पिताजी की तेरहवीं को अभी सप्ताह भी नहीं हुआ था कि दोनों भाइयों में प्रापर्टी को लेकर तू तू मैं मैं शुरू हो गई थी । लावण्या को यह देखकर बहुत दुख हुआ कि माता-पिता सारी जिंदगी बेटों के लिए ही मरते रहते हैं। बस उनकी ही परवाह करते हैं । बेटों की चाह करते हैं बेटियों को पराया समझते हैं और आजकल के लड़के कितने प्रैक्टिकल हो चुके हैं और बड़ा ही सीना चौड़ा कर कर कहते हैं उम्र हो गई थी… मरना तो एक दिन सभी को ही है उसमें इतना दुख मनाने की क्या बात है?
जब कि उसके आँसूं अभी तक पिताजी को याद करके रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। पिताजी कितने खुद्दार और कितने बड़े दिल के थे। सारी जिम्मेदारी आजीवन स्वयं निभाई। फिर भी अंतिम समय में दोनों बेटों ने उनकी कोई परवाह नहीं की और उनकी आंखें बंद होते ही दोनों प्रॉपर्टी को लेकर लड़ने झगड़ने लगे हैं। एक शाम बड़े भाई ऋषभ ने अपनी बड़ी बहन लावण्या को बुलाकर कहा-” दीदी! आप बताओ कि प्रापर्टी का बंँटवारा कैसे करना है ? लवली ने धीरे से कहा-“ऋषभ! कुछ तो शर्म करो.. कुछ भी कहीं भागा नहीं जा रहा है क्या तुम कभी दोबारा इस शहर में नहीं आओगे …
अभी ठंडे दिमाग से सोचते हैं क्या करना है? अभी तो ऋषि यहांँ अपने परिवार के साथ रह ही रहा है ना..और अभी कोई बँटवारा नहीं हुआ है। वकील साहब से बात करते हैं निश्चित रूप से पिताजी भी कोई वसीयत कर ही गए होंगे ?तुम बेफिक्र रहो जो भी होगा सबकी सहमति से होगा… क्योंकि सारी प्रापर्टी मकान दुकान,शो रूम, प्लाट सब कुछ पिताजी के नाम है और बिना हम तीनों बहन- भाई की सलाह के कोई भी फैसला कानूनन नहीं लिया जा सकता”। लावण्या की बात सुनकर ऋषभ अपना सा मुंह लेकर चुपचाप वहांँ से चला गया।
वह जानता था कि पिताजी से उसकी कभी नहीं बनी। पिताजी हमेशा उसे कहते थे कि तुम्हें अपनी संपत्ति में से एक पैसा नहीं दूंगा उसे डर था कि शायद वे ऐसा कुछ कर ही न गए हों…
लावण्या इसी शहर में रहती थी। पिता की हर बात की राजदार भी थी। वह थोड़ी स्पष्ट वादी अवश्य थी पर अन्याय करना और सहना दोनों के खिलाफ हमेशा रही ।अक्सर पिताजी से उसकी हल्की-फुल्की कहन-सुनन भी हो जाती थी। पिताजी भी जानते थे कि दोनों बेटों से ज्यादा समझदार उनकी बेटी है। स्पष्ट कहती है पर लालची और स्वार्थी नहीं है। जब कि ऋषि की अपेक्षा ऋषभ बहुत ही लालची प्रवृत्ति का है। सब कुछ समझ कर भी उन्होंने जीते जी कभी किसी को कुछ नहीं कहा। सब कुछ अनदेखा कर शांत रहने की कोशिश करते थे।प्रत्यक्ष में सरल स्वभाव वाले मेहता साहब अंदर से पूरा समंदर थे। कभी किसी से कुछ नहीं कहते थे। लावण्या इसी तरह की पुरानी अपनी यादों में खोई हुई थी ।
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दोनों भाइयों ने पूछा तो कुछ नहीं कह कर टाल दिया।
अगले दिन वकील साहब घर आए और कहा-” मेहता साहब ने अपनी वसीयत में जो कुछ लिखा है वह आप तीनों सुन लीजिए”। वकील साहब ने पढ़ना शुरू किया -” मेरे प्यारे बच्चों मैं जानता हूंँ आजकल के बच्चों को माता-पिता के मरने का विशेष दुख नहीं होता।सब बहुत प्रैक्टिकल हो चुके हैं। खैर …मैं अपनी वसीयत का बंँटवारा पूरे होशो हवास में कर रहा हूंँ। ऋषि घर का छोटा बेटा है और भोला भी है इसीलिए मैं चाहता हूंँ कि जितनी भी मेरी चल-अचल संपत्ति है उसे ऋषभ अपने अनुसार खरीद-बेच करे। ऋषि को बड़े भाई की बात में दखल अंदाजी करने का कोई अधिकार नहीं होगा। जिस मकान में ऋषि रहता है वह मकान ऋषि का ही रहेगा। बाकी सब फैसले लेने के लिए घर का बड़ा बेटा होने के
नाते ऋषभ स्वतंत्र है। वसीयत सुनकर ऋषि स्तब्ध था मगर लावण्या के मुख पर कोई भाव नहीं था। वह वकील साहब के जाने के बाद अंदर अलमारी में से एक फाइल और एक कागज लेकर बाहर आई तो देखा वकील साहब के पीछे-पीछे ऋषभ भी तेजी से चल रहा है। लावण्या की नजरे ऋषभ पर ही थी। वह भी चुपके से उसके पीछे-पीछे तेजी से चल रही थी। थोड़ी दूर गली में जाने पर ऋषभ ने आगे पीछे देखा और वकील साहब के हाथ पर नोटों की गड्डी रखते हुए बोला-” थैंक यू वकील साहब! आपने मेरे कहे अनुसार वसीयत बदल दी और अब मैं सिर्फ दोनों को 10-10 लाख देकर सारी प्रॉपर्टी अपने नाम में कर लूंगा”
और यह कहकर उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान फैल गई। लावण्या ने उसे पीछे से ताली बजाते हुए कहा-” वाह ऋषभ! आज पिताजी की आत्मा कितनी खुश होगी तुम्हारे जैसे नालायक बेटे की हरकतों को देखकर और तुम्हारी बातों को सुनकर… धिक्कार है तुम्हें… भाई कहते हुए भी मुझे शर्म आती है। पिताजी को शायद पहले से पता था कि तुम ऐसी गिरी हुई हरकत कर सकते हो इसीलिए पिताजी ने पहले ही असली वसीयत की एक कॉपी मेरे पास सुरक्षित रखवा दी थी ।
और अब तुम्हें पिताजी की संपत्ति में से एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी क्योंकि उस वसीयत के हर फैसले का अधिकार पिताजी मुझे देकर गए हैं”। यह कहते हुए उसने पिताजी का आखिरी पत्र उसके हाथ में थमा दिया। ऋषभ ने वह पढ़ा तो उस का मुंँह लटक गया उसमें साफ लिखा था कि ऋषभ के आजीवन कुव्यवहार और परिवार के प्रति ग़ैर ज़िम्मेदार होने के कारण मैं अपनी चल अचल संपत्ति से बेदखल कर रहा हूं। यदि अपनी इच्छा से लावण्या कुछ देना चाहे तो यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। ऋषि को….. आगे वह कुछ पढ़ नहीं और वह हाथ जोड़कर माफी मांँगने लगा। लेकिन लावण्या उस की तरफ से मुंँह फेर कर आगे निकल गयी।
सरिता गुप्ता