आह ख़ाली नहीं जाती – करुणा मलिक   : Moral Stories in Hindi

देखो माँ जी , कहे देती हूँ कि अगर इसने मेरा कमरबंद नहीं दिया तो मैं अपने मायके वालों को बुलाऊँगी, फिर मत कहना कि उन्हें बीच में लाने की क्या ज़रूरत थी? 

अब तू ही बता बहू , मैंने तेरे सामने ही कितनी बार कहा है सुशीला से कि सोने का कमरबंद सरला का है और सोने की हँसुली उसकी …..

सारे फ़साद की जड़ तो आप ही हो ना माँ जी ….. क्यों….. आपने मेरा कमरबंद सुशीला को चढ़ाया ….. आपने क्या सबको सरला जैसी समझा है ? 

सबर कर …. मैं देवराज से बात करूँगी । अरे ! घर- परिवार में तो ऐसे ही एक- दूसरे की चीज़ चढ़ा ही देते हैं … दोनों परिवारों की इज़्ज़त का मामला होता है पर इसका ये मतलब तो नहीं कि ….

मैं कुछ ना जानती माँ जी , इससे तो पहले ही आई  मैं इस घर में …. और दोनों चीज़, पहले मुझे ही मिली थी पर मैंने तो कभी किसी चीज़ पे हक़ ना जताया । हमें तो यही सिखाया कि घर के बड़े जैसा कहेंगे वैसा करना ….

हाँ बेटा….. तभी तो पूरी रिश्तेदारी में तेरा उदाहरण दिया जाता है….. चिंता ना कर । अरे तब तो इस देवराज को ब्याह की इतनी जल्दी पड़ी थी कि मेरी कहीं हर बात को हाँ-हाँ कहता गया । 

मामला यह था कि दर्शना ने अपने छोटे बेटे देवराज की शादी में बड़ी बहू सरला को उपहार में दिए ज़ेवरों में से पुराने जमाने की  सोने की हँसुली और कमरबंद, छोटी बहू सुशीला को शादी के समय बरी में दे दिए । अब शादी के शुरुआती दिनों के बाद, जब सुशीला दूसरे शहर में नौकरी करने वाले पति के साथ जाने लगी तो उसने अपने सारे ज़ेवर भी अपने साथ रख लिए । ऐसा करते देख,, सास ने कहा——

बहू ! परदेश में सारे ज़ेवर ले जाने की क्या ज़रूरत है, दो-चार जोड़ी हल्के-फुल्के ले जाओ । बाक़ी लॉकर में रख देंगे ।

माँ जी, मुझे गहने पहनने का बहुत शौक़ है और अब नहीं पहनूँगी तो फिर कहाँ पहना जाता है?

ठीक है …जैसी तुम्हारी मर्ज़ी…. तेरे गहने हैं , तुम्हें ही ध्यान रखना है पर ….. बेटा ये कमरबंद मत लेकर जाना ….

क्यूँ….. कमरबंद और हँसुली ही तो एंटीक पीस हैं । बाक़ी चीज़ें तो सबके पास होती हैं । फिर माँ जी , मैं बच्ची थोड़े ही हूँ … अपनी चीजों का ध्यान रखूँगी……आप बेफ़िक्र रहे ।

अब ….. तुमसे क्या पर्दा ? दरअसल कमरबंद सरला का है और हँसुली तुम्हारी । बेटा ….. तुम्हें तो देवराज ने बता ही दिया होगा कि कारोबार में घाटे के चलते अभी शादी का इंतज़ाम नहीं था पर तुम्हारे पिताजी इसी महीने ब्याह करना चाहते थे तो ….

हाँ…. पर कमरबंद तो आपने बरी में उपहार के रूप में दिया है और यह तो पुराने जमाने का है अभी तो नहीं बनवाया……. बाक़ी एक ही सेट है ….

बहू …. मैं यह समझाना चाहती हूँ कि कई बार लोक- समाज को दिखाने के लिए एक आध चीज़ सभी बहुओं के लिए…….

ना माँ जी …. मैं अपनी चढ़ाई चीजों को नहीं दूँगी । ना देते ….. मैंने तो नहीं कहा था ।

इतना कहकर सुशीला तो अपने कमरे में चली गई पर सरला के कान खड़े हो गए क्योंकि जिस अंदाज में नई नवेली सुशीला ने सास के सामने चटर- पटर की थी उसे देखकर सरला मन ही मन डर गई कि ख़ालिस सोने का कमरबंद उसके हाथ से निकल गया और पहली बार उसने भी सास के सामने मुँह खोल दिया ।

दर्शना ने मौक़ा पाते ही देवराज से कहा-

देख देवराज! मेरे लिए दोनों बहुएँ एक जैसी है । और बुजुर्गों की दो चीजें ही तो मेरे पास थी । देवेंद्र के ब्याह के समय मैंने तुम दोनों के सामने कह दिया था कि अभी तो सरला की बरी में हँसुली और कमरबंद दोनों दे रही हूँ पर बाद में हँसुली छोटी बहू के पास रहेगी । कहा था या नहीं….. … अब सुशीला को समझाओ ।

माँ, उपहार में दी चीज़ वापस लोगी क्या ?

वाह बेटा …. उस दिन तो कह रहा था, माँ कौन पहनता है आजकल ज़ेवर ? एक दिन का दिखावा होता है…. भाभी के गहने चढ़ा दो …. कुछ नया बनवाने की ज़रूरत नहीं । शुक्र है कि मैंने उसका सेट नहीं चढ़ाया । 

देवराज और सुशीला का रुख़ देखकर सरला के पति देवेंद्र ने ही कहा—-

सरला ! मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ…. बात को मत बढ़ाओ । कारोबार को थोड़ा सँभल जाने दो …. ऐसे दो कमरबंद बनवा दूँगा । 

सास-ससुर और पति की लाचारी को देखकर सरला ने मन मार लिया पर उसने उस दिन के बाद न तो सुशीला से बात की और न ही देवराज से । बरसों बरस बीत गए । जब तक सास- ससुर  रहे …. सरला ने देवर-देवरानी के आने पर कोई रोक टोक नहीं की पर उन दोनों के देहांत के बाद साफ़ कह दिया——-

हमारा और तुम्हारा रिश्ता माँ जी और बाबूजी के कारण ही था। मैं नहीं चाहती कि ऐसे बेईमान लोगों की परछाई भी मेरे परिवार पर पड़े ।तुम अपने घर ख़ुश रहो और हम अपने । मकान और दुकान में हिस्से के पैसे तुम ले ही चुके हो……

इस तरह दोनों सगे भाई एक-दूसरे के लिए अजनबी बन गए ।

दोनों भाइयों के बच्चों को केवल इतना पता था कि किसी बड़ी लड़ाई के कारण परिवार में इतनी कड़वाहट आ गई है कि जो चाहकर भी नहीं मिट सकती ।यहाँ तक कि रिश्तेदार भी एक का ज़िक्र दूसरे भाई के सामने नहीं करते थे ।

 समय बीतता गया और देखते ही देखते बच्चे ब्याहने लायक़ हो गए । आज सरला की बेटी का विवाह था । खूब चहल-पहल थी बस  देवेंद्र को भाई की कमी खल रही थी । कैसा भी था , भाई था पर सरला को किस मुँह से कहे क्योंकि वक़्त ने तो उसे वादा पूरा करने का भी अवसर नहीं दिया था । बेचारा कई बार कहता—

माफ़ करना सरला , तुम्हारे लिए कमरबंद बनवा ही नहीं पाया ……शायद तुम्हारा क़र्ज़दार ही मर जाऊँगा ।

कैसी बात करते हो ….. मेरे नसीब का नहीं था, अगर होता तो मेरे पास रहता । 

बेटी विदा होकर चली गई । दूसरे दिन सभी कामों से निपटकर देवेंद्र कन्यादान की रक़म गिनने के इरादे से कई दिनों से सँभाल कर रखा हुआ बैग निकालकर लाया और सरला से बोला—

आओ , ये रूपये और दूसरे उपहार देख लेते हैं….. शाम तक रुचि आएगी तो उसका सामान उसे दे देंगे ।

कॉपी में लिखे रूपयों से मिलान करने के बाद सारे मिले उपहारों को देखा और कॉपी बंद करने के इरादे से जैसे ही उठाई कि एक नए पन्ने पर नज़र गई जहाँ पाजेब, अगूँठी और कमरबंद लिखा था । क….म…र..बं…द, किसने दिया ?दोनों के मन में अपने कमरबंद की याद ताज़ा हो गई । देने वाले का नाम लिखा था— शैलेशराज पुत्र देवराज ।

फटाफट बैग टटोला तो एक थैली में तीन मनमोहक गिफ़्ट पैक दिखाई दिए । सरला ने धड़कते दिल से जैसे ही पहली पैकिंग खोली तो मुँह खुला का खुला रह गया । 

ये तो मेरा कमरबंद है …. …. कैसे ?

देवेंद्र ने तुरंत कन्यादान की ज़िम्मेदारी सँभालने वाले अपनी बुआ के बेटे को फ़ोन मिलाया —

भाई साहब, क्या आप थोड़ी देर के लिए यहाँ आ सकते हैं ?

उसके बाद फुफेरे भाई ने बताया कि देवराज का बेटा इसी शहर में नौकरी करता है और वही कन्यादान में कमरबंद देकर गया है। देवेंद्र और सरला को हैरान और परेशान देखकर भाई साहब ने कहा—-

मैं अभी फ़ोन करके शैलेश को बुलाता हूँ…. उसी से बात कर लेना।

आधे घंटे बाद ही शैलेश आया । एकदम देवराज का हमशक्ल , देवेंद्र का दिल किया कि उसे गले लगा ले पर सरला की तरफ़ देखकर खुद पर क़ाबू किया । आते ही शैलेश ने ताऊ-ताई के पैर छुए और फिर सकुचाते हुए बैठ गया ।

अगर तुम शादी में आए थे तो मिले क्यों नहीं….. और कन्यादान में यह कमरबंद , क्या तुम्हारे माता-पिता ने भिजवाया है?

पर शैलेश के कुछ बोलने से पहले ही भाई साहब बोले—-

सरला ! जब यह बारहवीं कक्षा में था , देवराज रंगे हाथों रिश्वत लेते पकड़ा गया था । करीब एक साल जेल में पड़ा रहा , सुशीला के भाई ने भी मुसीबत में साथ नहीं दिया । उन्हीं दिनों सुशीला ने मुझे फ़ोन किया और सहायता की प्रार्थना की, उन दोनों पर मुझे भी ग़ुस्सा था

पर तुम्हारी बुआ यानि मेरी माँ ने अपने भतीजे की सहायता करने की गुहार लगाई तो मैं मना न कर सका ….. …. शैलेश की फ़ीस तक के पैसे नहीं थे उनके पास …. बस जैसे-तैसे देवराज बाहर आया पर दो महीने के भीतर ही लकवे का शिकार होकर उसने हमेशा के लिए खाट पकड़ ली । लोगों के हाथ पैर जोड़कर और देवराज की शारीरिक दशा को मद्देनज़र रखते हुए सुशीला को गुज़ारे लायक़ नौकरी मिल गई। 

और आपने मुझे कभी …….

नहीं देवेंद्र, कई बार कोशिश की तुम्हें बताने की पर तुम्हारे मन में इतनी कड़वाहट भरी थी कि तुमने  इस घर में देवराज का नाम लेने से भी ……

अब कैसा है मेरा भाई? सरला……

 हाँ…. उस समय मन कड़वा था , ग़ुस्सा था , जीवन के अनुभव की कमी थी पर अब तो वे सब बातें , मैं भूल चुकी हूँ । अरे, ज़मीन- जायदाद, रूपये-गहने ….. क्या अपनों से बढ़कर होते हैं? चलिए,  शैलेश के साथ चलते हैं ।

उसी समय शैलेश तीनों के साथ अपने घर पहुँचता है । घर की बिखरी हालत उनके जीवन की दशा को बख़ूबी बयां कर रही थी । बिस्तर पर पड़े देवराज की आँखों से बहते आँसू मन के पश्चाताप की निशानी थे और जेठ-जेठानी के सामने सुशीला के जुड़े हाथ , इस बात को समझाने के लिए काफ़ी थे कि —-

किसी की आह कभी ख़ाली नहीं जाती ।

उसी समय सरला ने पति से कहा—-

सुनिए, किसी एंबुलेंस का इंतज़ाम कीजिए । हमारे रहते हुए ना तो सुशीला मजबूरी में घर चलाने के लिए नौकरी करेगी और ना देवराज अकेला पड़ा रहेगा । भगवान ने जो दिया है, आराम से गुज़ारा हो जाएगा । शैलेश बेटा ! ज़रूरी सामान बाँधने में माँ की मदद करो । बाक़ी सामान बाद में अपने भाई या ताऊ के साथ आकर बाद में ले जाना । 

भाभी ….. क्या आपने मुझे इतना होने पर भी माफ़ कर दिया ?

चुप कर …. बहुत अपनी चला ली , मैं माँ जी नहीं हूँ कि तुम्हें मनमानी करने दूँगी । मैं बड़ी हूँ और बड़ी ही रहूँगी…. 

सरला ने सुशीला को गले लगाकर  बरसों की कड़वाहट को मिटा दिया । 

 # कड़वाहट 

करुणा मलिक

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