिम्मेदारी पापा तुम्हारे लिए छोड़ गये हैं, तुम्हें ही पूरी करनी है…करोगे न!”
माँ उसके अन्दर भरी जिद रूपी ऊर्जा को लगातार सही दिशा देती रहीं जिसका परिणाम समय के साथ दिखने लगा था। केंद्रीय विद्यालय में पढ़ने वाला शिवांश अब अपनी कक्षा की पढ़ाई के साथ अन्य शालेय स्पर्धाओं में भी सबसे आगे रहता। उसने मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा में पूरे जिले में टॉप करके संघर्षों से थक कर धूमिल हो रहीं माँ की आँखों में नया उजास भर दिया था।
संयोग से अगले ही दिन महाशिवरात्रि थी। शिवांश का 15वाँ और शिवांगी का 18वाँ जन्मदिन था। कैसी विडंबना थी, पिता के रहते जो दिन इतने धूमधाम से मनाया जाता था कि सुबह से तैयारियाँ शुरू हो जाती थीं, शिवांश के साथ घर के अन्य बच्चों को भी नये कपड़े दिलाये जाते थे, आज किसी को स्मरण तक नहीं था कि त्यौहार के अतिरिक्त भी कुछ विशेष है आज के दिन में। दादी तक को कोई ध्यान नहीं था। वास्तव में वक़्त बहुत बदल चुका था।
पूरे घर के काम अकेली करते थक कर चूर हो चुकी थीं यामिनी। आज उन्होंने सास के आदेशानुसार मुँह-अँधेरे उठ कर व्रत रखे घर के लोगों के लिए ढेरों फलाहारी व्यंजन और शेष सभी के लिए रोज की तरह सामान्य भोजन बनाया था। फिर किसी तरह से सास और दोनों देवरानियों की टेढ़ी नज़रों और उलाहनों की भरसक अवहेलना करके थोड़ी सी खीर बनायी, बेटी को बगीचे से थोड़े फूल लाने को कहा और आरती की थाली सजा कर उसको थमा दी। शिवांगी ने जब शिवांश के माथे पर रोली का टीका लगा कर आरती उतारते हुए पूछा,
____”कब से इंतज़ार था इस दिन का! दोहरी खुशी का दिन है आज और बहुत-बहुत खुश हूँ मैं! आज मेरा भैया राजा जो भी गिफ्ट माँगेगा, मैं कुछ भी करके दे दूँगी, बता क्या चाहिए तुझे?”
वास्तव में शिवांगी ने पिछले दो सालों से पड़ोस के कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था और थोड़ा-थोड़ा करके कुछ रुपये जमा करके रख लिये थे, फिर कुछ महीनों पहले उसे स्कूल के पास के एक छोटे से प्रकाशन हाउस से एक काम मिला था, जिसे पूरा करके अभी हाल ही में उसे एकमुश्त बड़ी रकम मिली थी। किसी को पता नहीं था, देर रात सबके सोने के बाद शिवानी प्रायमरी और मिडिल कक्षाओं के पाठ्यक्रमों की कुंजियाँ लिखने लगी थी। माँ और भाई के संघर्षों में अपना योगदान देने में वह भी पीछे नहीं रहना चाहती थी।
शिवांश ने अर्थपूर्ण दृष्टि से माँ की ओर मुस्कुरा कर देखा और उनकी मौन सहमति पाकर अपने अन्दर भरी हुई सकारात्मक हठ का एक हिस्सा बड़ी बहन को हस्तांतरित करने की मंशा से बोला,
____”इस दिन का इंतज़ार तो मुझे भी था मेरी प्यारी बहना और उपहार भी मुझको चाहिए लेकिन मुझे लगता नहीं कि तुम दे पाओगी मेरा मनपसन्द गिफ्ट!”
____”अंडरएस्टीमेट करके मत चलियो, कोई कमज़ोर पार्टी जान कर, समझा न!…बाइक चाहिए, महँगा स्मार्टफोन या फिर किसी दूसरे शानदार स्कूल में इस साल एडमिशन…सबके लिए मेरे पास पर्याप्त एमाउंट है। भाई…तू तो बस अपना मुँह खोल!”
____”ऐसाsss!!…तो सुनो, मुझे…मुझे न…चलो छोड़ो रहने दो दीदी…तुम दे नहीं पाओगी…फिर बेकार में गिल्टी फील करोगी!” जानबूझ कर शिवांश ने बहन को भरपूर उकसाया।
____”तू बोल तो सही, इन सबसे बढ़ कर भी कुछ माँगेगा न आज..तो अपने नन्हें से भाई को निराश नहीं करूँगी मैं, प्रॉमिस!”
शिवांगी इस क्षण पूरे उत्साह से भरी हुई थी।
____”तो सुनो…मुझे न अपने लिए डॉक्टर दीदी चाहिए…वो भी कोई झोलाछाप नहीं, बल्कि हार्ट-स्पेशलिस्ट!”
एक-एक शब्द पर जोर देते हुए शिवांश ने कहा।
____”डॉक्टर दीदी?…हार्ट-स्पेशलिस्ट??…ये क्या बोल रहा है रे…ये कौन सा गिफ्ट हुआ?”
शिवांगी एकदम से उलझन में पड़ गयी। भाई के साथ माँ का चेहरा बारी-बारी से देखने लगी।
अब यामिनी ने आगे बढ़ कर बेटी के दोनों हाथों को दृढ़ता से थामा और ममता से उसकी आँखों में झाँकतीं बेटे के कहने का मन्तव्य स्पष्ट करती हुई बोलीं,
____”शिबू को डॉक्टर दीदी चाहिए यानी कि मुझे डॉक्टर बिटिया चाहिए…मतलब…इसी साल प्री-मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट देना है तुम्हें, वो भी पूरी तैयारी के साथ…और टेस्ट में पास होकर सबसे अच्छे मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लेकर दिखाना है!”
माँ और भाई की आँखों में जलते आशाओं के झिलमिल दीपों में एकाएक शिवांगी को अपने प्रेमिल पिता की छवि दिखने लगी। बच्चों के भविष्य को लेकर पाला गया उनका स्वप्न दिखने लगा और…और अन्तिम समय की उनकी अतृप्त आँखें भी…सपनों के अधूरे छूट जाने की व्यथा में डूबती हुई। तत्काल अनिर्णय की स्थिति से उबर कर वह दोनों के गले लग गयी और उनके इच्छित उपहार के लिए अपनी स्वीकृति दे दी। एक साथ तीनों को लगने लगा जैसे उनका छोटा सा कमरा उजालों से भर गया है और अनिश्चितताओं का अँधेरा कहीं पीछे छूटता जा रहा है।
फिर जीवन अपनी निश्चित गति से गतिमान रहा। दिन, महीने, साल व्यतीत होते रहे और वह विशेष दिवस अन्ततः आ ही गया।
अपनी ज़िद पर खरा उतर कर आज सफल पायलट है पिता का लाड़ला शिवांश, भारतीय वायुसेना का सजग प्रहरी। वीरता के अनेक मेडल उसकी छाती पर शोभायमान रहते हैं। देश की सीमाओं की चौकसी में ऊपर आकाश में विशेष विमान से चक्कर काटता जब भी वह नीचे झाँकता है, अपने पिता उसे अपनी दो उँगलियों से विक्ट्री साइन दर्शाते दिखाई देते हैं। वह गर्व और श्रद्धा की युगल भावनाओं से सराबोर हो उठता है।
उसकी लाड़ली बहन शिवांगी भी पीछे नहीं रही है। अब वह सिद्धहस्त, कुशल सर्जन है। हृदयरोग विशेषज्ञ। इस छोटी सी उम्र में राजधानी के सैनिक अस्पताल की वह मुख्य चिकित्साधिकारी है। शासकीय सेवा के अतिरिक्त उसने अपने माता-पिता के नाम पर एक निजी चिकित्सालय भी खोल कर रखा हुआ है जहाँ कैश काउंटर ही नहीं बना हुआ है। बाहर ही विशालकाय बोर्ड लगा हुआ है, ‘यदि आप या आपका कोई परिजन हृदयरोग से ग्रस्त है, आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इलाज में असमर्थ हैं तो आप निस्संकोच यहाँ हमारी सेवाएँ लेने हेतु आइए। यहाँ इलाज व दवाइयाँ पूर्णतः निःशुल्क हैं।’
आज जीत चुका है एक माँ का संघर्ष और जीत गयी है उसके बच्चों की जिद। अपने सारे कर्तव्य व उत्तरदायित्व भली-भाँति निभा पाने की संतुष्टि में डूबी यामिनी घर के मन्दिर में संझा-बाती करती हुई गुनगुना रही थीं। वहाँ से उठ कर वे पति की चन्दन हार चढ़ी तस्वीर के सामने जा खड़ी हुईं। दोनों हाथ जोड़ कर प्रेमाश्रुओं की धार बहाती उनसे बतियाने लगीं,
“आपने जाते-जाते मेरे हाथ थाम कर जो ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी थी…देख लीजिए, मैंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है उन्हें पूरा करने में…आपके बच्चों ने सचमुच आपका नाम रौशन कर दिया है। अब कोई भी आपके बच्चों पर या मेरी परवरिश पर उँगली न उठा सकेगा। अब हम और हमारे बच्चे अँधेरों से आगे निकल आये हैं। अब तो ख़ुश हैं न आप…बोलिए न जी!”
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(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)
नीलम सौरभ
रायपुर,छत्तीसगढ़