” अभय..पापा मेरे साथ जायेंगे…उन्होंने मुझे पढ़ाया-लिखाया है…अब उनकी देखभाल करने का हक तो मेरा ही है।”
” नहीं भाई…पापा को मैं ले जाऊँगा..बचपन में मैं जब बीमार पड़ता था तो पापा रात-रात भर मेरे सिरहाने पर बैठे रहते थें।इसलिये अब उनकी सेवा करने का हक मेरा है।” अभय बोला तो फिर अजय अपने छोटे भाई को दलील देने लगा…।
घर के छोटे-से ड्राॅइंग रूम में दोनों भाई मैं-मैं कर रहें थें और कोने में रखे एक सोफ़े पर बैठे मास्टर दीनदयाल जी सोचने लगे, आज इन्हें मेरी फ़िक्र हो रही है लेकिन उस समय कहाँ थे जब मेरी शकुंतला अपने बेटों को एक नज़र देखने के लिये तरस रही थी…।
दीनदयाल जी के पिता अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर खेती करते थें।बेटी सुनयना के जन्म के तीन साल बाद जब उनकी पत्नी की गोद में पुत्र खेलने लगा तो उन्हें एक उम्मीद जगी कि अब मेरे बाद मेरा बेटा कृषि-कार्य को आगे बढ़ायेगा।लेकिन दीनदयाल के कुछ अलग सपने थे।वे अध्यापक बनकर बच्चों को शिक्षा देना चाहते थे।
इसलिये अपने गाँव के स्कूल से ही दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने पिता से शहर जाकर आगे की पढ़ाई करने की बात कही तो उनके पिता ना नहीं कह सके।
दीनदयाल बुद्धिमान थे और मेहनती भी।अपने जेबखर्च के लिये उन्होंने बच्चों को पढ़ाना शुरु कर दिया।इस तरह से उन्होंने बीए के बाद बीएड किया और एक स्कूल में शिक्षक बन गये।रहने के लिये एक डेरा लिया था जहाँ कभी-कभी उनके पिता बेटे से मिलने आ जाते थे।
सुनयना के विवाह के बाद दीनदयाल की माँ ने अपने एक परिचित के गुणवती बेटी शकुंतला के साथ उनका विवाह करा दिया।साल बीतते शकुंतला अजय की माँ बन गई और अजय चलने-बोलने लगा तो अभय उसकी गोद में आ गया।दीनदयाल जी स्कूल में बच्चों को ज्ञान देते और शंकुतला अपना घर-बच्चों को संभालने में व्यस्त हो गई।
एक दिन शकुंतला अपने पति से बोली कि अब अजय-अभय बड़े हो रहें हैं तो क्यों न हम अपना घर बनाने की सोचे।किराये के घर में बहू-उतारना क्या शोभा देगा।तब दीनदयाल बोले,” सोच तो मैं भी यही रहा था लेकिन…।”
” लेकिन की क्या बात है जी, बीए पास तो मैं भी हूँ..सिलाई भी सीखी है…सारा दिन खाली ही बैठी रहती हूँ…ट्युशन पढ़ाने और कपड़े सिलने से आमदनी होगी और मेरा समय भी कट जायेगा..आप क्या कहते हैं?”
” जैसा तुम ठीक समझो..कल घर जाकर बाबूजी से भी बात कर लेता हूँ।” कहकर वे अगले दिन गाँव चले गये।उनके पिता खुश होकर बोले,” अपना घर तो होना ही चाहिए लेकिन बेटे बैंक से कर्ज़ लेने की आवश्यकता नहीं है।मैं एकाध-दिन में ज़मीन का एक टुकड़ा बेचकर रुपये की व्यवस्था कर देता हूँ।”
रुपये हाथ में आते ही दीनदयाल ने ज़मीन खरीदकर घर बनवाना शुरु कर दिया।शकुंतला ट्यूशन पढ़ाने लगी और सिलाई भी करने लगी।बीच-बीच में जाकर वो खिड़की पर अपनी पसंद की लोहे की ग्रिल और टाईल्स लगाने का आदेश दे आती।किचन को तो उन्होंने पूरा दिन खड़े होकर तैयार करवाया।
नब्बे प्रतिशत घर तैयार होते ही दीनदयाल पूजा करके परिवार सहित अपने घर में शिफ़्ट हो गये।दोनों बच्चे बहुत खुश…कभी-कभी दीनदयाल के माता-पिता भी आकर बच्चों को आशीर्वाद दे जाते।
अजय को दिल्ली के एक बैंक में नौकरी मिल गई तो वो वहाँ जाकर शिफ़्ट हो गया।इसी बीच अभय भी इंजीनियरिंग पास करके नौकरी करने लगा।शकुंतला जी खुश थीं कि एक बेटा तो उनके पास है लेकिन कुछ महीनों के बाद जब अभय को मुंबई की एक बड़ी कंपनी से ऑफ़र आया तो वह भी अपने माता-पिता को ‘ आता रहूँगा ‘ कहकर मुंबई चला गया…फिर लौटा नहीं।
दीनदयाल जी नियमित स्कूल जाते और शकुंतला जी ने ट्यूशन पढ़ने आये बच्चों में खुद को व्यस्त कर लिया।एक दिन अजय ने शकुंतला जी को फ़ोन करके बताया कि उसने अपनी सहकर्मी राधिका के साथ कोर्ट-मैरिज़ कर ली है।पापा को आप समझा दीजियेगा…और हाँ..जब आना हो तो बताइयेगा…
मैं टिकट भेज दूँगा।सुनकर तो दीनदयाल जी का खून खौल उठा था।पत्नी से बोले,” रुपये का धौंस किसे दिखाता है..।” इस चोट से दोनों उबरे भी न थे कि अभय ने भी अपनी शादी की खबर देकर उन्हें एक और झटका दे दिया।अब नाराज़ होने से कोई फ़ायदा तो था नहीं।
अभय ने निमंत्रण-पत्र के साथ हवाई जहाज की दो टिकटें भी भेज दी थीं, सो उन्हें जाना ही पड़ा।बेटे- बहू को आशीर्वाद देकर दोनों वापस आ गये और अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गये।
दीनदयाल जी सेवानिवृत्त हो गये।माता-पिता के देहांत के बाद उन्होंने खेती का काम गाँव के ही दो लोगों को सौंप दिया।शकुंतला जी अब अपने पति के साथ साये की तरह रहने लगी थी।दोनों अजय की एक बेटी और और अभय के दो बच्चों के दादा-दादी बन चुके थे।उन्हीं के मोहवश दोनों कभी-कभी बेटों के पास चले जाते थे।
अभय के बेटे के जन्मदिन पर दोनों वहीं थे।पार्टी के अगले दिन शकुंतला जी ने पोते से हँसते-हँसते पूछ लिया कि मेरे छोटे बाबू को क्या-क्या गिफ़्ट मिला है..ज़रा अपनी दादी को भी तो दिखाओ।पोता बोला,” हाँ-हाँ दादी..ये देखिये..।” कहते हुए वह एक-एक करके गिफ़्ट अपनी दादी को दिखाने लगा।उन्हीं में से एक खिलौना शंकुतला जी के हाथ से छूटकर गिर पड़ा।
यह देखकर पोता रोने लगा तो बहू दौड़ कर आई।फ़र्श पर खिलौने के दो टुकड़े देखकर वह गुस्से-से बोली,” आप कौन होती हैं इसके खिलौनों को हाथ लगाने वाली…।मेहमान हैं तो मेहमान की सीमा में ही रहिये।”
बड़ी मुश्किल से शकुंतला जी ने अपने आँसू रोके लेकिन कमरे में आकर पति के आगे उनकी रुलाई फूट पड़ी।दीनदयाल जी ने पत्नी के आँसू पोंछे और अगले दिन ही ट्रेन पकड़कर वापस आ गये।
अब दोनों एक-दूसरे के साथ ही हँसते-बतियाते।खाली कमरे देखकर बच्चों की याद आती तो ये कहकर खुद को समझा लेते कि जिनके बेटे साथ में हैं वो भी तो दुखी ही हैं।उनके घर के कुछ दूरी पर ही शकुंतला जी का ममेरा भाई प्रमोद सपरिवार रहता था।कभी-कभी वहीं जाकर दोनों अपना मन बहला लेते थे।
शकुंतला जी अस्वस्थ रहने लगी तब दीनदयाल जी ने अजय को फ़ोन किया।वह बोला कि पापा..आपके एकाउंट में कुछ रुपये ट्रांसफर कर देता हूँ, आप डाॅक्टर को..।दीनदयाल जी ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।अभय ने बच्चों की परीक्षा का हवाला दे दिया।ऐसे समय में प्रमोद ही उनके साथ रहा।अपने जीजा को दीदी के पास रहने को कहकर अस्पताल, डाॅक्टर, दवा इत्यादि सभी काम उसने एक पैर पर खड़े होकर किया।
अब शकुंतला जी को अपनी मृत्यु का आभास होने लगा।चाहती थीं कि आँख के सामने ही पति को बेटों के हवाले कर दे लेकिन सोचा हुआ कब पूरा होता है।अजय विदेश गया हुआ था तो आया नहीं।अभय आया और दो दिन रुक कर चला गया।दीनदयाल जी पार्क में टहलते..और घर आकर खाना पकाते हुए पत्नी की तस्वीर से बातें करते रहते।
इधर कुछ दिनों से अजय-अभय रोज अपने पिता को फ़ोन करके अपने साथ रहने के लिये दबाव डाल रहें थें।फ़ोन से बात नहीं बनी तब दोनों आ धमके और बारी-बारी से उन्हें कहने लगे कि घर बेचकर हमारे साथ रहिये।
अब दोनों आपस में ही पिता को अपने साथ रखने के लिये लड़ रहे थे।तभी प्रमोद आ गया।उसने दोनों को समझाना चाहा तो अजय लगभग चीखते हुए बोला,” आप चुप रहिये…आपको बोलने का कोई अधिकार नहीं है।”
” अधिकार नहीं है…किसका..।” अब दीनदयाल जी की आवाज़ बुलंद थी जिसे सुनकर उनके बेटे चौंक उठे।अभय बोला,” हमारा मतलब है कि आपकी चीज़ पर तो हमारा ही हक है ना तो…।”
दीनदयाल जी अट्टहास लगाते हुए बोले,” अब कैसा हक? अभय..जब तुम्हारी चीज़ों पर हमारा कोई हक नहीं है तो मेरे घर के बारे फ़ैसला करने वाले तुम कौन? याद है ना..एक खिलौना टूटने पर तुमने अपनी माँ से..और अजय..जब तुम्हारी माँ तुम्हें देखने के लिये तरस रही थी तब तुम्हें उसका ख्याल नहीं आया
तो आज अचानक मेरी सेवा करने की बात कहाँ से आ गई।मेरे पुत्र होने का हक तो तुम दोनों ने उसी समय खो दिया जब तुमने अपनी मर्ज़ी से विवाह किया था और अपनी माँ को देखने के लिये तुम्हारे पास वक्त नहीं था।रही बात प्रमोद की तो कल भी वो मेरा सहारा था और आज भी उसे मेरी सेवा करने का पूरा हक है।अब तुम दोनों जा सकते हो।” कहते हुए दीनदयाल जी का झुर्रीदार चेहरा आत्मविश्वास से दमकने लगा था।
विभा गुप्ता
# हक स्वरचित, बैंगलुरु
कभी-कभी बच्चे इस गलतफ़हमी में रहते हैं कि हम अपने माता-पिता को कितना भी दुखी कर लें, उनकी संपत्ति पर तो हक हमारा ही रहेगा लेकिन दीनदयाल जी ने अपने बेटों की इस गलतफ़हमी को दूर कर दिया।