भैय्या-भैय्या, आज रक्षाबंधन है,क्या मैं आपको राखी बांध दूँ?
अरे,भैय्या-भैय्या पुकारती हो,तो फिर राखी क्यो नही बाँधोगी, इसमें पूछने वाली कौनसी बात है?ले बांध ना राखी?
शायद 1973-1974 का ही घटनाक्रम है,मेरे ही घर के एक पोर्शन में हमारे ही कस्बे के पास के एक गांव का किसान परिवार किराये पर रहने को आया।मेरे पिता उन्हें जानते थे,इस कारण पहले दिन से ही उस परिवार से हम सबकी आत्मीयता जुड़ गई थी,कालांतर में भी वे कभी किराएदार जैसे किसी को लगे ही नही।
उस परिवार में परिवार मुखिया रघुबीर सिंह जो मेरे पिता से पहले ही से परिचित थे,के अतिरिक्त उनकी पत्नी रामकली,दो बेटे समय सिंह व नरेन्द्र सिंह तथा एक बेटी सरिता यानि कुल पांच प्राणी थे।
बेटी सरिता सबसे बड़ी थी जो बीए में पढ़ रही थी,बाकी दोनो बेटे एक इंटर में तो दूसरा हाई स्कूल में पढ़ रहे थे।असल मे वे बच्चो की पढ़ाई के कारण ही कस्बे में रहने आये थे।मैं भी एलएल.बी. का विद्यार्थी ही था,अवकाश के दिनों में ही घर आना होता था।जब मैं घर आता तो रघुबीर सिंह अपने यहां मुझे एक दो बार अवश्य ही भोजन पर बुला लेते।
सरिता चूंकि बड़ी थी तो वह ही बेबाकी से मुझसे बात कर लेती थी,उसके दोनो भाई मुझसे काफी छोटे थे तो वे तो नमस्ते करके इधर उधर हो जाते थे,बस सरिता ही मेरे पास बैठती थी।सरिता और उसके भाई मुझे भैय्या कहकर ही पुकारते थे।मुझे भी उस परिवार में अपनापन ही लगने लगा था।
रक्षाबंधन के दिन मैं घर आया हुआ था,तब ही सरिता उत्साह और अपने पन में मुझसे राखी बांधने को पूछ रही थी।मैंने भी बड़ेपन से अपनी कलाई उसकी ओर बढ़ा दी थी,ले बांध ना राखी।वह झटपट अंदर भागी और एक तस्तरी में रोली चावल,राखी और मिठाई रख कर ले आयी।बड़े ही मनोयोग से उसने मेरी कलाई पर राखी बांधी,टीका लगाया और मिठाई खिलाई,
मैंने उसके सिर पर हाथ रख दिया, मुझे लग रहा था कि मैं बड़ा हो गया हूँ,फिर मैंने सरिता को 101 रुपये भी दिये।रुपये लेने को वह मना करने लगी,पर मैंने ही उसे अपने बड़े भाई के अधिकार का हवाला देकर रुपये दे ही दिये।
रक्षाबंधन से अगले दिन मैं अपना टाइम पास करने और पिक्चर देखने के मोह के कारण स्थानीय सिनेमा हाल में मैटिनी शो में चला गया।खिड़की से टिकिट खरीद कर मैं हाल के अंदर जाने ही वाला था कि पीछे से भैय्या-भैय्या की आवाज आयी, ये तो सरिता की आवाज है,सुनकर मैंने पीछे मुड़कर देखा,हां सरिता ही थी,
उसके साथ एक हैंडसम पर्सनालिटी का लड़का भी था,मैंने उसके पास आकर कहा क्यो सरिता पिक्चर देखने आयी हो?उसने शर्माते हुए हाँ में सिर हिलाया।फिर बोली भैय्या ये विवेक है,मेरे कॉलेज में अंतिम वर्ष में पढ़ता है।हम साथ ही पिक्चर देखने आये हैं।मैं समझ तो गया था,फिर भी मैंने कहा कि समय और नरेंद्र को भी साथ ले आती,
वे भी पिक्चर देख लेते।सरिता बोली भैय्या हमने घर पर कुछ नही बताया है।विवेक की बिरादरी हमसे अलग है ना,पापा अभी नही मानेंगे।सरिता ने सबकुछ एक प्रकार से स्पष्ट कर दिया था।मैंने समझ लिया था कि सरिता विवेक से शादी करना चाहती है,पर विवेक की बिरादरी अलग है, जो उसके पिता मानेंगे नही।बाद में हम तीनों ने एक साथ बैठकर पिक्चर देखी,पिक्चर क्या देखी,
वह तो बहाना ही रहा, मैं और विवेक बस आपस मे बात ही करते रहे।मैंने महसूस किया कि विवेक एक सुलझा हुआ लड़का है,उसके पास अपने भावी जीवन की योजना है।वह अगले वर्ष ही नौकरी ढूढेंगा और तभी वह सरिता से शादी करेगा।उनकी कोशिश अपने अपने माता पिता को मनाने की रहेगी।
सच बात तो ये थी कि मुझे विवेक पसंद आया था और सरिता के साथ उसकी जोड़ी भी।मैंने उनकी योजना से सहमति ही जताई।अगले दिन मैं वहां से चला आया।विजयदशमी पर मैं पुनः घर आया तो मुझे सरिता दिखायी नही दी,अगले दिन मैंने सरिता के पिता से पूछा कि अंकल सरिता दिखाई नही दे रही तो उन्होंने बताया
कि वह अपनी मौसी के यहां गयी हुई है।ओह कह मैं चला आया।मैं अपने कमरे में लेटा ही था कि मेरी आँख लग गयी।अचानक एक शोर से मेरी आँखें खुल गयी,मैं अलसाया सा बाहर आया यह जानने को कि कैसा शोर है?बाहर आकर देखा तो पुलिस की जीप खड़ी थी और वे सरिता के पिता रघुबीर सिंह को अपने साथ ले जा रहे थे।
बाद में पता लगा कि विवेक के पिता ने पुलिस रिपोर्ट की है कि रघुबीर सिंह ने मेरे बेटे विवेक की हत्या की है अथवा कराई है।सुनकर मैं तो भौचक्का रह गया।इसी बीच खबर मिली कि सरिता भी कही नही मिल रही है इसलिये उसकी हत्या किये जाने की आशंका है।जीवन मे पहली बार ऐसी घटना से सामना मेरा हो रहा था।भला एक बाप अपनी बेटी की हत्या भी कर सकता है,ये क्या सम्भव है?
पुलिस थाने में रघुबीर सिंह आखिर टूट गये, उन्होंने स्वीकार कर लिया कि उन्होंने ही अपने भाई दिवाकर के साथ मिलकर सरिता और विवेक दोनो की हत्या की है,और उनकी लाश भी उन्होंने गांव के बाहर तालाब पास दफन कर दी है।वे नही चाहते थे कि सरिता गैर बिरादरी में शादी करके उनकी इज्जत से खिलवाड़ करे।
गावँ में और अपनी बिरादरी में तो नाक कट जाती।अब भी सब ताने कस रहे थे।सरिता को खूब समझाया पर वो नही मानी,तब मजबूरी में उन्हें मारना पड़ा।
विवेक और सरिता की गली सड़ी अवस्था मे लाशें बरामद हो चुकी थी,रघुबीर सिंह और दिवाकर को जेल भेज दिया गया था।दो वर्ष बाद उन्हें अदालत से आजन्म कारावास की सजा दे दी गयी।पूरे परिवार मे कोई बड़ा पुरुष अब नही बचा था।मेरे लिये तो यह जीवन का अजीब अनुभव था,जिसका मैं साक्षी तो था पर कुछ भी करने में असमर्थ।सब कुछ हो जाने के बाद भी सरिता की माँ कह रही थी बता बिटवा इज्जत के आगे भी कुछ होवे है
क्या, ऐसी औलाद का तो ऐसे ही मरना भला।मेरे लिये ये एक बार फिर झटका था क्या माँ को अपनी बेटी की हत्या का जरा भी दुःख नही?आखिर सरिता का कसूर क्या था?मैं जानता था सरिता और विवेक ने तो कभी मर्यादा का उल्लघन भी नही किया था।बस विवाह की अनुमति ही तो मांगी थी।मैं उदास मन से खिन्न हो मन पर भारी बोझ लिये घर से वापस चला गया।
रक्षाबंधन आज फिर था,मैं अबकी बार घर नही गया, वहां सरिता की याद आयेगी।लेकिन उसकी याद मन मस्तिष्क से हट ही कब रही थी।सोचते सोचते कब ऊँघने लगा पता ही नही चला।भैय्या-भैय्या की आवाज कानो में पड़ी,अरे ये तो सरिता की ही आवाज है,कह रही थी,सो गये भैय्या, राखी नही बंधवानी, उठो भी अब?
अचकचा कर मैं एकदम उठ गया,ये सरिता कहाँ से आ गयी,अलसायी बंद आँखों के साथ ही मैंने कलाई आगे कर दी।पर राखी तो बंधी ही नही,देखा तो कमरे में तो कोई था ही नही।मरे हुए कहाँ आते है,पर सरिता अहसास करा रही थी,कि भैय्या मैं मरी नही,बल्कि तुम्हारी यह बहन तुम्हारे दिल मे तो जीवित रहेगी ही।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित
#खानदान की इज्जत