अब भी मैं अपनी नहीं – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

मालती पिछले तीस सालों से ससुराल में अपनी जिम्मेदारियां निभाती आ रही थी।वह लगभग भूल चुकी थी कि यह उसकी ससुराल है।ननदों की शादी, लकवाग्रस्त ससुर की दस साल सेवा,पति और बच्चों की देखभाल करते-करते बहुत साल गुज़र गए।ख़ुद उसकी उम्र पचास पार कर चुकी थी।

सास -ससुर को अकेले छोड़कर पति और बच्चों के साथ कहीं जा ही नहीं पाई घूमने।जब ससुर जी का देहांत हो गया,साल भर बाद पति ने घूमने जाने का प्लान बनाया।सासू मां की तबीयत तब ठीक ही थी,पर घूमने की शौकीन वे तुरंत कहीं”मैं भी जाऊंगी साथ में।बहू मेरा ध्यान रख लेगी।

“पति चिढ़कर बोले थे पहली बार “कभी उसे भी देखभाल से मुक्ति दे दो मां।कभी बेटियों को बुलवा लिया करो रहने,ताकि हम जा सकें अकेले।उसका भी तो मन करता होगा,बोलती नहीं।”बात आई गई ही होती रही।वह दिन कभी आया ही नहीं।बच्चों की जिद पर एक बार भेड़ाघाट घूमने निकली थी मालती,पति और बच्चों संग।

नाव में बैठते ही ननद रानी का फोन आया भाई के पास”क्या रे!दादा,मां को अकेली छोड़कर तुम लोग घूमने आ गए।कहीं उधर कुछ ऊंच -नीच हो गई तो!!!”बहन के जहर बुझे तीर सीधे सीने पर पड़े थे मानसी के पति के।अगले ही दिन सब घर वापस आ गए।

बस उसके बाद कहीं जाने का अवसर ही नहीं आया।अपनी बीमारी से मानसी के पति ख़ुद घुलते जा रहे थे।मानसी बचपन से घूमने की शौकीन थी।मानसी की मां ने दामाद को बताया भी था।शायद इसीलिए आत्मग्लानि से मन ही मन कुंठित होते”क्या दिया मैंने तुम्हें इस जीवन में?सबकी सेवा ही करवाई है तुमसे।कभी तुम्हें कोई सुख नहीं दिया।ना कभी तुम्हारे शौक पूरा कर पाया मैं मालती।”

मालती कहती उनसे”ये जो मैं सेवा करती हूं ना जिनकी,वो सब मेरे अपने हैं।मां हैं मेरी भी आपकी मां।अपनी मां की वजह से यदि हम कहीं नहीं जा पाते तो इसमें दुखी होने वाली बात तो नहीं है।”सासू मां गद्गगद् होकर गले लगा लेतीं मालती को”अरे भगवान,मेरे किन पुण्यों के फल के बदले इतनी अच्छी बहू नहीं- नहीं बेटी मिली है मुझे।”

मालती भी खुश हो जाती।अब पति के गुज़र जाने के बाद अकेली मालती के ऊपर सारी जिम्मेदारी आ गई।अब सासू मां बिस्तर पर आ गई थीं, ऑपरेशन की वजह से।इस बार भी ननदों को बुलाया था उसने,पर कोई नहीं आया कोविड के कारण।

मालती ने अपने बेटे के साथ जाकर उनका ऑपरेशन करवाया।डेढ़ साल तक बिस्तर में ही रहीं वे।मालती ने अपनी स्कूल की नौकरी भी छोड़ दी। मालती हमेशा बच्चों को समझाती”मां हैं ये।इनकी देखभाल हम नहीं तो कौन करेगा?क्यों किसी पर निर्भर रहना?मैं इनकी बहू नहीं,बेटी हूं।”,

अब आंख का ऑपरेशन होना था।फ़िर कोई नहीं आया।मालती ने बेटे के साथ मिलकर स्वस्थ कर दिया था मां को।दूसरी आंख का कुछ महीनों बाद करवाना होगा, डॉक्टर ने बताया।अब बेटा पीछे पड़ने लगा, ऑपरेशन करवाने के लिए।मालती थोड़ा डर रही थी।

शुगर बढ़ा हुआ आ रहा है।कुछ दिन इंसुलिन का डोज़ बढ़ाकर देखना होगा।इसी बीच छोटी ननद का फोन आया कि वह बेटी के साथ मां को देखने आ रही है।मालती को और क्या चाहिए था।सुमन उसकी चहेती जो थी।दोनों मिलकर संभाल लेंगे।बेटे को थोड़ा सहारा हो जाएगा

बुआ के आने से।उनकी खातिरदारी पहले से ही संयोजित करके रखा था मालती ने।रात को पहुंच कर खाना खाते हुए मालती ने ही पहल की”अभी रुक कर जाना कुछ दिन सुमन। तुम्हारे रहते-रहते मां की दूसरी आंख का ऑपरेशन  करवा लेंगे तो अच्छा रहेगा।”

सुमन की तैयारी तो दो दिन बाद ही जाने की थी।बोली”भाभी,आजकल ज्यादा समय रखते नहीं अस्पताल में।दो घंटे में ही छोड़ देते हैं।”मालती क्या कहती?बेटी आई भी और जाने का एलान भी कर दिया।जाने से पहले बेटे से कहकर आस-पास के रमणीय स्थल घुमा दिया था

मालती ने भांजी(ननद की बेटी)को।मालती इसी इंतजार में थी कि सासू मां अब कहेंगी बेटी से रुकने को,पर ऐसा नहीं हुआ।जाने के एक दिन पहले रात में मालती सासू मां के कमरे में जाते हुए ठिठकी।अंदर से सासू मां अपनी नातिन को अलमारी से कुछ निकाल कर देते हुए कह रही थीं”

ले ,ले बेटा,तुम लोगों के सिवा और कौन है मेरा।इकलौता बेटा तो चला गया ,अब तेरी मां और मौसी ही बचे मेरी जिंदगी में।यह मेरी शादी की बनारसी साड़ी है।तेरी मौसी का बेटा तो शादी ही नहीं कर रहा,नहीं तो उसकी बीवी को देती।अब तेरी शादी में तू पहनना।ये मेरे कान के दो टॉप्स भी हैं।मेरा क्या भरोसा कब चल दूं।तेरी मामी सब दबा लेगी,कुछ नहीं देगी तुम लोगों को।तू अभी ले जा।उसे पता भी नहीं चलेगा।”

मालती ने अपनी ननद की बेटी को दूध पिलाया था अपना,उसकी मां की बीमारी के वक्त।शायद उसी दूध का प्रताप था कि वह अपनी नानी से कहने लगी”नानी,आप ऐसा कैसे सोच सकती हैं मामी के बारे में?मेरी मां की शादी से लेकर ,हम लोगों का जन्म, अन्नप्राशन,भाई का जनेऊ सब मामी ने ही निपटाया है।

अपने बच्चों और हममें कभी भेद नहीं किया।अभी भी जब मैं आती हूं,अपनी अच्छी -अच्छी साड़ियां कितने स्नेह से दे देतीं हैं।आपकी और नाना की इतनी सेवा की मामा-मामी और उनके बच्चों ने,और आप अपनी शादी की साड़ी अपनी बेटियों के बच्चों को देना चाहती हैं।आपके पास तो कोई संपत्ति भी नहीं,जिसका हक मामी को मिले।

आपकी हर जरूरत अपनी मां समझकर पूरा करती है मामी,और आपने उन्हें बहू का हक भी नहीं दिया।कितना दुख भरा है उनके मन में,कुछ कहती ही नहीं मामा के जाने के बाद।मुझे खुद इतनी शर्म आ रही है कि जल्दी जाना पड़ रहा है।उनकी जिम्मेदारी में कभी हमने हिस्सा नहीं लिया।

अगर वो आपको अच्छी तरह से नहीं रखतीं,तो मां को ले जाना पड़ता अपने संग।मामी हैं तो हम सभी निश्चिंत हैं।यह साड़ी उनसे छिपाकर देना पाप है।कान के टॉप्स तो मामा की बेटी को भी दे सकतीं हैं आप,मुझे ही क्यों?जिस बहू ने बेटी से बढ़कर आपकी सेवा की,उसी के प्रति परायापन रखना क्या सही है नानी?”

सासू मां चुप ही रहीं।मालती चाय की ट्रे लेकर अंदर पहुंची तो,सब चुप हो गए।साड़ी और टॉप्स तकिये के नीचे छिपा दिए गए थे।मालती भी अनजान बनी रही।

अगली सुबह भांजी के हांथ में उसका मनपसंद टिफिन(चिली पनीर)देकर मालती ने कहा उससे”तूने मुझे सम्मान देकर मेरा हक दिलवा दिया।ले यह साड़ी लेकर जा।तेरी बहन(मालती की बेटी)तो पहनती ही नहीं साड़ी।तू पहनेगी तो मुझे अच्छा लगेगा।

लंबे बालों की ढीली चोटी करना,मोगरे का गजरा लगाना। फर्स्ट क्लास लगेगी तू।कान के टॉप्स के लिए भी मना मत करना,यह नानी का आशीर्वाद है तेरे लिए।मेरी बेटी की नानी ने भी दिया था उसे अन्नप्राशन के समय।”

मालती की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि भांजी ने कसकर सीने से लगा लिया और रोने लगी।मालती भी रो रही थी।ये आंसू उसके लिए सच्चे प्यार के थे,या सासू मां के पराएपन की वेदना के थे,पता ही नहीं चल रहा था।

शुभ्रा बैनर्जी 

#सासू मां आप मुझे बेटी बनाकर लाई थीं,पर बहू का हक भी नहीं दिया

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