आज हमारी नैनीताल ट्रिप का आखिरी दिन था तो बाजार जाकर कुछ गिफ्ट्स लेनी की सोचकर हम तीनों होटल से पैदल ही निकल पडे़ थे। ऑफ-सीजन की वजह से कोई खास भीड़भाड़ नहीं थी । हम हमेशा नैनीताल की ट्रिप ऑफ-सीजन ही प्लान करते हैं जिससे बहुत मजे से घूमना फिरना होता है। बाजार के लिए आगे बढ़ ही रहे थे कि एक लाल रंग की चमचमाती गाड़ी पर अनायास ही नजर पड़ गई। उसमें से एक युगल निकल कर आया। मैं अनायास ही रुक गई तो ये बोले ,”क्या हुआ पहली बार गाड़ी देखी हो
तुम तो ऐसे देख रही हो?” “अरे नहीं ध्यान से देखो आप भी “। “अरे ये तो आस्था दीदी है “,मेरा बेटा खुशी से लगभग चीखते हुए बोला ।मैंने उसका हाथ दबाया और आँखों से घूरा तब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। लेकिन तब तक उस युगल की निगाहें ऊपर उठ चुकीं थीं । मैं बेटे का हाथ पकड़कर तेजी से आगे बढ़ गई।
आँखों के आगे पुरानी बातें अचानक ही आने लगीं। मेरी शादी के पहले से वो इस घर में काम कर रही थी।उससे पहले उसकी मां आती थी काम पर।अभी वो बच्ची ही थी उम्र के हिसाब से पर मजबूरी ने उसे समय से पहले बड़ा कर दिया था। पिता का साया बचपन में ही नहीं रहा था ,थोड़ा बड़ी हुई तो मां भी न रही । अकेली लड़की कैसे जिएगी यही सोच कर मां जी ने उसे मना न किया कााम पर आने को नहीं तो उसकी उम्र नहीं थी काम की। मां जी ने सोचा काम के बहाने आती रहेगी तो खोज- खबर भी रहेगी बच्ची की और उसे यहां – वहां भी न भटकना पड़ेगा ,
अन्यथा तो काम तो उसे करना ही पड़ेगा जीवनयापन के लिए। अकेली लड़की को पूरा समय घर पर रखना भी ठीक नहीं आज के समय मेें ,तो दिन भर यहां रहेगी शाम को अपने घर चली जाया करेगी, कुछ यही सोचकर रखा था उसे उन्होंने। काम के समय में वो काम में मदद कराती बाकी समय में मां जी ने उसे अक्षर ज्ञान करना सिखाया। जिससे अब वो पढ़ लिख लेती थी और मां जी ने उसका एडमिशन अपनी पहचान वालों के स्कूल में कराकर उसे आठवीं तक का सर्टिफिकेट भी दिला रखा था । मेरे आने के बाद मैंने उसे आगे पढ़ाया और आगे के लिए व्यक्तिगत परीक्षा में एनरोलमैंट भी करा दिया था जिससे वो हाईस्कूल पास कर गई थी ।
बेटी बेशक कामवाली की थी पर बहुत प्रखर बुद्धि की थी। ये मैंने कुछ ही समय में समझ लिया था। पढ़ने में भी तेज थी और बातों में भी। पिछले कुछ समय से उसे अजीब ही शौक लग गया था, लाटरी के टिकट्स खरीदने का। उससे मना करते तो बोलती ,”नहीं भाभीजी बस इसके लिए मना मत करना, आपकी सब बातें सिर माथे ,पर मुझे इससे मत रोको। मैं पैदा गरीब हुई हूँ पर मरना गरीबी में नहीं चाहती ।मेरे पास कोई हुनर भी नहीं कि मैं उससे पैसा कमा लूंगी। मैं इन गंदी बस्तियों में जिंदगी नहीं गुजारना चाहती भाभी मुझे मना मत करो आप”।
उसकी ऐसी भावुक बातें सुनकर फिर मैंने कभी उसे मना न किया ।कभी -कभी मैं और मेरा बेटा उसे छेड़ देते “आस्था लाटरी लगने के बाद तो तुम बड़ी आदमी हो जाओगी ,फिर तो हमें पहचानोगी भी नहीं?”
“अरे भाभी बड़ी आदमी कैसे , मैं तो जो हूं वही रहूँगी और आपको तो मैं कभी भुला ही नहीं सकती”]
ऐसे ही हँसते खेलते दिन निकल रहे थे। जितना हमें विश्वास था कि ये पैसे बर्बाद कर रही है उससे कई गुना ज्यादा उसका विश्वास था कि वो आज नहीं तो कल लाटरी जीतेगी जरूर। उसे कुछ चिढ़ सी थी झोपड़- पट्टी से और उसमें रहने वालों से भी ।वो अक्सर कहती कि मुझे अपनी जिंदगी यहां इन बेबड़ों (शराबियों) के बीच बर्बाद नहीं करनी । साथ ही वह आगे की शिक्षा के लिए भी पूर्ण मनोयोग से तैयारी करती ।
एक दिन सुबह वो नहीं आई ।उसके पास फोन नहीं था, तो वो जब नहीं आना होता था,
तो पहले ही बोलकर जाती थी।पर कल तो उसने कुछ नहीं बोला था ,हो सकता है तबीयत खराब होगी । इसलिए नहीं आई होगी ,सोचकर मैं काम में लग गई। अगले दिन भी नहीं आई और उसके अगले दिन भी नहीं तो थोड़ी चिंता हुई। माँ जी को बोला तो वो उसकी बस्ती गईं ।
इससे पहले वो उसकी माँ की मृत्यु के समय गई थीं तो उन्हें उसका घर (झोंंपड़ी) पता था। वहां जाकर पता चला कि आस्था दो दिन पहले ये कहकर गई थी कि उसकी लाटरी निकली है और वो इसलिए पैसे लेने जा रही है । उसे ये खबर किसने दी? वो कहाँ गई है ?ये किसी को नहीं पता ।क्योंकि वो वहाँ रहती जरूर थी पर किसी से ज्यादा मतलब नहीं रखती थी ।अपनी ही मौसी से भी नहीं । क्योंकि मौसा शराबी था।
बहुत दिन निकल गए पर उसका कुछ पता न चला। हम भी लगभग भूलने लगे थे, कारण एक तो पता नहीं मुझे उस पर गुस्सा था कि जरूर इसने कुछ गलत किया है तभी बिना कुछ बताए कहीं निकल गई है । कई बार मन कहता,” लगती तो शरीफ थी बातों से भी गलत नहीं लगी अगले ही पल मन से जबाव आता ज्यादा ही तेज थी तभी उसके इरादों की कोई भनक तक किसी को न लगी”।
दूसरे कामवाली की व्यवस्था हो गई थी और वो सब काम अच्छे से कर रही थी , तो उसकी कमी भी नहीं खल रही थी ।मानव मन बड़ा ही मतलबी होता है । ये अहसास भी तभी हुआ पर किसी से कहा नहीं।
पार्थ, मेरा बेटा जरूर कभी- कभी उसे याद कर लेता, मम्मा आस्था दी की बहुत बड़ी लाटरी लगी होगी क्या?वो सचमुच बहुत पैसे वाली हो गई हैं ?आदि ,मासूम से प्रश्न करता रहता।
अब यूं अचानक उसके सामने आ जाने से सब कुछ ,कुछ ही मिनटों में दोबारा जी लिया।
मन खराब हो गया था इसलिए मैं पार्थ का हाथ कसकर पकड़कर आगे बढ़ती ही जा रही थी । बिना कुछ आगे पीछे देखे ही । कुछ गुस्सा ,कुछ आश्चर्य और शायद कहीं थोड़ी सी खुशी भी ,इतने सारे भाव आ- जा रहे थे। कहीं थोड़ा अपमानित भी महसूस कर रही थी कि क्या -क्या न किया इसकी खातिर ,अपने बच्चे की तरह रखा और ये देखो पहले तो गलत काम किया ही और अब अमीरी के घमंड में पहचान ही नहीं रही।
पता नहीं क्यों आँखों की कोर भी गीली हो गई थी।
इतने में स्टेडियम की तरफ से घूमकर वे दोनों मेरे सामने आकर खड़े हो गए।
“भाभी नाराज हैं आप “?? “इस तरह अनदेखा करके जा रही हैं । मैं तो यही सोचकर नैनीताल आई थी कि काश आपसे मुलाकात हो जाए ,क्योंकि मुझे पता था कि आप इन दिनों में यहां अवश्य आती हैं।”
“ईश्वर ने मेरी सुन ली कि आप आईं भी और मिल भी गईं। भाभीजी आपको नाराज होने का पूरा हक है । मेरी गलती थी ,और आप जो सजा दोगी वो भी मुझे मंजूर होगी, पर एक बार मेरी बात आप सुन लीजिए।”
मैं तो अब तक सामान्य ही नहीं हो पाई थी। अब तक मैं समझ रही थी कि वो मुझे अनदेखा कर रही है जबकि वो मेरे लिए ही यहाँ आई थी। पर ऐसा है तो वो घर पर भी तो आ सकती थी ,अब सामने पड़ गए हैं तो फिर अपने वाक्- कौशल का प्रयोग कर रही है । लेकिन चलो इसकी कहानी सुन ही लेते हैं क्योंकि कितना भी झूठ बोलेगी फिर भी कुछ तो सच निकलेगा ही। ये सोचकर मैं रुक गई।
कुछ सोचकर मैं बोली ,हम क्यों नाराज होंगे भई, तुम्हारी जिंदगी, उसका फैसला भी तुम्हें लेना था। जो अच्छा लगा होगा, वही किया होगा ,इसमें नाराजगी कैसी?
” मैं आपको इतने सालों से जानती हूं भाभी आप जिस तरह से आगे बढ़कर आ गईं वही बता रहा है कि आप मुझसे बहुत नाराज हैं”। वह कुछ उदास लहजे में बोली।
तभी उसे कुछ याद आया वो अपने साथी से बोली,”अरे नरेश ये ही भैया और भाभीजी हैं आशीर्वाद लो , और ये नन्हा सा मेरा भतीजा पार्थ अब थोड़ा बड़ा हो गया है”।
“भाभीजी ये मेरे पति नरेश हैं”।
तभी मेरे हसबैंड बोले ,”आओ ,आगे रेस्टोरेंट में बैठकर कुछ खाते हैं। वहीं अपने गिले शिकवे निपटा लेना । यहां रास्ते में अच्छा नहीं लग रहा है “। पार्थ के पापा बहुत ही रिजर्व नेचर के हैं वो ज्यादा किसी से मतलब नहीं रखते । इसलिए इस सब में भी उनकी कोई रुचि नहीं थी।
इन्होंने मोमोज का आर्डर कर दिया और आस्था ने उस दिन अचानक गायब हो जाने से लेकर अब तक की कहानी बताना शुरू की।
“भाभी आपको तो पता ही है हर दिन काम पर आने से पहले मैं अखबार में लाटरी का परिणाम जरूर देखती थी। उस दिन भी वही किया । पर ये क्या जो लाटरी लगी थी वो नम्बर तो मेरे पास था । मैंने जल्दी से टिकट निकालकर मिलाया , अरे हां ये तो मेरा ही नंबर है। कभी दस रुपये की भी लाटरी न लगी और आज लगी तो इतनी बड़ी रकम कि विश्वास करना मुश्किल लग रहा था। मैं खुशी के मारे पागल हुई जा रही थी । पर मेरी इतनी बड़ी लाटरी लगी है मुझे आसपास किसी को भी ये बताना नहीं था। बस मौसी को बताकर मैं लाटरी आफिस के दिए हुए पते की तलाश में निकल ली। खुशी के अतिरेक में मुझे याद ही न रहा कि आपको भी खबर कर दूँ या पहले आपसे मिल लूँ। बस यही गलती हो गई मुझसे , मैंने आपका फोन नंबर तो कभी लिया ही नहीं था क्योंकि जरूरत ही नहीं थी।
रास्ते भर दिवास्वप्न देखती हुई मैं मुंबई आफिस पहुंच गई। नरेश कुछ समय पहले ही मुंबई आया था क्योंकि इसे कैंपस सलेक्शन में मुंबई ही मिला था।
मैंने आपसे ये बात कभी भी नहीं बताई थी कि जब जून में हर साल मैं बुआ के घर जाती थी वहीं मेरी मुलाकात नरेश से हुई थी जो धीरे- धीरे कब चाहत में बदली हम दोनों को ही पता नहीं चला। पर जब पता चला तो एकबात बिल्कुल साफ थी कि हम दोंनो एक दूसरे के लिए ही बने हैं।
पर न नरेश को, न मुझे ही , शादी की कोई जल्दी थी । क्योंकि नरेश को पढ़-लिखकर कुछ बनना था और मुझे अपनी लाटरी का इंतजार था ,और तब तक मैं अपने मायके यानी आपके पास बिल्कुल सुरक्षित थी ये नरेश को भी पता था और मुझे भी। मुंबई आकर मैंने नरेश को फोन किया और सब बताया तब नरेश ही मुझे लाटरी आफिस लेकर गया और सभी प्रक्रिया पूर्ण कराई लाटरी के पैसे लेने की।
अब लाटरी लगना और पैसे मिल जाना एक बात थी पर बिना शादी के साथ रहना मुझे बिल्कुल भी गवारा न था तो एक रात हमने स्टेशन पर ही गुजारी ,अगले दिन नरेश ने आफिस से छुट्टी ली और हमने आर्य समाज मंदिर में शादी करके नरेश के घरवालों को सूचित कर दिया । इससे उन्होंने थोड़ी नाराजगी तो दिखाई पर हिदायत भी दे दी कि अब बहू को लेकर सीधे घर आओ,कुछ जरूरी रस्में करके फिर तुम्हें जो सही लगे वो करना।
इस तरह नरेश के घर में हमारी शादी को मान्यता मिल गई और मैं चाहकर भी आपको नहीं बता पाई क्योंकि न फोन नंबर था आपका न ही पत्र भेजने को पता। नरेश की नई नौकरी होने के कारण इतनी छुट्टी नहीं मिल सकती थी कि हम आपसे मिलने आ पाते। तभी मैंने नरेश को आपकी वार्षिक नैनीताल ट्रिप के बारे में बताया तो इसी ने प्लान बनाया कि हम पहली बार घूमने के लिए नैनीताल ही जाएंगे और किस्मत में रहा तो आप लोगों से वहीं मुलाकात होगी अन्यथा लौटते पर आपसे मिलकर ही वापस मुंबई जाएंगे।
और भाभी ऊपर वाला भी दिल की पुकार सुनता है ,मैंने हरबार ये आजमाया है। इसबार भी मेरे दिल की आवाज सुनी ईश्वर ने, और आपसे मुलाकात करा दी । भाभी इस सब में मेरी दो बड़ी गलती रही हैं ,कि मां समान मानते हुए भी आपको कभी नरेश के बारे में न बताया इसका कारण यह था कि मेरा कोई वजूद तो था नहीं इसलिए एक डर था कि पता नहीं नौकरी लगने के बाद नरेश घरवालों के दबाव के आगे मुझसे शादी करे न करे । दूसरी गलती लाटरी निकलने के नशे में हो गई कि आपसे मिलकर जाना चाहिए ये भी ध्यान न रहा ।
अब आप इन गलतियों के लिए जो सजा दोगी वो सिर माथे हमेशा की तरह”।
मैं अब अपने आप में शर्मिंदा महसूस कर रही थी कि मैंने कैसे इस लड़की को गलत मान लिया था। ये तो न केवल गुणों की खान है बल्कि संस्कार भी इसमें कूटकूट कर भरे हैं। अच्छे -अच्छे घरों की लड़कियों में आजकल संस्कार ढूंढने से भी न मिलें। पर ये लड़की अभावों में रहकर भी मर्यादा न भूली।
अब तक आँखों की कोर जो भीगी हुई थी वो अब आँसुओं का सैलाब न रोक पाईंं।
मैं बस इतना ही बोली,” नहीं पगली मैं ही अच्छी मां न बनी कि बेटी अपने दिल की बात निःसंकोच कह पाती। अब तुम दोंनो की सजा ये है कि पग -फेरे की रस्म निभाए बिना तुम लोग मुंबई नहीं जाओगे”।
वो बेसाख्ता मेरे गले से लिपट कर रोने लगी । हम दोनों ही बेसाख्ता रो रहे थे पर ये खुशी के आँसू थे। पार्थ हम दोनों को एकटक देख रहा था। एक बार फिर सिद्ध हुआ कि रिश्ते दिलों से निभाए जाते हैं। अमीरी-गरीबी से नहीं।
इतनी देर में पार्थ के पापा और नरेश भी आ गए जो मोमोज़ खाकर बाहर निकल गए थे, शायद हमें प्राइवेसी देने के लिए।
पूनम सारस्वत