आज फिर एक बच्चे को बाय बोलकर सिस्टर रुबि थोड़ी उदास हो गई । तभी उनकी सहकर्मी चेतना बोली —-
सिस्टर रुबि , आप बहुत ज़्यादा इमोशनल हैं । मरीज़ तो आते- जाते ही रहते हैं, आप क्यों इतनी उदास हो जाती हैं ।
अरे नहीं चेतना …. उदास नहीं हूँ । बस एक ख़ालीपन सा लगता है । जिसे तुम उदासी कह रही हो , वह केवल वो समय है जिसमें मैं चिंतन और मनन करती हूँ ।
कैसा चिंतन और मनन ? कई बार आपकी बातें समझ से बाहर हो जाती हैं । चलिए, मेरी तो ड्यूटी ख़त्म हो गई …. घर जा रही हूँ ।
चेतना के जाने के बाद रुबि अपने रुम में जाकर बैठ गई । उसने कई सालों से आग्रह करके अपनी ड्यूटी बाल- विभाग में लगवाई हुई थी । बार-बार उसके दिमाग़ में चेतना के कहे शब्द गूंज रहे थे कि सिस्टर रुबि आप बहुत इमोशनल हैं । रुबि को बहुत अच्छी तरह याद है कि पहले उसे एक चिड़चिड़ी नर्स के रुप में जाना जाता था केवल जाना ही नहीं जाता था…. वह सचमुच हर बात पर खीझ भी जाती थी । मजाल कि कोई मरीज़ या उसका अटेंडेंट दुबारा कोई बात पूछ ले ? ऐसी झुँझला कर पड़ती थी कि पूछने वाला तो डर ही जाता था पर आसपास खड़े लोग तक सहम उठते थे ।
पर कई बार एक छोटी सी घटना भी हमारे जीवन को इस कदर बदल सकती है, रुबि ने कभी सोचा भी नहीं था । उस समय उसकी ड्यूटी सर्जरी विभाग में थी । एक दस- बारह साल का बच्चा भर्ती था । हर मरीज़ की तरह वह सुबह- शाम डॉक्टर के साथ राउंड पर जाती … लेखाजोखा बताती , बताए निर्देशों को लिखती , दवाई देती , इंजेक्शन लगाती और ड्यूटी ख़त्म समझ लेती पर एक दिन वह बच्चा अकेला लेटा हुआ था, डॉक्टर ने कहा—-
सिस्टर रुबि! इनके अटेंडेंट कहाँ है? क्या सुबह इसने कुछ खाया था ?
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मयंक ! कहाँ है तुम्हारी माँ…. तुमने कुछ खाया या नहीं… दवाई खाई सुबह?
बच्चा चुप रहा । डॉक्टर ने भी दुबारा कुछ नहीं कहा । तभी थोड़ी देर बाद मयंक के साथ रहने वाली औरत पर रुबि की नज़र पड़ी —-
आप उस बच्चे की माँ हो ना जिसकी सर्जरी हुई है …. कहाँ थी तुम ? बच्चे को सुबह की दवाई कुछ खिलाकर दी होगी ना ?
मैं तो उसकी दादी हूँ… बेटा । हस्पताल से मिला हुआ दलिया ….
अभी उसने इतना ही कहा था कि रुबि दहाड़ते हुए बोली——
दलिया नहीं तो क्या हलवा – पूरी मिलेगा उसे ? ऐसे नख़रें करते हैं मानो कहीं के बादशाह हो । फिर ले आया करो घर से पकवान बनाकर अपने लिए….
रुबि के शब्दों को सुनकर वह सहम गई थी । उसके होंठ काँपने लगे बस उसने हाथ में पकड़ी एक थैली ऊपर उठा दी । रुबि का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया—-
क्या दिखा रही हो मुझे? दिमाग़ ख़राब करके रख दिया है ऐसे- ऐसे लोगों ने …. हमें तो अपना नौकर समझते हैं । इन्होंने खाया…नहीं खाया … हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है इसका ध्यान रखने की । बच्चे के माँ- बाप कहाँ है? उनको कहो कि वे बच्चे के साथ रहें । बूढ़ी औरत को भेज दिया …..
सुबह से शाम तक लोगों की हाय- हाय सुनते रहो बस … बड़बड़ाती वह वार्ड से चली गई थी ।
जब अगले दिन रुबि नाइट ड्यूटी के लिए आई तो बच्चे के पास उसकी दादी को देखकर तुनककर बोली—-
तुम गई नहीं…. बच्चे के माँ- बाप क्यों नहीं आए ? तुम्हारी वजह से पचास बातें डॉक्टर की सुननी पड़ती हैं ।
रुबि एक बार सभी मरीज़ों पर नज़र डालकर अपने स्थान पर जाकर बैठ गई । तक़रीबन एक घंटे के बाद उसकी नज़र वार्ड के बाहर पड़े बैंच पर पड़ी । उसने देखा कि मयंक को गोद में लिए उसकी दादी उसे कुछ खिला रही है । तभी रुबि ने सुना कि दादी कह रही है——
ना मेरे बेटे…. डॉक्टर की बातों का बुरा नहीं मानते । वो सिस्टर रुबि ग़ुस्सा नहीं करती , वो तो सबसे बहुत प्रेम करती है….
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नहीं दादी…. वो बड़ी गंदी है । बात भी नहीं सुनती । मेरे माँ- बापू को तू भगवान के घर से कैसे बुलाएगी दादी? हस्पताल में काम करने वाले बुरे होते हैं…. तू तो कहती है कि डॉक्टर बनकर लोगों की सेवा करना…. मैं डॉक्टर नहीं बनूँगा ।
ना बच्चे…. डॉक्टर और मरीज़ के बीच तो भक्त और भगवान का रिश्ता है….. कोई भगवान की बात का भी बुरा मानता है भला ?
तभी रुबि उठकर उनके पास गई । उसे देखते ही बच्चा दादी की छाती से चिपट गया —-
सिस्टर जी , ये थोड़ा सा मीठा भात खिला रही थी बस ….
चलो मयंक , अंदर जाकर सो जाओ ।
पता नहीं क्यों और कैसे? पर इस समय न तो रुबि की आवाज़ चिड़चिड़ी थी और न ही उसके चेहरे पर ग़ुस्सा । दादी ऊँह की आवाज़ के साथ पोते को गोद में लेकर उठी और वार्ड में चली गई । रुबि का मन बार-बार उसे परेशान कर रहा था । वह दादी से बात करना चाहती थी । जब उससे रहा नहीं गया तो वार्ड में चली गई । उसने देखा कि दादी पोटली सी बनकर पोते के पैरों के पास लेटी है । रुबि ने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा और इशारे से बाहर बुलाया ।
तुमने उस दिन मुझे बताया क्यों नहीं कि बच्चे के माँ- बाप नहीं है, और कौन- कौन है तुम्हारे घर में ?
बिटिया! हम दो ही है । मैं भी लोगों के घरों में खाना पकाकर अपने पोते को पाल रही हूँ….. उसे मीठा भात बहुत पसंद है । उस दिन वो ज़िद पकड़कर बैठ गया था कि दलिया नहीं खाएगा….बस मीठा भात लेने चली गई थी । अब आगे से ख़्याल करूँगी ।
अम्मा….. जानती हो ना अगर डॉक्टर की बात ना मानी तो मयंक आपरेशन के बाद ठीक नहीं होगा और उसकी बीमारी फैल जाएगी ।
एक बात कहूँ सिस्टर जी ! बुरा तो ना मनाओगी?
तुम मुझे बिटिया ही कहो अम्मा…. बोलो क्या कहना है?
ग़ुस्सा थूक दो , सेवा करने वालों पर तनिक नहीं जँचता । अस्पताल में जितने भी आदमी आते हैं, दुखों के मारे हैं । दवाई के बिना भी तुम्हारे दो मीठे बोल उन्हें बहुत बड़ा सहारा देंगे ।
तुम लोग काम ही ऐसा करते हो , ग़ुस्सा ना करुँ तो कोई बात नहीं मानेगा ।
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ना बिटिया… अस्पताल में काम करने वाले तो सहनशीलता की मूर्ति होते हैं तभी तो ईश्वर दुनिया की सेवा करने के लिए उन्हें चुनते हैं । मेरा पोता डॉक्टर बनना चाहता था पर तुम्हारे ग़ुस्से को देखकर उसके मन में ऐसा डर बैठ गया कि …..बिटिया, बड़े तो एकबार समझ भी जाएँ पर बच्चों के सामने मानवता की मिसाल क़ायम रखनी चाहिए ।
रुबि हतप्रभ रह गई अम्मा की बातें सुनकर…… जो बातें मयंक की अनपढ़ दादी ने कहीं , कितनी गहराई लिए हुई थी । रुबि को मन ही मन ग्लानि हुई कि नर्सिंग के बाद ली गई शपथ का एक- एक शब्द वह कितनी जल्दी भूल गई । उसने अपनी इच्छा से अपना पेशा चुना था फिर मरीज़ों के साथ चिड़चिड़ेपन को याद करके रुबि को शर्मिंदगी का अहसास हुआ था । वह चुपचाप अम्मा के पास से उठकर अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई और सोचती रही….. बहुत देर तक चिंतन और मनन करती रही ।
अगली सुबह ड्यूटी समाप्त होने से पहले वह वार्ड में गई । हर मरीज़ को देखकर मुस्कुराई और मयंक के पास जाकर बोली —-
मयंक बेटा … अभी थोड़ी देर में नाश्ता आएगा… वहीं खाना है । अगर डॉक्टर का बताई चीज़ें नहीं खाई तो ज़्यादा दिन अस्पताल में रहना पड़ेगा , फिर तुम्हारी पढ़ाई छूट जाएगी, तुम्हारी दादी को दुख होगा । क्या तुम दादी को दुख देना चाहते हो ?
नहीं सिस्टर जी, मैं आपकी सारी बात मानूँगा बस आप ग़ुस्सा मत करना ।
सॉरी बेटा…. अब ग़ुस्सा नहीं करूँगी । तुम्हें बड़ा होकर डॉक्टर बनना है ना ?
हाँ…. मुझे डॉक्टर बनना है ।
रुबि की एक माफ़ी ने बिगड़ने से पहले रिश्ते सुधार दिए । ऐसे बहुत से रिश्ते, जो विश्वास पर टिके होते हैं, इंसानियत पर टिके होते हैं । अनाम होते हैं पर ईश्वर और भक्त जैसे पावन होते हैं ।
उसी दिन रुबि ने अस्पताल प्रबंधक को प्रार्थना पत्र लिखकर अपनी ड्यूटी बाल- विभाग में लगवा ली ताकि छोटे बच्चों के साथ रहकर बच्चों के सामने मानवता की मिसाल क़ायम कर सके। उसके बाद मयंक क़रीब एक हफ़्ता अस्पताल में रहा । रुबि हर रोज़ दादी- पोते से मिलने जाती । जिस दिन मयंक को छुट्टी मिली उस दिन एक नई सह्रदया , हँसमुख सिस्टर रुबि ने उसे विदाई दी ।
लेखिका : करुणा मलिक
# एक माफ़ी ने बिगड़ने से पहले रिश्ते सुधार दिए