“अहंकार की आग”- डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

करीने से सजी हुई मिठाई की टोकरियों में से मोनू ने धीरे से एक मिठाई निकाल ली। छोटे भाई ने देखा तो वह भी धीरे-धीरे टोकरियों के पास सरकते हुए गया और जैसे ही एक टोकरी में हाथ डाला माँ कमरे में से चीखते हुए आई-” नालायक कहीं का….बोली थी न कि ये मिठाइयां मामा के घर ले जाने के लिए है! क्यों हाथ लगाया इसमें? ” 

“माँ.. पहले भैया ने चुपके से हाथ लगाया था। उसने तो पता नहीं कितनी मिठाइयां निकाल कर खा लिया है।” सोनू ने मासूमियत से कहा। 

माँ गुस्से में तमतमा गई और एक चांटा रसीद कर दिया सोनू के गाल पर। “

माँ के इस क्रोध को देख पिताजी ने अपना गुस्सा माँ को दिखाया और बोले-” अरे! भाग्यवान क्यों मारा बच्चे को?”

“आपने देखा नहीं  क्या किया था इसने?

 “एक मिठाई ही तो ले लिया था न उसने !”

माँ का भी पारा गरम हो गया खीज कर बोलीं-” तो क्या करूँ…. माँ पिताजी के गुजरने के पांच साल बाद मायके जा रही हूं , तो ढंग से ही सब कुछ लेकर जाऊँगी न ! “

“एक से एक तोहफे लेकर सब बहनें आयेंगी और मैं यह आधी अधूरी मिठाई की टोकरी लेकर जाऊँ? “

पिताजी माँ की मनसा भांप गये। बात बढ़े नहीं इसलिए कहा-” लाने दो कीमती उपहारों को। उपहार से प्यार थोड़े न बढ़ता है! और वैसे भी तुम्हारे घमंडी भाई -भाभी को तुम्हारी भावनाओं का कदर नहीं है।

माँ की भृकुटी तन गई-“आप चुप रहिये जले पर मरहम पट्टी करने की जरूरत नहीं है। मिठाई की दुसरी टोकरी तैयार कर दीजिये। मैं यह टूटा- फुटा लेकर नहीं जाऊँगी। “

“ठीक है ! हो जाएगा दूसरा तैयार !”

तुम्हें सही कहा जाये तो बुरा लगता है ! अखिरकार मैके वाले हैं न पर्दा तो डालोगी ही…।

“क्या पर्दा डालती हूँ भैया भाभी पर बताइये जरा आप ! अब किस्मत ने उन्हें लखपति बनाया है तो क्या वह घमंडी हो गये?”

 “आप न ऐसी बेकार की बातें मेरे सामने ना ही करें तो अच्छा रहेगा समझ गए ना!”

“अच्छा भाई नहीं करता…! छोड़ो बेकार की बहस में समय बर्बाद मत करो और जाने की तैयारियां करो।”

  माँ का मिजाज देखते हुए पिताजी ने दोनों बच्चों को आँख दिखाते हुए इशारे से बाहर भेजा। उन्हें डर था कि कहीं उन दोनों के उपर माँ का बाकी कहर न बरस जाये! माँ के रौद्र रूप धारण करने वाले अभिनय से वह परिचित थे।

माँ के बड़े भाई की शादी का पच्चीसवा सालगिरह था। उसी में माँ को बुलाया गया था।  माँ ने अपना जितना जमा पूंजी बटोर कर रखा था उससे मामी,मामा और उन के बच्चों के लिए अच्छे -अच्छे कपड़े खरीदे । नियत समय पर तैयारी पूरी हो गई। 

मामा ने ट्रेन की तत्काल वाली टिकट भेज दी थी। वर्ना खुद के  बूते इतनी दूर मुंबई जाना सब के लिए सम्भव नहीं था। मामा मुंबई के खांटी बिजनेसमैन थे और पिताजी एक सरकारी नौकरी वाले आदमी। दोनों की हैसियत पर एक कहावत खड़ी उतरती है ‘कहां राजा भोज कहां गंगू……।’

  सब लोग जैसे -तैसे रिक्शे से स्टेशन पहुंचे । माँ ने अपने साथ में इतना सारा समान ले लिया था कि पिताजी सबको ट्रेन पर चढ़ाते चढ़ाते खीझ गये थे। तब माँ ने सांत्वना देते हुए कहा-” चिंता मत कीजिए वहां एक से एक कीमती गाड़ी है भैया के पास। हमें घर तक जाने में कोई दिक्कत नहीं होगी!”

पिताजी कुछ बोलते -बोलते चुप हो गये। सोचा माँ का मन फिर खराब हो जाएगा। पूरे दो दिन के सफर के बाद सभी मुंबई पहुंचे। सब लोग स्टेशन पर उतरकर मामा की महंगी गाड़ी का इंतजार करने लगे। जब काफी देर हो गई तब पिताजी ने एक ऑटो भाड़े पर किया और चल पड़े।

तभी मामी का फोन आया। माँ चहक कर बोली -” आप चिंता मत कीजिए भाभी, हम लोग ऑटो से आ रहे हैं ।”

उधर से मामी ने लगभग चिंतित होते हुए कहा-” ओह्ह छोटी यह क्या कह रही हो? ऑटो से…।

माँ बोली-” भाभी कोई बात नहीं आप क्यूँ परेशान हो रहीं हैं हमें कोई दिक्कत नहीं है ऑटो से आने में!”

ओह्ह छोटी दिक्कत तुम्हें नहीं…

हमें होगी न! यहां तुम्हारे भैया के एक से एक विदेशी मेहमान दोस्त आए हुए हैं ! भला क्या सोचेंगे तुम लोगों को ऑटो से उतरते देख कर। “

माँ के चेहरे की सारी खुशी पल भर में गायब हो गई फिर भी झूठी मुस्कान लिए फोन पर बात कर रही थीं ताकि पिताजी ना समझें । पिताजी के पूछने पर कि क्या बात हुई।  बहाना बना दिया कि सभी गाड़ियां एयरपोर्ट गईं हैं और मेहमानों को लाने के लिए।

सचमुच में मामा का बंगला आलीशान था। एक से एक  महंगी गाड़ियां लगी हुई थी।  माँ का सीना गर्व से फुल रहा था। सही भी था। किसी भी बहन को खुशी होती है भाई की तरक्की देख कर ! माँ सोच रही थी कि  भैया दौड़ कर आयेंगे और वह लपक कर उनके गले लग जाएगी।

 पर, इतने में दो लोग घर से बाहर आये और कहा-” मैडम आप लोग पिछे के रास्ते से अंदर चलें। बड़े साहब ने कहा है। पिताजी की भृकुटी तन गई की यह क्या बात हुई? हमें पिछे के रास्ते क्यों जाना है?”

बुरा तो माँ को भी लगा पर वह पिताजी को समझाने लगीं-” चलिए ना क्या फर्क पड़ता है आगे से जाएं या पिछे से जाना तो घर में ही है।” 

पिताजी ने भी ज्यादा बात को तूल नहीं दिया और ऑटो पिछे वाले रास्ते की ओर मुड़ा दिया। बंगला तो सच में स्वर्ग जैसा सुन्दर था। माँ ने सभी बच्चों को हिदायत दी कि कोई भी समान बिना पूछे नहीं छुएं।

माँ सब से मिली। मामा से भी मिली पर वैसी गर्माहट नहीं थी जो माँ को मायके जाने पर अपने माँ- पिताजी से मिलने पर मिलती थी।  

सभी बहनें अपनी -अपनी महंगी गाड़ियां लेकर आई थीं। उन सभी का स्पेशल देख भाल हो रहा था। माँ ने जब सबके सामने अपनी लाई गई मिठाइयों का टोकरा खोलना शुरू किया तो मामी ने कहा-” इनको पैक ही रहने दो छोटी ! तुम्हारे भैय्या को डायबिटीज है और  और बच्चे इस तरह की मिठाइयां नहीं खाते। उन्होंने एक नौकर को बुलवाया और सभी टोकरियों को  बेकार पड़े कमरे में रखवा दिया।  माँ उनके इस हरकत से झेप गईं। अब वह  बच्चों के लिए जो कपड़े लाई थीं उसे निकालने का हिम्मत नहीं जुटा पाई।

माँ अपने आप को ढाढस बंधा रही थीं। किसी तरह रात बीती। अगले सुबह ही पार्टी थी। मामा ने पार्टी एक बहुत बड़े पांच सितारा होटल में रखी थी। उन्होंने सबको तैयार होकर नीचे आने के लिए कहा। नीचे कतार से गाड़ियां लगी हुई थीं  जिससे सभी लोग होटल जा सकें। 

सब जल्दी -जल्दी गाड़ियों में बैठ रहे थे। पिताजी शायद इंतजार में थे कि कोई उन्हें बैठने के लिए कहेगा। उन्हें पता ही नहीं था कि वे मुंबई में थे जहां रिश्ते औकात देख कर निभाए जाते हैं यहां कोई किसी के लिए नहीं रुकता है और न पूछता है। 

माँ को भी बूरा लग रहा था। जैसे भी थे पिताजी तो उनके मायके में मेहमान ही थे। जब उन्होंने देखा कि पिताजी को कोई भाव नहीं दे रहा है तो वह बोलीं-” आप आगे जो गाड़ी खड़ी है न उसमें जाकर बैठ जाइए भैय्या ने कहा है। “

पिताजी जाकर गाड़ी के आगे वाली सीट पर बैठ गये। माँ ने चैन की साँस ली और बच्चों के साथ दूसरी गाड़ी में बैठने के लिए बढ़ने लगी।

तभी मामा दनदनाते हुए मामी के पास आकर बोले-” किसने छोटी के हसबैंड को मेरी गाड़ी में बैठाया?”

 तुम्हें पता है न कि उसमें मेरे साथ मेरे खास फ्रेंड बैठेंगे । और वे  जब उनका परिचय पूछेंगे तो मैं क्या बताऊँगा कि हाँ हाँ मेरी बहन के हसबैंड हैं जो एक ऑफिस में बाबु के पद पर हैं !”

माँ को लगा जैसे किसी ने उनके कान में शीशा पिघला कर डाल दिया हो। भैया को इतना घमंड धन -दौलत और अपने रुतबे का था जिसने इतने नजदीकी रिश्ते को भी जला कर खाक कर दिया ! यह वही भैया हैं न जो उसके छोटे-छोटे नखरे उठाने के लिए पलकें बिछाये रहते थे। 

माँ  के दिल में एक टीस उभरने लगी जो आंसू बनकर   आँखों से गिरने लगा। उसके आँखों के आगे अंधेरा सा छाने लगा । उसे मामा की  बातें लहू-लुहान कर रही थीं। 

आज माँ को महसूस हुआ कि कैसे पिता के घमंड ने माता सती को आग में भस्म होने पर मजबूर किया होगा। माँ ने अपने आप को संयत किया और पिताजी के गाड़ी के पास जाकर बोलीं आप जल्दी गाड़ी से उतारिए हम अभी  गांव लौट जायेंगे। पिताजी ने हड़बड़ाहट में पूछा आखिर हुआ क्या है?

माँ का अभिनय आज काम आ गया था सिसकते हुए बोलीं -” फोन आया था वहां माँ जी को हार्ट अटैक आया है जल्दी चलिए। “

किसी के पास फुर्सत नहीं था कि कोई पूछता की वे लोग कहाँ जा रहे हैं। 

 माँ ने पिताजी को  गाड़ी से नीचे उतार लिया और सबको लेकर वह स्टेशन पहुँची। जैसे- तैसे बिना रिज़र्व सीट के ही सभी गाँव पहुंचे। माँ जी दौड़ कर बाहर आईं और पोते -पोतीयों  को सीने से लगा लिया। पिताजी ने माँ को भली-चनगी देखा तो आश्चर्य से माँ की तरफ देखा…। 

 जिस तरह माँ गंगा ने मैके में बालू खाया था फिर भी कभी नहीं कहा कि वह बालू खाकर आईं हैं । माँ  वैसी ही बेटी थी उस ने अपने भाई के घमंड पर पर्दा डाला था और अपने स्वाभिमान की रक्षा भी की थीं। 

स्वरचित एंव मौलिक

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार

#घमंड

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2 thoughts on “ “अहंकार की आग”- डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा”

  1. Bahut hi sunder kahani hai. Kahani kahna bhi galat hi hoga aajkal Ghar Ghar ki hakikat hai. Manviya risto to punjivad ne khatam kar Diya. Bahut bahut badhai bahin ji itni sunder rachna ke t.

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