सुबह और शाम, सुख और दुख, हर्ष और विषाद, करुणा और दया, ईर्ष्या और प्रेम मानव जीवन में पाये जाने वाले ऐसे भाव हैं जो चाहकर भी अलग नहीं किये जा सकते। इनके सहयोग से ही स्वाभिमान और अभिमान का अभ्युदय होता है जो किसी के व्यक्तित्व को निखारने और कुचलने का कारण बन जाता है। जीवन एक सिर्फ कहानी भर नहीं है। वह एक ऐसा आख्यान है जिसमें अनर्गल बातें भी सम्मिलित हो जाती हैं और कुछ ऐसे भी
अवसर आते हैं जब जीवन को अनेक परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जिसमें संतुलन और असंतुलन की स्थिति जैसी हो जाती है। ये तराजू के दो पलड़े हैं जिनको बराबर करना आवश्यक होता है वरना जीवन की नाव डगमगाने लगती है और बीचोंबीच डूबने की संभावना बढ़ जाती है।
अब तक तो सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। परिवार में कहीं से कोई अगर मगर जैसी बात तो नहीं ही थी।
भरोसा एक ऐसी चीज़ है जो किसी को किसी पर भी किये बिना काम ही नहीं चलता। वैसे जिस परिवार में हम सब रहते हैं उसमें तो वह अत्यावश्यक है। यह भरोसा ही किसी के प्रति विश्वास उत्पन्न करता है जिससे एक दूसरे के लिए सम्मान और असम्मान का भाव भी जाग्रत होता है।
रीमा को यह मालूम था कि परिवार को किस तरह से संभाल कर रखना चाहिए।
चूंकि आज के समय में भी वह एक संयुक्त परिवार से ताल्लुक रखती है। उसके पिता जी और चाचा जी का परिवार एक ही साथ रहता है। सभी एक दूसरे से चिपक कर रहना जानते हैं। दोनों भाइयों और उनके बाल-बच्चों में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता। सब मिलकर रहना जानते हैं।सब सुसंस्कारों से ओत-प्रोत हैं।
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रीमा के पति अमीरचंद जी एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान में अकाउंटेंट के पद पर कार्यरत हैं। तनख्वाह अच्छी है। दो संतानें –एक बेटा और दूसरी बेटी। दोनों के पालन पोषण में कोई भेद नहीं है। रीमा के सास ससुर भी बहुत भले हैं। वैसे सासु जी कभी कभी इधर उधर भटक सी जाती हैं। पता नहीं चल पाता कि उनके भटकाव का कारण क्या है? उनकी उम्र या उनकी प्रवृत्ति या आस-पास की महिलाओं का प्रभाव। फिर भी रीमा को अपने ऊपर संयम है। वह सासु मां की भरपूर सेवा करती है। वैसे अमीरचंद भी कहता है ——“रीमा, मां तुम्हारी बहुत प्रशंसा करती है। तुम्हारे व्यवहार से वह संतुष्ट रहती है।”
रीमा ने कहा —” तो फिर करना ही क्या है? समय पर उनको भोजन पानी दे देना,
उनके हाथ पैरों को सहला देना, कुछ देर बैठकर उनसे बातें कर लेना। इससे अधिक कुछ उन्हें चाहिए नहीं। यदा-कदा कभी कोई चीज मांगती हैं तो दे देती हूं।”
रीमा में आलस्य नहीं है। उसमें प्रकृति प्रदत्त स्फूर्ति है और अपनी माता से वह प्रशिक्षित हुई है। उसकी मां भी रीमा की दादी की सेवा इसी प्रकार से किया करती थी। रीमा अपने बच्चों का खूब ख्याल रखती थी। वैसे ससुराल में मायके की तुलना में नौकर-चाकर की अधिकता है। घर के अधिकांश कामों का निपटारा उनके द्वारा हो जाया करता था। यहां तक कि रसोइया भी थी जो मनचाहा भोजन बनाया करती थी।
बच्चे अब स्कूल जाने लायक हो गये हैं।वे जुड़वां थे। लड़का बड़ा था और लड़की छोटी। दोनों का रंग गोरा था। लड़का अपने पिता की तरह और लड़की अपनी मां से मिलती जुलती थी। दोनों के बीच तीन घंटे का अंतर रहा था।
अब वे साढ़े तीन साल के हो चुके हैं। विद्यालय में दाखिला लिया जा चुका है।
आने जाने के लिए स्कूल बस है। रीमा प्रायः उन्हें बस स्टैंड तक छोड़ दिया करती। कभी कभी अमीरचंद भी पहुंचा देते।
अमीरचंद कार्यालय दस बजे तक चले जाते। इनका परिवार बिलकुल छोटा-सा।
अमीरचंद की बहन यमुना की शादी हो गई थी। वह अपने ससुराल में रह रही थी। उसे एक लड़की थी जो लगभग दो साल की हुई होगी। उसका ससुराल भी खुशहाल था लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से रीमा से कुछ कम। वैसे जीवन में इसका बहुत मायने मतलब नहीं होता। अपने रहने का तौर तरीका ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। नारी शक्ति विचित्र होती है। यमुना बेमतलब रीमा से सुख-सुविधा को लेकर तुलना करती रहती है।इसी वजह से कुछ परेशान भी नजर आती है जबकि रीमा के मन में कभी भी ऐसा भाव नहीं आता कि उनसे मेरे पास अधिक है।
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परन्तु यमुना तो सोचती है और अपनी मां से ऐसा कहती भी है। इन्हीं कारणों से रीमा की सासु मां के मन में कुछ अवांछित विचार प्रवेश करने लगे थे। ऐसा पाया जाता है कि नदी की धारा कब किधर की ओर मुड़ जाये कुछ कहा नहीं जा सकता।इसी तरह से अदालत अपना फैसला कब किसके पक्ष अथवा विपक्ष में सुना दे कह पाना मुश्किल है।उसी प्रकार नारी चरित्र में कब बदलाव हो जाये कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
एक दिन की बात है रीमा की सासु मां ने कहा, –” बहू मेरे पास एक गिलास पानी रख देना।”
” हां मां, अभी रख दूंगी।”
इतने ही में अमीरचंद ने कहा –” मेरी टाई कहां है?”
रीमा वहां गई जहां टाई खूंटी पर लटकी रहती थी, लेकिन वहां नहीं थी।”
फिर इधर उधर ढ़ूंढने लगी। अमीरचंद जी कार्यालय जाने के लिए बेचैन हो रहे थे। इधर रीमा खोजने में परेशान थी और लगातार पसीना पोंछे जा रही थी। अंततोगत्वा टाई नहीं ही मिली। तब कहीं जाकर दूसरी टाई सूटकेस से निकाल कर उसने दी। इसी बीच रीमा की सासु मां ने गिलास में पानी रखने के लिए कहा था, इसे वह भूल चुकी थी। जब उसे प्यास लगी तो देखा कि सामने पानी नहीं है। उसने जोरों की आवाज लगाई,—” रीमा कहां हो? मेरे पास पानी नहीं है। तुमसे तो मैंने रखने के लिए कहा था। तुम अब बदलती जा रही हो। पहले वाली रीमा नहीं हो। हां, हां मैं समझ गई। तेरे बाप के यहां तो इतने नौकर-चाकर नहीं हैं न?
वे सब तो अपने काम करते करते परेशान होते होंगे। तुम भी तो अपने बाप की तरह ही काम करती ही होगी। गरीब बाप की लड़की यहां आकर रोब गांठने लगी। मेरा कहना नहीं मान रही हो। तुमको आज मैं सबक सिखा दूंगी।”
टाई खोजने के कारण दिमाग से बात ओझल हो गई थी। इस बात के लिए उसके मन में अफसोस था लेकिन अब करे तो क्या करे। उसने यही कहा –” मां जी,टाई खोजने में यह बात मैं अचानक ही भूल गयी थी। अभी लिए आती हूं।”
” नहीं, नहीं रहने दे। अब कभी भी किसी काम के लिए तुमसे नहीं कहूंगी। काल्हे बनिया आजे सेठ। दरिद्र घर से आई हो। यहां की दौलत देखकर तुम्हारा मन बेकाबू हो गया है।जानती हो इस पर मेरा ही अधिकार है। जैसे चाहूंगी वैसे तुमको रखूंगी। मेरा कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता।” लगातार अनाप-शनाप बोले जा रही थी। उस पर अपने सासुपन का भूत सवार हो गया था।बेचारी रीमा दबी जा रही थी। हे भगवान! ऐसा कैसे हो गया? अब मैं क्या करुं? उन्हें कैसे मनाऊं? इसी प्रकार से पश्चाताप करती रीमा के मन को उस समय बहुत चोट लगी थी जबकि उसके बाप और मायके को लेकर टिप्पणी कर रही थी।
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कोई औरत कितनी भी विचारों से अच्छी क्यों न हो,कितनी भी सहनशील क्यों न हो? जब अपने माता-पिता या मायके की शिकायत सुनती हैं तो वह तिलमिला जाती है। और उसके स्वाभिमान तथा आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है। वह इसका प्रतिकार किसी न किसी रूप में अवश्य करती हैं। वह सब कुछ सह लेती है किन्तु कोई औरत अपने नैहर की शिकायत सुनना पसंद नहीं करती है। वह घायल शेरनी की भांति खुंखार बन जाती है।
रीमा भी अपनी पीड़ा अमीरचंद से कहने के लिए व्याकुल थी। संध्या समय कार्यालय से लौटने के बाद पहले की तरह ही उसके लिए चाय पानी की व्यवस्था की। वह चाहती तो थी कि वह उससे कोई शिकवा शिकायत नहीं करे किन्तु अमीरचंद ने उसके चेहरे पर पहले वाली रौनक नहीं देखी।पूछ ही लिया –“रीमा आज तुम उदास क्यों हो? “
“नहीं तो “–रीमा ने कहा।
“हां हां मैं समझ गया। टाई जो नहीं मिली उसके लिए ही अब तक चिंतित हो क्या?”
” उसकी कोई चिंता नहीं है मुझे। मैं तो जानती ही थी कि सूटकेस में अनेक टाइयां हैं।”
“लेकिन सच कहूं तो आज तुम मुझे थकी हारी टीम इंडिया की तरह लग रही हो “—अमीरचंद ने कहा।
तब तक तो अमीरचंद के कानों में आवाज आई —” अमीर,जरा इधर आओ तो। एक जरुरी काम है।”
” हां मां अभी आया “–अमीर ने कहा।
अमीर अपनी मां के सामने खड़ा हो कर उनकी रोशभरी बातें सुनकर आश्चर्य चकित हो गया। उसने कहा —” मां,कल तक तो तुम अपनी रीमा की खूब प्रशंसा करती थी। आज अचानक क्या हो गया कि वह इतनी खराब हो गई।”
” अरे तुम तो उसी का न पक्ष लोगे। मेरी बातें थोड़े ही सुनोगे।”
” नहीं मां तुम ऐसा मत कहो। मैं तो एक-दूसरे का सुनूंगा।”
” जा,जा यहां से जाओ।जो कुछ भी जानकारी लेनी हो उसी से ले लो। यह तो तुमको पता ही है कि तुम्हारे पापा ऐसे ऐसे मामलों में दखलंदाजी नहीं दिया करते।”
अमीरचंद के लिए तो यह एक विकट समस्या थी।सुलझे तो कैसे? आखिरकार रीमा से पूछ ही लिया —” रीमा क्रोधाग्नि में जल रही थी। मायके का सवाल है। मेरे पिता धनी या गरीब जो कुछ भी हैं, वे मेरे पिताजी ही तो हैं। इससे पहले भी एक दो बार इन्होंने मायके की शिकायत की है। मैं कब तक बर्दाश्त करती रहूंगी। यदि ऐसा ही है तो आप मुझे मायके भेज दीजिए। मेरे पिता जी गरीब हैं तो मैं किसी तरह अपना गुजारा कर लूंगी किंतु धनी ससुराल में रह कर क्या करुंगी जबकि मेरे आत्मसम्मान को बार-बार आहत किया जाता रहे।”
अयोध्याप्रसाद उपाध्याय,आरा
मौलिक एवं अप्रकाशित।