रमा और सुधाकर का जीवन वर्षों से एक ही ढर्रे पर चल रहा था। सुधाकर जी अपनी नौकरी में और रमा गृहस्थी में पूरी तरह व्यस्त रहते थे। उनके विवाह को दस साल बीत चुके थे, लेकिन वे दोनों कभी अपनी दैनिक जिम्मेदारियों से बाहर निकलकर जीवन का आनंद नहीं ले पाए थे। सुधाकर जी अपनी मां की देखभाल, बच्चों की पढ़ाई, और घर के खर्चों में पूरी तरह से उलझे रहते थे। वहीं, रमा भी गृहस्थी के जाल में इस तरह फंसी हुई थी कि उसे खुद के लिए समय निकालने का अवसर ही नहीं मिलता था।
एक शाम जब सुधाकर जी ऑफिस से लौटे, तो रमा ने धीरे-धीरे अपनी बात शुरू की। उसने कहा, “सुनिए जी, हम लोग आज तक कहीं घूमने फिरने नहीं गए। आप ऑफिस में खटते रहते हो और मैं इस घरगृहस्थी में।” सुधाकर जी ने पहले तो उसकी बात सुनी, लेकिन उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि रमा अचानक से क्यों इस विषय पर बात कर रही है। वो हल्की मुस्कान के साथ बोले, “आज सूरज पश्चिम में कैसे उग गया? हमारी हमेशा की शीतल गगरी में आज यह उबाल कैसे आ गया?”
रमा का चेहरा गंभीर था। उसने पति की चुहलबाजी की तरफ ध्यान दिए बिना कहा, “बात को घुमाइए मत। दस साल हो गए हमारे विवाह को। हम तो गृहस्थी के जाल में उलझ कर रह गए हैं। और देखिए, सब लोग थोड़ा समय निकालकर साल-दो साल में कहीं घूमने तो जाते ही हैं।” उसकी बातों में गहरा दुख और नाराजगी झलक रही थी। वह सचमुच थक चुकी थी इस एकसार दिनचर्या से, और वह चाहती थी कि वे दोनों अपने जीवन में कुछ नया करें, कुछ बदलाव लाएं।
सुधाकर जी ने एक गहरी सांस ली और संजीदा होकर बोले, “रमा, मेरी इतनी कमाई भी नहीं है कि हम इन सब चीजों पर खर्च कर सकें। मां की दवाइयों और बच्चों की पढ़ाई के खर्चे, ये सब जिम्मेदारियां ही इतनी हैं कि हमारे लिए कुछ भी बचा नहीं रहता। जब ये जिम्मेदारियां पूरी होंगी, तब अपने बारे में सोचेंगे।” सुधाकर जी के स्वर में एक थकान और बेबसी झलक रही थी। वह अपने परिवार के प्रति पूरी तरह समर्पित थे और उनके लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती थी।
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रमा की आंखों में आंसू छलक उठे। वह अपने पति की स्थिति को समझ रही थी, लेकिन उसका मन इस बंधन में बंधे-बंधे अब थक चुका था। उसे भी अपनी कुछ इच्छाएं पूरी करनी थीं, उसे भी जीवन के कुछ रंग देखने थे। उसने एक गहरी सांस ली और अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए चुप हो गई। कमरे में एक पल के लिए सन्नाटा छा गया।
तभी, दूसरे कमरे से अम्माजी आती हुई दिखीं। उन्होंने रमा और सुधाकर की बातें सुन ली थीं और वे उनके सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, “कभी तो रमा की भी सुन लिया करो, सुधाकर। जो गलतियां मैंने कीं, वो तुमलोग मत करना।” सुधाकर और रमा, दोनों चौंक कर अम्माजी को देखने लगे। अम्माजी का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था। वह हमेशा परिवार की जिम्मेदारियों को सबसे ऊपर रखती थीं और कभी भी अपने लिए कुछ मांगने का विचार उनके मन में नहीं आया था। लेकिन आज, उन्होंने अपने बेटे और बहू की आंखों में सपनों का इंतजार देखा था।
अम्माजी ने अपनी कहानी बताते हुए कहा, “तुम्हारे बाबूजी और मैं भी हमेशा सोचते रहे कि जब जीवन की जिम्मेदारियां पूरी होंगी, तब घूमने-फिरने जाएंगे, मौज करेंगे। लेकिन बाबूजी मुझे बीच मंझधार में ही छोड़कर चले गए। उनकी वह इच्छा अधूरी रह गई, और मैंने भी कभी अपने लिए कुछ नहीं सोचा।” यह कहते हुए अम्माजी की आंखों में एक उदासी झलक रही थी। वह चाहती थीं कि उनके बच्चे उनकी तरह न रहें। उन्होंने अपने आंचल में बंधा एक कंगन निकाला और रमा के हाथ पर रख दिया। उन्होंने कहा, “ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है। अपनी पसंदीदा जगह घूमने का प्रोग्राम बना लो। बच्चों की चिंता मत करना, मैं हूं ना।”
सुधाकर और रमा उनकी बात सुनकर एकदम से स्तब्ध हो गए। वे अपने स्थान पर खड़े रह गए, जैसे कुछ समझ नहीं पा रहे हों। एक तरफ जिम्मेदारियों का बोझ और दूसरी तरफ इच्छाओं की दबी हुई प्यास। एक पल को दोनों ने एक-दूसरे की आंखों में देखा और फिर धीरे से मुस्कुराए। रमा का मन खुशी से भर गया और उसने अम्माजी से कहा, “अम्माजी, कुछ बचत मैंने भी की है। हम सब परसों नैनीताल चलते हैं।”
अम्माजी हड़बड़ा गईं और बोलीं, “नहीं, तुम दोनों जाओ। बच्चों की देखभाल मैं कर लूंगी। मेरी उम्र अब घूमने-फिरने की नहीं रही।”
रमा ने मुस्कुराते हुए उनका हाथ थाम लिया और कहा, “नहीं अम्माजी, यह सपना आपका भी है। और हम सब मिलकर ही इसे पूरा करेंगे। हम सब जाएंगे, और आप हमारे साथ चलेंगी।”
सुधाकर जी ने भी हां में हां मिलाई और कहा, “मां, आप हमारे साथ चलेंगी तो यह यात्रा हमारे लिए और भी खास हो जाएगी। आपकी दुआओं के बिना तो हमें यह खुशी पूरी भी नहीं लगेगी।”
अम्माजी पहले तो थोड़ा झिझकीं, लेकिन फिर सहमति में सिर हिला दिया। यह पल उनके लिए भी खास था। उन्होंने अपने जीवन में कभी भी ऐसा दिन नहीं सोचा था कि जब उनके बच्चे उन्हें कहीं घुमाने ले जाएंगे। अगले दिन से यात्रा की तैयारियां शुरू हो गईं। रमा ने अपने और बच्चों के लिए कुछ गर्म कपड़े निकाले, वहीं सुधाकर ने गाड़ी की व्यवस्था की। उन्होंने बच्चों को भी बताया कि वे सभी नैनीताल घूमने जा रहे हैं, और यह सुनकर बच्चे भी खुशी से झूम उठे।
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जब यात्रा का दिन आया, तो सभी सुबह-सुबह तैयार हो गए। अम्माजी की आंखों में एक चमक थी, जो शायद वर्षों से कहीं दब गई थी। उन्होंने अपने पोते-पोती को साथ लेकर घर से बाहर कदम रखा। यह उनके जीवन का एक नया अध्याय था, एक अधूरा सपना, जो आज पूरा होने जा रहा था।
गाड़ी में बैठकर उन्होंने यात्रा का आनंद लिया। रास्ते में हंसी-मजाक और पुराने किस्सों का सिलसिला चला। अम्माजी ने अपने बाबूजी के साथ बिताए कुछ लम्हों को भी साझा किया, जो उनके लिए खास थे। रमा और सुधाकर को एहसास हुआ कि यह यात्रा न सिर्फ उन्हें खुशी दे रही है, बल्कि अम्माजी के मन की कुछ अनकही इच्छाओं को भी पूरा कर रही है।
नैनीताल पहुंचकर वे सभी झील के किनारे पहुंचे और वहां की सुंदरता में खो गए। रमा और सुधाकर ने झील में नाव चलाते हुए एक-दूसरे के साथ बिताए खास लम्हों को संजोया। अम्माजी भी उस सुंदरता को देखकर अपनी बीती यादों में खो गईं और उनका मन हल्का हो गया। वे बच्चों के साथ खिलखिलाकर हंस रही थीं और उस पल को जी भरकर जी रही थीं।
वापस घर लौटते वक्त सभी के चेहरों पर संतोष और खुशी की झलक थी। यह यात्रा उनके जीवन का सबसे यादगार अनुभव बन गई थी, जिसने उनकी दबी हुई इच्छाओं को पूरा कर दिया था।
इस यात्रा ने रमा और सुधाकर को एक नई ऊर्जा दी। वे समझ गए थे कि जीवन की जिम्मेदारियों के बीच, अपने लिए थोड़ा समय निकालना भी जरूरी है। अम्माजी भी संतुष्ट थीं कि उन्होंने अपने बच्चों को एक ऐसा सबक दिया, जिसे वे ताउम्र याद रखेंगे।
मौलिक रचना
नीरजा कृष्णा