Moral Stories in Hindi : ” आप समझते क्यों नहीं विवेक…मनु को आप चाहिये…मँहगे खिलौने या कीमती कपड़े नहीं…आप थोड़ा समय…।”
” आखिर ये सब मैं किसके लिये कर रहा हूँ ऋचा…तुम्हारे लिये ही ना…।”
” लेकिन ना मुझे आपके पैसे चाहिए ना आपकी संपत्ति।मुझे तो आपका साथ चाहिये।हमारे पास बैठकर दो बातें कीजिए…बेटे के साथ थोड़ा टाइम स्पेन्ड कीजिये… कितने समय के बाद तो मम्मी जी आईं हैं, वो भी आपसे बातें करने के लिये तरस गईं हैं….”
एमबीए करके विवेक ने अपनी एक कंपनी खोली थी जो काफ़ी तरक्की कर रही थी।परिवार की सहमति से उसने अपने मित्र की बहन ऋचा के साथ कोर्ट-मैरिज़ किया था।दोनों बहुत खुश थें।फिर धीरे-धीरे विवेक देर से घर आने लगे।उनकी व्यस्तता देखकर ऋचा ने उन्हें टोका कि घर के लिये भी थोड़ा समय निकालिये लेकिन विवेक ने उसे अनसुना कर दिया।साल भर बाद ऋचा एक बेटे की माँ बनी तो तब विवेक बहुत खुश थे।समय पर घर आने लगे।बेटे के साथ खेलते-बातें करते और उसे घुमाने भी ले जाते थें।लेकिन कुछ महीनों बाद वो फिर से अपने काम में व्यस्त रहने लगे।
ऋचा की माँ और उसकी सास जब भी आती तो विवेक को समझाती कि काम के साथ-साथ घर की ज़िम्मेदारियाँ भी निभानी चाहिये पर उनके कानों पर जूँ नहीं रेंगती थी।तीन साल का होने पर मनु स्कूल जाने लगा लेकिन विवेक को न तो उसके स्कूल का नाम मालूम था और न ही उसके यूनिफॉर्म का रंग।
दस दिनों पहले विवेक की माँ आई थीं।ऋचा के साथ बातें करतीं, पोते के साथ खेलती लेकिन जब विवेक से बात करना चाहती तो वो कहते,” माँ…शाम को मिलता हूँ।” परन्तु माँ से बात करने वाली शाम कभी नहीं आती।बेटे की व्यस्तता देखकर उन्हें अपने बीते दिन याद आ जाते तो वो सिहर उठतीं थीं।
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एक दिन ऋचा की सास ने उससे कहा,” बेटी..तुम विवेक को समझाओ…काम की व्यस्तता में वह घर को इग्नोर कर रहा है।कहीं ऐसा न हो कि बेटा उससे दूर हो जाये।”
” क्या मतलब?” ऋचा ने आश्चर्य-से पूछा।
” कुछ नहीं …।” उन्होंने बात को टाल दिया लेकिन ऋचा सोच में पड़ गई थी।उसने ठान लिया कि विवेक से बात करके ही रहेगी।
शाम के साढ़े छह बजे वाली मीटिंग वाला कैंसिल हो गई तो विवेक घर आ गये।तब डिनर के बाद ऋचा ने अपने मन की बात विवेक से कह ही डाली। सुनते ही विवेक भड़क उठे और बोले,” तुम्हारी फ़ालतू बातों के लिये वक्त नहीं है मेरे पास..।” विवेक की तेज आवाज़ सुनकर बेटे की नींद खुल गई, वह रोने लगा।विवेक की माँ भी घबरा कर कमरे से निकली, उनका मन किया कि जाकर बेटे से बात करे लेकिन कुछ सोचकर कमरे तक जाते-जाते उन्होंने अपने कदम पीछे कर लिये।
ऋचा बेटे को चुप कराकर सुलाने लगी और विवेक करवट बदलकर सोने का प्रयास करने लगे।उन्हें झपकी आई तो देखा कि उनके पिता से माँ कह रहीं हैं,” ना मुझे आपके पैसे चाहिए ना आपकी संपत्ति।ऐसी संपत्ति किस काम की जो पुत्र को पिता से अलग कर दे।विवेक कब से आपके साथ बात…।” पिता कमरे से बाहर चले गये, माँ की बात अधूरी रह गई और विवेक…वह पापा-पापा पुकारता रह गया।तभी विवेक ने देखा कि उसका बेटा पापा-पापा ‘ पुकारते हुए ज़मीन पर गिर पड़ा। ‘ मनु…।’ कहते हुए विवेक घबरा कर उठ बैठे।एयरकंडीसन कमरे में भी वो पसीने-से तर-ब-तर थे।
ऋचा को अपने सीने-से लगाते हुए विवेक बोले,” मुझे माफ़ कर दो ऋचा।मैं भूल गया था कि इंसान की असली कमाई पैसा नहीं बल्कि रिश्ता होता है।अब तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी।मैं तुम्हें, मनु और माँ को पूरा समय दिया करुँगा….।” ऋचा बहुत खुश हुई और उसने मन ही मन अपनी सास को धन्यवाद दिया।
रविवार के दिन सभी लोग माॅल घूमने गये।तभी ऋचा की नज़र शोकेस में लगी नेकलेस पर पड़ी।वह वहीं रुक गई और सास को बोली,” मम्मी जी.., आप मनु को आइसक्रीम दिलवाइये…हम अभी आते हैं।” फिर विवेक से बोली, ” नेकलेस बहुत सुंदर है।मुझे लेना है।”
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” लेना है…लेकिन उस दिन तो तुमने कहा था कि तुम्हें पैसा- सम्पत्ति कुछ भी नहीं चाहिये..।” कहते हुए विवेक मुस्कुराए।
ऋचा भी कम नहीं थी, अपने दोनों कंधे उचकाते हुए बोली,” उस दिन कहा था…आज नहीं…अब चलिये…।” फिर तो दोनों ही हँसने लगे।दूर खड़ी विवेक की माँ ने बेटे-बहू को हँसते देखा तो खुशी- से उनकी आँखें छलछला उठी।
विभा गुप्ता
# वाक्य प्रतियोगिता स्वरचित
# ना मुझे आपके पैसे चाहिए ना आपकी संपत्ति