दो दिनों के बाद उर्मि को प्रयागराज जाना था। वो बहुत खुथ थीं और फिर चल पडा़ पुरानी यादों का सिलसिला…. उनके छोटे भाई वहाँ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे और उन्होनें सबकी इच्छा के खिलाफ़ आयशा बेगम से विवाह किया था।
वो उन यादों की नाव पर सवार होकर हिचकोले खा रही थीं। आयशा के पीहर वालों ने तो उनसे सदा के लिए सम्बंध तोड़ लिया था..पर हमारे परिवार ने उनको अपनाया पर पूरी खुशी से नही। उन्हें खूब याद है जब एक तरह से रोते रोते बाउजी ने कहा था कि
“अमर, तुमसे ये उम्मीद नही थी पर जो ईश्वर की मर्जी। बहू को लेकर तुम हमारे नए बंगले में शिफ़्ट हो जाओ…यहाँ हमारे साथ नहीं।”
आयशा ने व्याकुल होकर उनकी ओर देखा था और अमर के इशारे पर उनके चरणस्पर्श के लिए लपकी थी..पर बाउजी तो जैसे पत्थर ही हो गए और मुँह फेर कर खड़े हो गए थे,
“लीला, ये बंगले की चाभियाँ बहू को मुँहदिखाई में दे दो और कह दो,मेरे मरने की खबर पाकर भी आने की जरूरत नही है।”
अम्माजी तो जैसे काठ हो गईं। वो दोनों कुछ देर अम्माजी को देखते रहे …फिर झटके से निकल गए। वो यानि उर्मि चीख पड़ी,” बाउजी, वो जा रहे हैं,इतने कठोर मत बनिए! भाईभाभी को अपना लीजिए।” पर नही..वो उसी तरह मुँह घुमाए खड़े रहे… शायद उनको पहली बार अपने बाउजी पर क्रोध उमड़ा था। अम्मा उनके जाने पर बहुत रोई थी पर बाउजी ने स्पष्ट शब्दों में उनसे कोई सम्बंध नही रखने का आदेश पारित कर दिया था। हाँ अम्मा ने अपने सारे गहने चुपचाप उन्हें सौंप कर कहा था,”तेरे जिद्दी बाउजी के कारण मैं तो लाचार हूँ पर तू ये अमानत हमारे बाद हमारी आशा(आयशा का नया नाम उसी दिन अम्मा ने रख दिया था) को दे देना।”
बाद में बाउजी ने अपने अंतिम समय में सबसे अधिक भाई भाभी को ही याद किया था पर जिद्द के आगे घुटने नही टेके।
वो बहुत असमंजस में थीं। अब वहाँ जाना है तो क्या करें पर बाद में
उन्होंने ठान लिया था ….बाउजी की कसम बाउजी के साथ खत्म…वो भाई भाभी के घर पर ही ठहरेंगी…. खबर नही की….सरप्राइज का अपना मज़ा है।
इसी तरह विचारों में लीन उनको ड्राइवर ने टोका तो चौंकीं थीं, अरे …अमर का घर आ भी गया… पर ये क्या…घंटी की मधुर आवाज के साथ सुमधुर’ओम् जय जगदीश हरे’की धुन के पीछे सम्मोहित होकर बढ़ती गई। वहाँ आयशा उर्फ़ आशा तल्लीन होकर आरती गा रही थी…आरती की समाप्ति पर वो उन्हें दरवाज़े पर खड़ा देख कर चौंक गई..”अरे दीदी आप, अंदर आइए’ कहते हुए पैरों पर झुक गई। उन्होंने गदगद् होकर गले से लगा लिया।
भाई भतीजी सब निकल आए और खुशियों का सैलाब बह निकला।खा पीकर सब बैठे और आरोप प्रत्यारोपों का सिलसिला चालू हो गया तो आशा बोल पड़ी,” बंद करिए ये सब! आज हमारे दरवाज़े पर हमारे अपने आए हैं, हमारी खुशियाँ आई हैं… रंग में कोई भंग नही डालिए।”
वो हक्की बक्की होकर देखने लगीं।
तभी आयशा यानि आशा बोल पड़ी,
“दीदी, हर परिवार की एक मर्यादा होती है, एक कायदा होता है… बाउजी उसी से बंधे थे…फिर उस मर्यादा का उल्लंघन तो हमने भी किया था…उनको भला बुरा ना कहें।”
अंदर कमरे में अम्मा बाउजी की मुस्कुराती फोटो देख कर वो अपने को संयत नही रख सकी और झट सूटकेस से गहनों का डिब्बा निकाल कर आशा के हाथ पर रख दिया..”‘ये लो अम्मा की सौगात..तुम्हारी अमानत जो इतने दिनों से मेरे पास गिरवी पड़ी थी। तुमने कोई ग़लती नहीं की,किसी भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है। तुम अम्मा बाउजी की सच्ची बहू हो।”
#मर्यादा
नीरजा कृष्णा