माथे पर सोच की लकीरें और अनुभव की झुर्रियों से भरा चेहरा था उसका । कोटर में धंसी दो पनियाली आँखें बुझते दीपक सी नजर आती थीं। हमारी गली के बाहर वाली चौड़ी सड़क पर बने ,विशाल राम मंदिर के पास बैठी वो ,हर आने जाने वाले की तरफ कातर निगाहों से तब तक देखती जब तक कि वहां से गुजरने वाला दूर न चला जाता।
हर बार अपना अलम्युनियम का मुड़ा-तुड़ा कटोरा खड़का कर उधर से गुजरने वालों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करती , जिसमें पहले से ही दो चार रुपये की रेजगारी पड़ी होती थी।
अपने किसी काम से मेरा उधर से गुजरना हुआ। उसके सामने से जाते हुए यकायक मेरे पैर जैसे किसी चुम्बक से चिपक गए। पर्स खोल कर दस रुपये का एक नोट मैंने उसके कटोरे में डाल दिया। मिचमिची आंखें अचानक विस्फारित सी हो गईं । कुछ क्षण मुझे देखने के बाद उसने नोट को उठाकर धीरे से सहलाया और दोबारा आँखें ऊपर उठाई जिसमें उभरी कृतज्ञता को मैंने पढ़ लिया। उसके कंधे पर धीरे से अपना हाथ रख मैं आगे बढ़ गई।
उस रात न जाने क्यों ,कोई खास बात न होने पर भी मैं उसी के
बारे में सोचती रही। मेरी माँ बरसों पहले मुझे छोड़ गई थी पर उसकी सूरत मुझे मां से मिलती लगी। अगले दिन से मैं वहीं से गुजरती और कुछ न कुछ उसके कटोरे में जरूर डालती अब वह भी मेरा इंतजार करने लगी थी और मैं जब उसके पास पहुंचती वह मुस्कुरा भी देती।
अगले माह मुंबई स्थित एक आर्ट गैलरी में मेरे चित्रों की प्रदर्शनी थी। मेरा मन था मैं भी एक ऐसा महान चित्र बनाऊं जो मुझे अमर कर दे। मैं नहीं जानती यह कभी सम्भव होगा भी या नहीं पर मैंने अपने मन में निर्णय लिया प्रयास तो अवश्य करूँगी और इस सुखद विचार के साथ मैं सो गई।
अगली सुबह उठी तो यही ख्याल ज़हन में था और मैं इसी ख्याल के साथ बाहर चली गई।लौटते वक्त उस माँ जैसी का चित्र बंनाने का ख्याल मेरे मन में घर कर गया और मैं मुस्कुरा दी। आज मैं कुछ देर वहाँ रुक कर बहुत गौर से उसे देखती रही और मुझे अपना निर्णय सही लगा।
अगले दिन मैंने हर तरफ से उसके कई फोटो अपने मोबाइल से खींचे। वह हैरानी से मुझे देखती रही।घर आकर मैं अपने काम पर लग गई। मोबाइल से उसकी फोटो लैपटॉप पर डाउनलोड कर मैं खुशी से बहुत देर उसे देखती रही। उसकी दो पनियाली आंखें सोते जागते हर वक्त मेरे सामने रहती।
अब ईजल पर चढ़ा मेरा कैनवास तैयार था। पेंसिल स्कैच बनाते समय
उसके चेहरे की हर रेखा अपनी कहानी कहती प्रतीत हो रही थी। उसके पास जाने का मेरा क्रम नहीं टूटा। हर दिन मैं उसे कुछ देर बहुत गौर से देखती और लौट आती।
मेरे कमरे में ऑयल पेंट की गंध बस गई थी और अब मुझसे भी वही गन्ध आने लगी थी। अपने चित्र पर मैं बहुत लगन से काम कर रही थी। वही नेह से मुझे देखती आँखें, वही कुछ नीचे की तरफ लटके से होंठ, वही माथे और गालों की झुर्रियाँ। चित्र अब बोलने लगा था। रात के एकांत में मैं उससे बातें करती, क्या तुम सचमुच मेरी माँ हो।
चित्र लगभग पूर्ण था। मेरा विचार था आखिरी टच मैं उसे वहीं उसके सामने दूँ मैंने गाड़ी में सब सामान एहतियात से रखा और रवाना हो गई। मन में तरह -तरह के विचार आ रहे थे । चित्र बहुत खूबसूरत बना था , क्या यह वह सम्मान पा सकेगा जिसकी मुझे चाह है । जब उसे दिखाऊँगी तो उसके चेहरे पर क्या भाव आएँगे । मैं यह सब देखने लिए बहुत उत्सुक थी।
सामने कुछ भीड़ सी थी। मैं तेजी से उस तरफ बढ़ी,भीड़ के बीच उसका बेजान शरीर पड़ा था ,खुली आंखें जैसे किसी की राह तक रही थी और मैं बदहवास जाकर उससे लिपट कर फूट -फूट कर रो पड़ी। मुझे लगा मेरी माँ आज फिर धोखा दे गई। लोग मुझे हैरानी से देख रहे थे।मुझे नही पता किन लोगों ने मुझे उससे छुड़ा कर वापस गाड़ी में लाकर बिठाया ।
मैं उस चित्र को फिर कभी आखिरी टच नहीं दे पाई। वह चित्र अब मेरे बिस्तर के सामने की दीवार पर टँगा हर पल मुझे देखता मुस्कुराता है। मैं अपने सारे सुख -दुख उससे साझा करती हूँ।
आज एक बरस हो गया, उसके गले में ताजा गुलाब की माला डाल, प्रणाम कर मैं बाहर काम पर निकल गई। उस दिन के बाद से चित्र तो मैं आज भी बनाती हूँ , परन्तु जाने क्या बात है वो मुकम्मल नहीं हो पाता , किसी भी पोट्रेट को आख़िरी टच नहीं दे पाती ।आखिरी टच ,आखिरी ही रह गया। हर कृति की अब यही नियति है।
सरिता गर्ग ‘सरि ‘