अभिशप्त हूं मैं – शुभ्रा बैनर्जी

आलोक आज दफ्तर से घर जल्दी आ गया था, नवविवाहिता पत्नी अकेली जो थी घर पर।अभी दस दिन पहले ही शादी हुई थी मीनल के साथ।शिमला‌,मसूरी में हनीमून बिताकर कल ही वापस आए थे दोनों।

साधारण सी शक्ल सूरत वाले आलोक के सामने मीनल किसी अप्सरा से कम नहीं थी। हनीमून पर जाकर आलोक को मीनल के व्यवहार में उदासीनता दिखी।उसने सोचा नया -नया संबंध बना है अभी,खुलने में समय तो लगेगा।

वापस आकर अगले ही दिन दफ्तर जाने की बात यह सोचकर बोला मीनल से कि वह मना कर देगी।रूठेगी उससे इतनी जल्दी काम पर जाने की बात को लेकर।यह तो परिकल्पना ही थी आलोक की,मीनल ने कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं जताई।

अमूमन वह दोपहर को देर से ही जाता था लंच पर,आज नई-नवेली पत्नी को खुश करने जल्दी आ गया था घर।

“तो आज क्या पकाया है हमारी रानी साहिबा ने?”मीनल को बाहों में भरने की कोशिश करते हुए आलोक ने कहा।”वाह!!!!!रानी साहिबा भी कह रहे हो और खाना पकाने की उम्मीद भी रखते हो मुझसे।ये तुम पुरुष दोहरी मानसिकता को लेकर कैसे जीते हो?”

मीनल ने पलटते ही जवाब दिया।आलोक ने मीनल के इस रवैये की कल्पना नहीं की थी,अजीब सा लगा उसे मीनल का रूखा व्यवहार।

शाम को भी मीनल उदासीन ही मिली।आलोक ख़ुद बहुत अच्छा खाना बना लेता था,सो रात का खाना बनाकर मीनल को खुश करने की कोशिश की।

लगा नहीं कि वह खुश हुई भी ।आलोक को पेंटिंग बनाने का भी शौक था।पूरे घर में भरी पड़ी थी उसकी ढेरों पेंटिंग्स।मीनल रोज़ बड़बड़ाती,कब हटाओगे यह कबाड़?आलोक हंसकर टाल देता था उसकी बात।

देखते-देखते साल गुज़र रहे थे।अब मीनल दो बच्चों की मां भी बन चुकी थी।आलोक के प्रति उसकी उदासीनता में कहीं कोई कमी नहीं आई।

अपनी पत्नी की सुंदरता व महत्वाकांक्षी विचारों के आगे,आलोक को अपना व्यक्तित्व बौना ही लगता था। पत्नी के मन में मनपसंद सुंदर पति ना पाने की मौन व्यथा समझता था वह।मीनल की मां और उसकी मां सहेलियां थीं,उनकी शादी उस मित्रता का ही परिणाम थी।

मीनल ने अकेलेपन से ऊबकर स्कूल में नौकरी भी कर ली थी।अहंकारी स्वभाव के चलते वहां भी ज्यादा दिन ना टिक सकी थी।बच्चे बड़े हो रहे थे और एक ही छत के नीचे दो विपरीत विचारधाराओं वाले प्राणियों को अजनबी की तरह देख रहे थे।

आलोक को एक दिन उड़ती खबर सुनाई दी कि मीनल किसी से घंटों लैंडलाइन पर बातें करती रहती है।आलोक ने सोचा अच्छा ही है,मन मारकर दुखी रहने से बेहतर है अपना सुख-दुख किसी से बांट लेना।

कुछ दिनों के बाद ही आलोक को उस महापुरुष के बारे में भी पता चल ही गया जो मीनल के दुख का श्रोत बना हुआ था आजकल।आलोक इसी दुविधा में था कि कैसे इस विषय पर मीनल से चर्चा करें?

एक पति होकर अपनी पत्नी के चरित्र पर संदेह करना , संपूर्ण नारीत्व पर आघात होगा।एक रविवार की सुबह आलोक के सामने जब मीनल हंसकर अपने प्रेमी से बात कर रही थी तो,उसे लगा, मानो उसके पुरुषत्व पर ही हंस रही है मीनल।अब इस विषय पर बेशर्म होकर क्या बात करेगा वह मीनल से।

आस-पड़ोस वाले भी उसके प्रति नकारात्मक सोच रखने लगेंगे कि, पुरुष है ना,पत्नी पर आसानी से संदेह कर लेता है।यह पुरुष को किस पाप का अभिशाप मिला हुआ है, ईश्वर के द्वारा? सदैव औरों को खुश रखने का दायित्व क्यों पुरुष पर ही है?

पत्नी और माता-पिता के बीच सालों पिसता है एक बेटा ,तब कहीं जाकर अच्छे पति का प्रमाणपत्र मिलता है पत्नी से।साथ में मिलतें  है माता-पिता के ताने।बच्चों के लिए मां तो ममता की देवी बन जाती है पर पिता बन जाता है असुर।

यह विडंबना पुरुषों के साथ ही क्यों होती है?पराए घर से आई एक लड़की को मन-प्राण से अपनाकर भी यदि उलाहना ही मिले,तो धिक्कार है पुरुष होने पर। सहानुभूति की तो छोड़िए,समानता भी नहीं मिलती परिवार में कुछ पुरुषों को।

यही सोचकर आलोक ने चुपचाप अपने घर की मर्यादा बचाने दूसरे शहर में स्थानांतरण करवा लिया।बेटा बारहवीं में और बेटी दसवीं में,बाहर रहकर पढ़ रहे थे।आलोक अभी तक इस बात से भी अनभिज्ञ था कि उन्हें अपनी मां के प्रेम प्रसंग की जानकारी है भी या नहीं।

चाहे कुछ भी हो जाए,नफ़रत नहीं करने देगा उन्हें अपनी जन्मदायिनी से।ने शहर में आकर मीनल का अकेलापन दूर करने का इंतजाम भी कर‌ दिया था आलोक ने।मीनल का कंप्यूटर क्लास ,डांसिंग क्लास और ड्राइविंग क्लास में दाखिला करवा दिया था।

अब मीनल पहले की अपेक्षा ज्यादा खुश रहने लगी थी।आलोक को लगा,हर बात का एक अंत होता है।मीनल से अनजाने में गलती हो गई होगी,अब पछता रही है।मैं पुरुष हूं तो क्या,अपनी पत्नी को माफ नहीं कर सकता।

जरूर कर दूंगा उसे माफ,आखिर मेरे बच्चों की मां है वह।मेरा पहला और अंतिम प्रेम है वह।हां आज जाकर उसे बाहर ले जाऊंगा ,साथ में घूमेंगे तभी उसके मन से पुरानी यादों का कफ़न हटा दूंगा सदा के लिए।

चहकते हुए जैसे ही घर के दरवाजे पर पहुंचा ,मीनल की दबी-दबी आवाज़ सुनाई दी”सच!ये क्या बोल रहे हो तुम?हम एक हो जाएंगे।ओह!!!समीर,तुमने मुझे घुट-घुट कर मरने से बचा लिया।इस आदमी के साथ कैसे मैंने इतने साल गुज़ारे,मैं ही जानती हूं।

एक नंबर का नीरस और निष्प्राण इंसान हैं यह।इसे यह भी नहीं पता कि सुंदर औरत को कैसे खुश रखा जाता है।प्रेम करना तो इसे तुमसे सीखना चाहिए।क्या?अगले हफ्ते ही?ओह!!अच्छा -अच्छा,तुम उसकी परवाह मत करो,मैं बात कर लूंगी उनसे भी।

नहीं-नहीं मेरी तरफ से कोई आना कानी नहीं होगी।घर देख लिया है ना तुमने? हां-हां।चलो रखती हूं।सब तय करके फिर तुम्हें बताती हूं।”

आलोक की गर्दन की नसें तन गईं थीं।कान के पीछे से पसीना चूने लगा।पूरा बदन गर्म भट्टी सा तप रहा था।उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।मीनल घुट रही है इतने सालों से उसके साथ।

इतनी तंग आ गई है कि अब उसे और बच्चों को छोड़कर उस आदमी के साथ रहने की सोच रही है।उसने तो सोचा था कि शहर बदलने से प्रेम का भूत भी उतर जाएगा,पर मीनल तो सच में इतना प्रेम करती है उस आदमी से कि बच्चों को छोड़ने का निर्णय भी ले लिया।

बस अब मीनल को अपने साथ नरक में जीने नहीं देगा वह।अंदर आकर सबसे पहले बच्चों को फोन पर तुरंत घर आने के लिए कहा।मीनल से एक शब्द भी नहीं कह पाया ,शायद पुरुष का अहं आड़े आ रहा था।दूसरे दिन मीनल से सीधे ही उसके प्रेमी का पता पूछकर टिकट करवा लिया आलोक।

बच्चे आ चुके थे।आलोक ने दोनों को मीनल के साथ बैठाया और बोला”बाबू,पिंकी,तुम्हारी मां ने अपनी शादी में तुम दोनों को मुझे तोहफ़े में दिया है।एक बड़े शहर से आकर छोटी जगह में मेरे साथ रहकर मेरे मकान को घर बनाया है इन्होंने।

तुम्हारी मां ने जैसे पति की कल्पना की थी,मैं वैसा कभी बन ही नहीं पाया।वह बदलती रही ख़ुद को ,पर मैं ना बदल पाया।समाज और परिवार के डर से हमारे साथ रह रही थी,पर खुश नहीं हैं तुम्हारी मां।

उसकी ज़िंदगी में कोई है जो मुझसे ज्यादा प्रेम करता है इससे।तुम लोगों को शायद गलती लगे पर इस बार इस कहानी को मैं नया मोड़ देना चाहता हूं। तुम्हारी मर्जी से तुम हम दोनों में से किसी के भी साथ रह सकते हो।

मैं कानूनी कार्रवाई करके तुम्हारी मां का अपमान नहीं करना चाहता और तुम लोगों से भी यही आशा करता हूं।तुम अपनी मां के साथ अगर रहना चाहो तो तुम्हारे भरण-पोषण का दायित्व मेरा होगा।मैं तुम्हारे सामने किसी एक को चुन लेने का अवसर देता हूं।”

मीनल को भी इस बात का अंदाजा ना था कि आलोक इतनी दृढ़ता से अपना पक्ष रख पाएगा।बच्चों को साथ में ना रख पाने की मजबूरी बताई उसने।बच्चों ने आलोक के साथ रहना ही स्वीकार किया।उस रात शारदा कॉलोनी में दो ऑटो आए।

एक में मीनल का पूरा सामान,गहने,शादी में आलोक की मां द्वारा दिया गया हर शगुन,आलोक द्वारा दिए गए हर उपहार सूटकेस में भर कर रखें गए।दूसरे ऑटो में मीनल और दोनों बच्चों के साथ आलोक स्टेशन पहुंचा।दोनों ट्रेन देर रात की ही थीं।

एक जने वाली थी मीनल के गंतव्य,उसके प्रेमी के पास और दूसरी जा रही थी बच्चों के कालेज।आलोक कहीं नहीं जा रहा था।वह कहां जा सकता है।दोनों ट्रेनों को विदा करके जब आलोक घर पहुंचा सुबह के चार बज रहे थे।

अपने लिए लेमन टी बनाकर अपने लगाए गमलों के पास बालकनी में खड़े होकर आलोक बोल रहा था ख़ुद से ही”मैंने ठीक किया ना?पुरुष हूं इसका मतलब यह तो नहीं कि अपनी पत्नी की इच्छा पूरी ना कर सकूं।यही वचन तो लिया था सप्तपदी के समय।

हर सुख -दुख में पत्नी का साथ दूंगा।मैंने अपना वचन निभाया है।इस अभिशप्त पुरुषत्व की आड़ में दो लोगों का साथ रहना,दुनिया को दिया जाने वाला सबसे घिनौना धोखा होता।वह जहां भी रहे,खुश रहे।

आज आलोक के हांथ में बेटी की शादी का कार्ड है,अभी – अभी चक्कर आया है।मीनल होती तो कितना खुश होती पर बेटी नहीं चाहती कि वह आए ।बेटा भी मां को बुलाने के पक्ष में नहीं था।आलोक ने आठ साल में पहली बार बच्चों से छिपकर मीनल को खुशखबरी दे ही दी बेटी की शादी की,पुरुष है ना वह ,एकअभिशप्त पुरुष।

शुभ्रा बैनर्जी 

#पुरुष

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