शाम को पांच बज रहे थे। ऊंघते हुए चपरासी ने घड़ी की और उनींदी नजरों से देखा और एकदम मुस्तैद हो गया, टन टन टन….. जोर से घंटी की आवाज स्कूल परिसर में गूंजने लगी। स्कूल की सभी कक्षों में से झुण्ड के झुण्ड बालिकाएँ बन्दूक की गोली की तरह बाहर निकल रही थी। खनखनाती हंसी और चीखने चिल्लाने के शोर के बीच स्कूल का मैदान ढेर सारी नीली ड्रेस और लाल रिबनों से आच्छादित हो गया था। सब के बीच होड़ लगी थी। जल्दी से जल्दी घर पहुँचने की। स्टाफ रूम में भी टीचर्स जाने ही वाले थे।
प्रिन्सीपल साहिबा के कमरे से बेल की कर्कश आवाज आते ही स्टाफ रूम में शांति छा गई। सब के कान खड़े हो गए थे। घर जाने से पहले पता नहीं क्या आफत आने वाली थी। पता नहीं किसे, किस आदेश की पालना करनी पड़ेगी। प्रिंसीपल साहिबा श्रीमती उषा भार्गव का एक एक शब्द पत्थर की लकीर था। डिसीप्लिन बनाए रखने के लिए वो बहुत कठोरता से पेश जो आती थी ।
दीनू चपरासी ने स्टाफ रूम में आकर बताया सुप्रिया मेडम को प्रिंसिपल मैडम बुला रही है। यह सुनते ही जहाँ बाकि लोग तनावमुक्त हो गए सुप्रिया के चेहरे पर अव्यक्त चिंता की लकीरे खींच गई। सुप्रिया तिवारी साहित्य की लेक्चरर थी और हँसमुख स्वभाव की उर्जावान युवती थी। सांस्कृतिक गतिविधियाँ उनके बिना गतिहीन और दिशाहीन रहती थी। सुप्रियाजी को उस कन्या विद्यालय में आए अभी छह माह से ज्यादा समय नहीं हुआ था। बहुत ही कम समय में उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था। छात्राएँ तो उन्हें हरदम घेरे रहती थी। मानो सारी समस्याओं का हल उनके पास हो ।
जिला शिक्षा अधिकारी, डिप्टी डायरेक्टर आदि बड़े अधिकारी जब भी निरीक्षण पर आते सुप्रिया तिवारी को स्पेशली बुलाकर छात्राओं की गतिविधियों के बारे में जानकारी लेते। यही कारण था प्रिंसीपल श्रीमती उषा भार्गव की ईष्या का क्योंकि इन सब बातों से उषा जी का अहं आहत होता था। छात्राए भी सुप्रिया मैडम को कुछ ज्यादा इज्जत देती थी।
सुप्रियाजी न सिर्फ साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों की इंचार्ज थी वरन् स्काउट गाइड प्रशिक्षक भी थी। प्रिंसीपल साहिबा चाहती तो थी कि स्कूल की प्रगति का ग्राफ हमेशा ऊँचा रहे पर दूसरी और अपने अंतरमन में बैठे अहं के सांप को फन फटकारने से नहीं रोक पाती थी। वे समय-समय पर सुप्रिया जी को इस तरह के कठिन कार्य सोप देती थी जिन्हें निर्धारित समयावधि में पूरा करना मुश्किल हो।
सुप्रिया भी अब धीरे-धीरे इन बातों को समझने लगी थी। विरोध के स्वर सुप्रिया की ओर से मुखर होने लगे थे। वह विनम्रतापूर्वक अपना विरोध दर्ज करा देती। धीरे-धीरे सुप्रिया, उषा जी की आँख की किरकिरी बन गई थी। वह मौके की तलाश में थी कि कब सुप्रिया को सबक सीखाने का मौका मिले। सुप्रिया भी तू डाल-डाल में पात-पात की तर्ज पर काम करती थी।
प्रिंसीपल साहिबा के बुलावे पर सुप्रिया उनके कक्ष में गई। उषाजी के चेहरे के तेवर बदले हुए थे। सुप्रिया ने धीरे से बोला- “मैडम आपने याद किया था?” उषाजी ने सिर ऊँचा कर चश्मा ठीक करते हुए कहा, “हाँ सुप्रिया तुम्हे इसलिए बुलाया है कि गुरुवार से स्काउट कैम्प का जिला स्तर पर आयोजन होगा। सभी स्कूल से स्काउटस और उनके इंचार्ज की उपस्थिति अनिवार्य है। तुम कल से ही गर्ल्स को सूचना देकर तैयारी शुरू कर लो।” सुप्रिया तो यह सुनकर सकते में आ गई ।
वह धीरे से विनम्रता से बोली, “पर मैडम गुरुवार में तो सिर्फ दो दिन बाकि रह गए है। इतनी जल्दी कैसे हो पाएगा? फिर रक्षाबंधन का त्यौहार भी परसो ही है।”
उषाजी ने तनिक नाराजगी भरे स्वर में कहा, “सुप्रिया यह आफिस आर्डर है हम इसे डिसओबे नहीं कर सकते।” सुप्रियाजी ने उषाजी की बात काटते हुए कहा, “पर मैडम, इतनी जल्दी लड़कियों के पेरेन्टस भी तैयार नहीं होते, फिर राखी तो बड़ा त्यौहार है, फिर एक प्रैक्टिकल प्रॉब्लेम यह है कि इन दिनों रह-रह कर तेज बारिश हो रही है। यदि छात्राओं की उपस्थिति पूरी नहीं हो पाती है तो कैम्प का क्या फायदा ? आखिर कैम्प का उद्देश्य छात्राओं का सर्वांगीण विकास ही तो है।”
उषा जी का अहं फूफ़कार उठा वे तेज स्वर में चिल्ला कर बोली, “सुप्रिया ! हम गर्वमेन्ट सर्वेन्ट है। उपर से जो आदेश आते है उनका पालन करना हमारे लिए अनिवार्य है। फायदे नुकसान के बारे में सोचना उपर के सक्षम अधिकारियों का काम है डिसीप्लीन इसी तरह मैन्टैन होता है।”
सुप्रिया ने सुझावात्मक स्वर में कहा मैडम आप एक बार डिप्टी डायरेक्टर साहब से इस बारे में बात करके देखें तो सही, इस कैम्प को अगले माह में कभी भी करवा लेते तो अच्छा होता। क्योंकि सभी स्कूल की छात्राओं की समस्या भी समान होगी।
उषाजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। लगभग चीखते हुए स्वर में बोली “सुप्रिया, तुम मुझे सीखाओगी कि मुझे किस से क्या बात करना चाहिए ? यू नो मैं तुम्हारी ऑफिसर हूँ, बस तुम्हें जो कहा जाए वो करो! देट्स आल !
इस विषय में अब कोई दलील नहीं सुनना चाहती !”
उषाजी ने सपाट स्वर में अपनी बात खत्म की और झटके से कुर्सी छोड़कर केबिन से बाहर चल दी।
सुप्रिया ने अपने आप को काफी आहत महसूस किया। वह अपने आँसू नहीं रोक पाई, घर पहुॅची तो पति सुशांत और दोनों बच्ची टीनू मीनू बैचेन से बरामदे में ही मिल गए । “मम्मी इतनी देर लगा दी, हम आपका कब से इंतजार कर रहे थे। दोनों ने सुप्रिया को लगभग घेर ही लिया, सुप्रिया ने झल्लाहट भरे स्वर में दोनों बच्चों को डॉट ही तो दिया था, “हटो अलग । ये क्या बचपना है? अब तुम बड़ी हो गई हो ये सब अच्छा नहीं लगता मैं थकी हुई हूँ।”
कहते हुए सुप्रिया ने अपना पर्स सोफे पर पटका और अपने बेडरूम में चली गई दोनो बच्चियाँ सहम गई थी। टीनू बोली, “मम्मी रोज तो आते ही प्यार करती हैं, स्कूल के बारे में पूछती है आज जरूर कुछ गड़बड़ है।”
सुशांत भी चिंतित हो गए । सुशांत ने जाकर धीरे से बेडरूम का दरवाजा खोला तो देखा सुप्रिया बेड पर औंधे मुँह लेटी सुबक सुबक कर रो रही थी। सुशांत धीरे से जाकर पलंग पर बैठ गए । सुप्रिया के माथे पर हाथ फिराने लगे। अब तो सुप्रिया के सब्र का बांध मानो टूट ही गया। सुप्रिया भरभरा कर रो पड़ी।
सुशांत ने उसे ढाढस बंधाते हुए पुछा आखिर बात क्या हैं ! सुप्रिया ने सारी घटनाओं को सिलसिलेवार विगत संदर्भों सहित सुशांत को बता दी। सुशांत सारी बातें सुनकर बोले, “सुप्रिया तुम अपनी जगह बिल्कुल सही हो। उषाजी अपने अहं के घेरे से बाहर नहीं निकल पा रही है। तुम्हारा सुझाव उत्तम होते हुए भी इसलिए उन्होंने ठुकरा दिया क्योंकि इसमें तुम्हारी वाह-वाही थी। पर दिल छोटा मत करो तुम सीधे अपने उच्चाधिकारी से मिलकर सारी समस्या उनके सामने रख दो। शायद कोई हल निकल आए।”
सुप्रिया को यह बात बिल्कुल ठीक लगी।
अगले दिन सुबह सुप्रिया ने जब जाते ही बोला कि मैडम में आज दोपहर बाद आधे दिन अवकाश पर जाऊँगी उपाजी ने व्यंगात्मक स्वर में कहा, “क्यो? वर्क लोड ज्यादा हो गया है क्या? गुरुवार से कैम्प है,याद है ना?!”
सुप्रिया ने शांत स्वर में कहा मैडम, “मुझे सब याद है।”
उषाजी मन ही मन बहुत खुश हो रही थी कि अब सुप्रिया की नाक कटने की बारी थी क्योंकि समय बहुत कम था, काम असम्भव सा था। उन्हे लगा यह तो बिना कुछ किए ही चक्रव्यूह तैयार हो गया। सुप्रिया उन्हे अभिमन्यु की तरह लगने लगी जो चक्रव्यूह में घुस तो गई पर तोड़ने का रास्ता नहीं ढूँढ पा रही थी।
सुप्रिया ने बड़े बेमन से प्रथम चार पीरियड का समय व्यतीत किया बार-बार उसकी नजरे आज घड़ी पर जा रही थी। जैसे ही मध्यान्ह अवकाश की घंटी बजी तेज-तेज कदमो से स्टाफरूम में गई, अपना पर्स और छाता उठाया और चल दी अपनी मंजिल की ओर। स्कूल गेट के बाहर ही आटो रिक्शा तैयार मिल गया।
दस-पन्द्रह मिनट बाद तो वे डिप्टी डायारेक्टर साहब के दफ्तर जा पहुँची। वहाँ जा कर देखा तो पहले से ही विजिटर्स की लम्बी कतार लगी थी। उसने भी एक पर्ची पर अपना नाम, स्कूल का नाम आदि लिखकर चपरासी को दे दिया और सोफे पर अन्य लोगो की तरह प्रतीक्षा में बैठ गई। प्रतीक्षा में बैठे-बैठे चार बज गये थे।
सभी लोग बुरी तरह उब गए थे। चपरासी ने जम्हाई लेते हुए एक आदमी की तरफ देखकर बोला, “डी. डी. साहब पाँच बजे तो चले ही जाएंगे” तो लोग और बैचेन हो गए। उनमें से कुछ तो कल मिलने की बात करते हुए उठकर चल दिए।
सुप्रिया ने ठान ली थी कि चाहे कुछ भी हो जाये, आज मिलकर ही जाना है।
तभी सामने से विक्रांत आता दिखाई दिया। विक्रांत सुशांत का बहुत ही अच्छा दोस्त था। विक्रांत बोला, “अरे भाभीजी आप यहाँ कैसे?” घर पर सब ठीक है आदि एक साथ कई सवालों की झड़ी लगा दी।
सुप्रिया ने उसे अपनी परेशानी बताई। सुप्रिया बोली दोपहर दो बजे से प्रतीक्षा में बैठी हूँ। आज साहब से मिलना ही है।
विक्रांत बोला, “मैं भी इसी दफ्तर में काम करता हूँ और डी.डी. साहब का पी.ए. हूँ। अतः आपको अभी डी.डी. साहब से मिलवाने का काम चुटकियों में करवा दूँगा, बस आप एक मिनट रूकिए मै आता हूँ।”
यह कहकर वह तुरन्त डी.डी. साहब के चेम्बर में घुस गया। उनसे इजाजत लेकर वह सुप्रिया को तुरन्त अन्दर ले गया। डी. डी. साहब अच्छे मूड में लग रहे थे।
सुप्रिया ने जुलाई माह की इस बारिश में लगने वाले कैम्प, रक्षाबंधन का त्यौहार व छात्राओं की समस्या के बारे में विस्तार से बताते हुए कैम्प को अगले माह तक स्थगित करने की मांग की।
डी. डी. साहब सुप्रिया से पहले से ही प्रभावित थे। इस घटना ने उनकी नजरों में सुप्रिया को और ऊँचा उठा दिया। उन्होंने उसके साहस की तारीफ की कि इतने सारे स्कूलों में से एक ने भी उनके आदेश पर कोई प्रतिक्रिया नहीं भेजी। सुप्रिया ने अपने सीनियर आफिसर के विरोध के बावजूद व्यक्तिगत तौर पर आकर पूरे जिले की समस्या का प्रतिनिधित्व किया जो वास्तव में प्रशंसनीय कदम था।
डी.डी. साहब ने तुरंत घंटी बजकार अपने पी.ए. विक्रांत को बुलाया और सुप्रिया के सामने स्काउट कैम्प को अगले माह तक स्थगित करने के आदेश जारी कर दिए।
सुप्रिया को धन्यवाद देते हुए डी. डी. साहब बोले, “तुम्हारी वजह से एक गलत निर्णय होते हुए बच गया।”
दो दिन बाद गुरुवार की सुबह थी। उषाजी आज सुप्रिया को चारों खाने चित्त होते हुए देखना चाहती थी। सुप्रिया बड़े आराम से स्कूल आई।
प्रिंसिपल साहिबा ने कल शाम को देर से आई डाक को आज सुबह एक-एक कर खोलकर देखना शुरू किया। उन्होंने जैसे ही तीसरा सफेद लिफाफा खोला उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। डी.डी. साहब के हस्ताक्षर से जारी आदेश पत्र में न सिर्फ कैम्प अगले माह तक स्थगित होने की बात लिखी थी बल्कि सुप्रिया के प्रयास की अनुशंसा भी लिखी थी।
उषाजी का अहं बर्फ की मानिन्द पिघलने लगा। उन्हें समय पर सुप्रिया की बात पर ध्यान न देने का अफसोस था।
उषाजी ने सुप्रिया को अपने कक्ष में बुलाया, माफी मांगकर गले लगाते हुए बोली, “सुप्रिया, मैं अपने अहं के घेरे से बाहर नही निकल पा रही थी I बड़प्पन मुझ पर हावी हो गया था, तुम तो मेरी छोटी बहन के समान हो, मुझे माफ नहीं करोगी?”
दोनों की आँखो से आँसूओं की गंगा-जमुना बह चली जिसमें दोनों के मन का मैल धुल गया था।
विजय शर्मा (विज्येश)
कोटा, राजस्थान
स्वरचित, अप्रकाशित
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