आत्मसम्मान – डाॅक्टर संजु झा : Moral Stories in Hindi

आसमान में सुबह से सूरज बादलों की ओट लेकर आँख-मिचौनी खेल रहा था।कभी बादलों की ओट में बिल्कुल छुप जाता है,कभी अचानक से बादलों की ओट से निकलकर सारी पृथ्वी को अपनी स्वर्णिम किरणों से नहला देता है।मैं(नमिता),मेरी जिन्दगी में भी इसी तरह धूप-छाँव होते रहें।उम्र के 45वें वसंत में भी मैं खुद से सवाल पूछ रही हूँ कि अपने आत्म-सम्मान बचाने के लिए मैंने जो किया,वह गलत था या सही?

शादी से पहले  माता-पिता ने पराया-धन कहकर मेरी इच्छा-अनिच्छा की परवाह किए वगैर  एक अनजान हाथों में सौंप दिया।ससुराल में पति,सास-ससुर की सेवा करते हुए  हमेशा ताना मिला कि यह तुम्हारा घर नहीं है!अपनी मर्जी मत चलाओ।पति का बहुत बड़ा कारोबार था और घर में सास-ननद का शासन,फिर भी समझौता कर जिंदगी की गाड़ी चल रही थी।दो बेटियों की माँ बन जाने के बाद घर में मेरे प्रति सभी का नजरिया और खराब हो गया।सच कहा गया है कि जिस घर में पति अगर पत्नी की इज्जत न करता हो,

तो उस घर में पत्नी की कोई इज्जत नहीं रह जाती है!मेरे साथ भी यही हो रहा था।पति का रोज शराब पीकर आना और रात में बेरहमी से पेश आना,मेरी जिन्दगी का हिस्सा बन गया था।बार-बार मेरा आत्म-सम्मान खंडित होता,परन्तु इसकी परवाह किसे थी?इन्हीं हालातों में मेरे बेटे का जन्म हुआ। मुझे लगा कि अब परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाऐंगी,परन्तु कुछ दिन ठीक रहने के बाद परिस्थितियाँ फिर पूर्ववत् हो जातीं।मेरे जीवन  में हर दिन  का सूरज नई-नई परेशानियों की तीखी किरणें लेकर आता और हर रात  समस्याओं का समाधान ढ़ूंढ़ने में कट जाती।बस मेरी जिन्दगी हुक्म के गुलाम की तरह हो गई थी,जहाँ आत्म-सम्मान की कोई जगह नहीं थी।

मुझे पता था कि हमारा समाज एक अकेली महिला को देखकर वहशी नरपिशाच  बन जाता है,इस कारण  मैं मान-अपमान के घूँट को अमृत समझकर गले से उतारती जा रही थी।कभी-कभी मेरा आत्म-सम्मान चोट खाकर मुझसे पूछता -“नमिता!इतनी पढ़ी-लिखी होने के बावजूद तुममें आत्म-सम्मान नाम की कोई चीज नहीं है क्या?”

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मैं अपने बच्चों के भविष्य के कारण खामोश-सी रह जाती।सास-ननद और पति पग-पग पर मुझे अपमानित करतें।मैं घर-गृहस्थी के मकड़जाल में उलझकर आत्म-सम्मान खोती जा रही थी।जब बच्चे कुछ बड़े हुए तो मैंने एम.ए की पढ़ाई  शुरु कर दी।मेरी पढ़ाई से घर में सब नाराज थे,परन्तु अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहण करते हुए  मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी।आखिरकार मेरी मेहनत रंग लाई, मैंने एम.ए प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।मैं बहुत खुश थी,परन्तु मेरे रिजल्ट ने घर में बवाल खड़ा कर दिया।सास ने ताना मारते हुए कहा -” इसे घर में अपने पति से मन नहीं भरता है,इस कारण गुलछर्रें उड़ाने नौकरी करने जाऐगी!”

मेरे पति ने तो उस दिन सारी हदें पार कर दी।रिजल्ट के बारे में सुनते ही खुश होने की बजाय  पूरे परिवार के सामने मुझपर हाथ उठा दियाऔर चिल्लाते हुए कहा -” जब साँप ज्यादा फन उठाता है,तो उसे कुचल दिया जाता है।तुम भी पढ़ाई भूलकर चुपचाप घर में रहो,वर्ना तुम्हारा भी फन कुचल दिया जाएगा!”

अपमान की ज्वाला से मेरा सर्वांग जल उठा।भीतर की आग से स्वंय भयभीत हो उठी थी कि अगले पल ही शरीर पसीने-पसीने होकर काँपने लगा।उसी समय एक महाराज का प्रवचन मन में बिजली-सा कौंध गया।उस प्रवचन में एक महिला ने महाराज से टेलीविजन पर पूछा था -“गुरुजी!कोई तो उपाय बताओ,पति पहले से पीटते थे,अब तो बहुओं के सामने भी पीटते हैं,बर्दाश्त नहीं होता है!”

इसके जबाव में गुरुजी ने  बड़ी अच्छी बातें बताईं ।उन्होंने कहा -” माता!जिस दिन तुम्हारे पति ने तुम पर पहली बार हाथ उठाया था,उसी दिन अगर तुमने प्रतिकार किया होता तो पिटाई रुक सकती थी।तुम्हारा आत्म-सम्मान बना रहता,परन्तु तुमने प्रतिकार के बदले पिटाई सहने की आदत बना ली और तुम्हारे पति ने पीटने की।इसलिए अब पिटाई नहीं रुक सकती है!”

अब गुरु महाराज की बातें बार-बार मेरे कानों में गूँज रहीं थीं।थप्पड़ की गूँज मेरे घायल आत्म-सम्मान से पूछ रहीं थीं-” नमिता!इतनी शिक्षित होने के बाद  भी इतने जुल्म सहोगी

,तो तुममें और एक अशिक्षित में क्या अंतर रह जाएगा?”

पति-पत्नी के आपसी प्यार  से ही तो जिन्दगी रुपी समंदर से अनमोल मोती निकलते हैं,परन्तु यहाँ तो पति-पत्नी की कोमल संवेदनाएँ ही तार-तार हो गईं थीं। पति -पत्नी का रिश्ता अभिशाप की तरह लग रहा था। रिश्ते की धोखे की दीवार   एकाएक रेत की भाँति ढ़ह गईं।बार-बार मन में ख्याल आ रहा था कि आत्महत्या कर लूँ।मैं आत्म-सम्मान  विहीन जीवन नहीं जीना चाहती थी।अचानक से मेरी  बोझिल नजरें डूबते सूरज की ओर गईं,

ऐसा महसूस हुआ  मानो  मैं सूरज को नहीं खुद को अस्त होते हुए  देख रही हूँ।परन्तु तुरंत चैतन्य  होते हुए  मैंने सोचा कि मुझे खुद को खत्म नहीं करना है,वरन् अपमान और तिरस्कार के अंधे कुएँ से बाहर  निकलना है।मैं चुपचाप  बिस्तर पर लेटकर अपने भविष्य के बारे में कोई ठोस निर्णय पर विचार करने लगी।

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अगले दिन के सूरज चमकने के साथ ही मैंने जिन्दगी का बड़ा फैसला ले लिया।दोनों बेटियाँ स्कूल गईं थीं।मैंने पति से अपना निर्णय  सुनाते हुए कहा  -“मैं अपने आत्म-सम्मान की खातिर इस घर को छोड़कर जा रही हूँ!”

मेरी बातें सुनकर पति कुछ आश्चर्यचकित हुए, फिर उन्हें लगा ये कहाँ जाएगी!

मुझे सचमुच निकलते हुए  देखकर  चिल्लाते हुए कहा -“तुम मेरे बच्चों को लेकर कहीं नहीं जा सकती हो।न तो मैं तुम्हें तलाक दूँगा,न ही एक पैसा भी!”

मैं पति की बातों को अनसुना कर घर से निकलने लगी।उसी समय मेरे बेटे ने कसकर मेरा आँचल पकड़ लिया।पति और सास  ने छोटा बच्चा समझकर बेटे को मेरे साथ आने दिया।अब मैं अनजान  मंजिल पर निकल गई थी।उसी समय अपनी सहेली रंजना का ख्याल  आया।बेटे को लेकर उसके यहाँ चली गई। जिन्दगी में रंजना जैसे कुछ अच्छे दोस्त भी मिले।

रंजना ने मेरी काफी मदद की। उसी के सहयोग से एक आवासीय विद्यालय में नौकरी मिल  गई। अब मैं आवासीय विद्यालय में बेटे के साथ आराम से रहने लगी।विद्यालय का हरा-भरा परिसर, पक्षियों की चहचहाहट, बच्चों की निश्छलता मेरे निराश,हताश मन में नई ऊर्जा और स्फूर्ति का संचार करने लगी।जीवन के खट्टे -मीठे अनुभवों  और बेटे के सहारे जिन्दगी चल पड़ी।स्कूल  से छुट्टी के बाद  शाम में बेटे को  पढ़ाने के बाद 

बेटे को पढ़ाने के साथ-साथ मैं भी बी.एड की तैयारी करने लगी।वक्त अपनी गति से बीत रहा था।कुछ समय बाद मैं काफी खुश थी,क्योंकि मेरा बी.एड हो चुका था और बेटे ने भी दसवीं अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण कर लिया था।बेटे की आगे पढ़ाई के बारे में मेरे मन में मनन-चिन्तन चल रहा था,परन्तु बेटियों की तरह मेरे पति ने बेटे से संपर्क कर उसके कान भर दिएँ।उसे प्रलोभन देते हुए कहा -” बेटा! तुम मेरे पास आ जाओ।मेरे पास तुम्हें अच्छी शिक्षा के साथ-साथ सबकुछ मिलेगा!”

बेटा भी दोनों बहनों के समान पिता की सम्पत्ति के लोभ में मुझे छोड़कर चला गया।

एक बार फिर मैं जिन्दगी से हताश और अकेली हो गई। एक अकेली औरत को समाज में पग-पग पर परीक्षा देनी पड़ती है।मैं भी अपने आत्म-सम्मान के लिए  अब जिन्दगी की हर परीक्षा देने को तैयार थी,परन्तु वापस उस नर्क में जाना मुझे गँवारा नहीं था।मैंने एक बार  फिर  से अपनी नई मंजिल तलाशनी शुरु कर दी।

बेटे के जाने के बाद  ये शहर मुझे बेगाना लगने लगा था।मैं उस शहर को छोड़कर दिल्ली आ गई  क्योंकि मन में एक उम्मीद की किरण बची थी कि मेरी दोनों बेटियाँ दिल्ली में ही नौकरी कर रहीं थीं।मैं दिल्ली में कुछ दिन बेटियों के पास रही,परन्तु उनके मन में बचपन से ही मेरे प्रति जहर कूट-कूटकर भर दिया गया था,इस कारण बेटियों का उपेक्षित व्यवहार  मेरे आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचा रहा था। आखिरकार एक दिन बेटियों ने खुलकर कह ही दिया -” मम्मी!आप अपने रहने की व्यवस्था अलग करो।आपके साथ हम नहीं रह सकतीं!”

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कुछ कामकाजी महिलाओं से संपर्क  कर उनके साथ रहने के लिए  मैंने किराए पर फ्लैट ले लिया।खर्चें चलाने के लिए  मैंने घर पर ही ट्यूशन शुरु कर दिया।शुरु से ही उच्च शिक्षा के प्रति मेरा झुकाव था।मैंने पी.एच.डी करने के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया।संयोगवश  मुझे मार्गदर्शक (गाइड)अच्छी मिल गईं।उन्होंने मेरे शोध-कार्य में काफी मदद की। उनके आत्मीय व्यवहार के कारण ही मैंने अपनी जिन्दगी की किताब उनके समक्ष खोलकर

रख दी। शोध-कार्य के साथ-साथ उन्होंने मानसिक रुप से भी बहुत संबल दिया।उनके सहयोगपूर्ण और सौहार्दपूर्ण व्यवहार ने मेरे तपते रेगिस्तान से भटकते मन को शीतलता प्रदान किया।आखिरकार मेरी मेहनत रंग लाई और मुझे पी.एच.डी की डिग्री मिल गई। अब मैं डाॅक्टर नमिता श्रीवास्तव बन गई। कुछ समय बाद मैंने काॅलेज ज्वाइन कर लिया।अब मैं  आत्म-सम्मान के साथ  जीवन जीने लगी।

अपने निर्णय पर पलटकर देखती हूँ तो कभी गलत लगता है,कभी सही।आज मेरा नया जीवन है,जो कुछ बचा रखा था भस्म हुए रिश्तों के बीच अब उसे भी भूलना चाहती हूँ।परन्तु परिवार के बिना कभी-कभार खालीपन भी महसूस होता है।मेरा अन्तर्मन बार-बार ये सवाल पूछता है कि एक औरत को समाज में आत्म-सम्मान  के साथ जीने के लिए  भला इतनी कुर्बानियाँ क्यों देनी पड़ती है? पुरुष प्रधान समाज के पास आज भी  इस बात का कोई जबाव नहीं है।मैं इन सवालों में न उलझकर अपनी नई मंजिल काॅलेज के लिए आत्म-सम्मान के साथ  निकल पड़ती हूँ।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)

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