Moral stories in hindi : आज सुभद्रा जी का गुस्सा सातवे आसमान पर था। जबसे उसके लाड़ले बेटे रजत का फोन आया है तबसे, वे मन ही मन में भुनभुना रही है, समझती क्या है वो अपने आप को, अभी दो महिने ही हुए है,मेरे बेटे को मुझसे दूर हुए। क्या सोचकर भेजा था, मैंने सोनल को उसके साथ कि मेरे बेटे को गरम-गरम भोजन मिलेगा, वह उसका ध्यान रखेगी। मगर आज…..आज तो उसने हद ही करदी साफ मना कर दिया उसे।
उसकी ये मजाल कि मेरा बेटा उसे कोई काम कहैं और वह मना करदे। आज तो आने दो रजत के बापू को। उन्हें सारी बात बताती हूँ और बहू को सबक सिखाने के लिए हम कल ही शहर जाऐंगे। आज उसे सबक नहीं सिखाया तो उसका हौंसला बढ़ते जाएगा। घर पर उस समय वे अकेली थी रजत के पिता का कपड़ो का व्यापार था,
शादी ब्याव का मौसम था, ग्राहकी अच्छी चल रही थी,मोहन बाबू को बिल्कुल फुर्सत नहीं थी। सुभद्रा जी गुस्से में तमतमा रही थी, ऐसा लग रहा था कि अगर सोनल सामने होती तो अपना सारा गुस्सा उस पर उतार देती।
जब मन अशांत हो तो कुछ खाने की इच्छा भी नहीं होती, उसने कुछ भी नहीं खाया। मोहन बाबू ने मना कर रखा था कि जबतक ज्यादा जरूरी काम न हो दुकान पर फोन मत लगाना। सुभद्रा जी का मन नहीं मान रहा था, वे सोच रही थी कि मोहन बाबू जल्दी घर आ जाए और वह कल सुबह ही अपने बेटे के पास चली जाए।
उसने मोहन बाबू को फोन लगाकर कहा कि बहुत जरूरी काम है आप जल्दी घर आ जाएं।
दरअसल रजत सुभद्रा जी का इकलौता बेटा था, उसकी हर फरमाइश को पूरा करने के लिए वे चकरी की तरह घर में घूमती थी। यह पहला अवसर था जब रजत घर से दूर गया। उससे मिले पूरे दो महिने हो गए थे। सुभद्रा जी की तो इच्छा भी नहीं थी कि बेटा दूसरे शहर जाए, वह चाहती थी कि वह उसकी ऑंखों के आगे रहै और उसके पापा के साथ दुकान में हाथ बटाए।
यह मोहन बाबू की जिद थी कि वह उसे अपने साथ दुकान पर नहीं रखेंगे। वे जानते थे अपने बेटे की आदत कि वह काम का आलसी है, ऐशोआराम में पला बड़ा है, अगर उन्होंने उसे अपने साथ काम करने के लिए रखा, तो वह जीवन में अकेले कुछ नहीं कर पाएगा। पढ़ाई में भी उसका मन नहीं लगता था, मुश्किल से बी.काम. की परीक्षा पास की थी। मोहन बाबू बहुत व्यवहार कुशल व्यक्ति थी उन्होंने अपने मित्र की कम्पनी में उनसे कहकर रजत की नौकरी शहर में लगवा दी,
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वह कम्पनी में हिसाब किताब रखने का कार्य करता था। वे चाहते थे कि वह घर से कुछ दूर रहै ताकि कुछ आत्मनिर्भर बन सके। यहाँ घर पर तो माँ की छत्रछाया में वह कुछ सीखने से रहा। रजत की पत्नी सोनल पढ़ी लिखी समझदार लड़की थी। उसने रसायन शास्त्र विषय लेकर एम. एस सी . की पढ़ाई प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी, वह नौकरी करना चाहती थी, मगर सुभद्रा देवी ने मना कर दिया। सोनल ने घर गृहस्थी पूरी तरह सम्हाल ली थी।
वह सबकी पसन्द ना पसन्द का ध्यान रखते हुए कार्य करती थी। व्यवहार कुशल थी, घर में आने वाले अतिथि के स्वागत सत्कार में कोई कमी नहीं रखती थी, फिर ऐसा क्या हुआ कि सुभद्रा जी उस पर इतना नाराज हो रही थी? मोहन बाबू घर पर आए तो उन्होंने पूरी बात अपने हिसाब से बताई और कहा कल हमें शहर जाकर बहू को समझाना पड़ेगा।आप बहुत गुणगान करते थे ना अपनी बहू का, कि बहुत संस्कारी बहू है, कहाँ गए उसके संस्कार, उसकी हिम्मत देखी आपने मेरे बेटे को काम करने से मना किया। हमें कल जाना पड़ेगा मैंने सोनल के मायके भी फोन लगा दिया है। मैं उनसे पूछूँगी कि ऐसे संस्कार दिए आपने अपनी बेटी को।
मोहन बाबू ने कहा तुम बेकार बात को बड़ा रही हो, सोनल के मायके में घबर करने की क्या जरूरत थी। और तुम जानती हो अभी ग्राहकी का समय है, मैं दुकान छोड़ कर नहीं जा सकता। वे दोनों छोटे बच्चे नहीं है, छोटी सी नौंकझोंक होगी आपस में सुलझा लेंगे।उन्हें अपनी बहू पर विश्वास था, मगर इस समय उन्होंने बहस करना उचित नहीं समझा। वे जानते थे कि इस समय सुभद्रा जी को समझाना बहुत मुश्किल है। दूसरे दिन सुभद्रा जी और मोहन बाबू और सोनल के पापा-मम्मी, गिरीश बाबू और तनूजा सब रजत के यहाँ पहुँच गए।
सुभद्रा जी भरभराई बैठी थी उन्हें देखते ही बोली -‘ये संस्कार दिए हैं आपने अपनी बेटी को, रजत ने अपने चार दोस्तों का खाना बनाने का कहा तो महारानी ने मना कर दिया, ये लक्षण ठीक नहीं है, मैंने अपने बेटे को राजकुमार की तरह पाला है।’ गिरीश, बाबू और तनूजा जी चुपचाप सुनते रहै। मोहन बाबू सुभद्रा को मना करते रहैं मगर उनका बोलना बंद ही नहीं हो रहा था।
मोहन बाबू ने कहाँ -‘तुम कुछ देर चुप हो जाओ।रजत और सोनल को भी तो अपनी बात कहने दो। रजत ने कहा -‘मैंने कल मेरे चार दोस्तों को भोजन करने के लिए बुलाया तो सोनल ने भोजन बनाने के लिए मना कर दिया। मेरी इज्जत दो कौड़ी की हो गई।’
अब मोहन बाबू ने सोनल से पूछा बेटा क्या कारण है, कि तुमने भोजन बनाने के लिए मना किया, घर पर भी तो तुम इतना भोजन बनाती थी। बेटा! क्या तुम्हें पति की इज्जत का जरा भी खयाल नहीं है?’ सोनल की ऑंखें नम हो गई थी, वह बोली पापा मुझे भी बुरा लगा कि मैंने रजत को मना किया। पर पापा मैं मजबूर थी। पहले भी दो बार इन्होंने अपने मित्रों को बुलाया, मैंने प्रेम से भोजन बनाया…. ‘उसकी बात को काटते हुए सुभद्रा जी बोली – ‘तो क्या तू इतनी थक गई थी कि तूने मेरे बेटे का मन दु:खाया।’ ‘बात यह नहीं है मम्मी जी…..’ ‘तो फिर क्या बात है।
‘ सुभद्रा जी का स्वर उग्र हो गया था। मोहन बाबू ने जोर से कहा ‘तुम चुप रहो उसे पूरी बात बताने तो दो।’ सोनल बोली -‘मुझे भोजन बनाने में तकलीफ नहीं है। मुझे इनकी आदत से परेशानी है, ये दोस्तों को घर बुलाकर, खुद घर से किसी काम से बाहर चले जाते हैं। इनके जाने के बाद मैं इनके उन दोस्तों के बीच अपने को असहज महसूस करती हूँ। वे छिछोरी मजाक करते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता, मैंने इस बारे रजत से भी बात की थी। पिछले रविवार को मैं सब्जी लेने के लिए गई तो कुछ महिलाऐं बात कर रही थी कि “रजत बाबू पता नहीं कितने दोस्तों को घर बुला लेते हैं
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और खुद बाहर चले जाते हैं, क्या अच्छा लगता है ये सब कुछ।” मैंने उनकी बात सुनी। मुझे देखकर वे चुप हो गई, मैं कुछ नहीं बोली। अभी मुझे यहाँ आए सिर्फ दो महिने हुए हैं, मैं यहाँ का माहौल समझ भी नहीं पाई हूँ। परसों इन्होंने मुझसे कहा सोनल मेरे चार दोस्तों के लिए भोजन बना देना।
मैंने इतना ही पूछा आप तो उस समय घर रहेंगे ना, तो बोले मुझे तो एक मिटिंग में बाहर गाँव जाना है। तब मैंने भोजन बनाने के लिए मना कर दिया, इन्हें बहुत गुस्सा आया और इन्होंने गुस्से में मुझ पर हाथ उठाया, मगर मैंने इनका हाथ पकड़ लिया, मैं बिना गलती के मार नहीं खा सकती। ये गुस्से में ऑफिस चले गए। मुझे भी बुरा लगा, फिर मन को समझाया कि हमारी आपस की बात है मिलकर सुलझा लेंगे।
मुझे नहीं मालुम की इन्होंने आपको कब फोन लगाया।’ सोनल की आवाज भर्रा गई थी। उसकी बातें सुनकर कुछ क्षण के लिए एक मौन पसर गया था, सबके मध्य।सोनल के मम्मी -पापा अभी तक चुपचाप बैठे थे। सोनल की मम्मी तनूजा जी बोली ‘हमने हमारी तरफ से सोनल को संस्कार भी सिखाए हैं और मर्यादा का पाठ भी पढ़ाया है। अभी-अभी शादी हुई है उसकी, अगर मेरी बेटी का जमाई जी के दोस्तों के लिए भोजन बनाने के लिए मना करना संस्कारहीनता है तो क्या उनका छोटी सी बात पर, उस पर हाथ उठाना संस्कारहीनता नहीं है?
मेरी बेटी ने भोजन बनाने के लिए मना क्यों किया वह बता चुकी हैं। अगर वह चाहती तो हमें फोन लगाकर कह सकती थी कि रजत ने उसपर हाथ उठाया, मगर उसने ऐसा नहीं किया। वह रजत के साथ मिलकर अपनी उलझन सुलझाना चाहती थी। अब आप ही बताइये संस्कारहीन कौन है?’ सब मौन थे।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
अंत में लड़के की माँ, हाँ क्या नाम था उसका …………..सुभद्रा…… हाँ वही………मर ही गई होगी शायद अपने संस्कार देखकर।
Not possible, as ego never accepts the truth