विश्वास – पुष्पा पाण्डेय

बीरा के इंतजार में कुसुम अभी तक स्नान-पूजा भी नहीं कर पायी थी। रोज सात बजे तक बीरा आ जाती थी। दस बज चुके। वैसे भी दो दिन से कुसुम सिर दर्द  से परेशान थी। इंतजार करते-करते जुठे बर्तन भी धूल चुके। अब झाडू उठाने ही वाली थी कि दरवाजे की घंटी बजी।

” अरे बीरा! आज तो बहुत देर हो गयी?”

कहती हुई दरवाजा खोलते ही बीरा का चेहरा देख चौक गयी। पूरा चेहरा सूजा हुआ था।आँखें लाल-लाल फूली हुई रात भर जगे रहने की गवाही दे रही थी।

” क्या हुआ बीरा?”

इतना पूछना था कि बीरा की आँखों से आँसू टपकने लगे।

“कुछ बताओगी भी?”

“क्या बताऊँ दीदी, बेटी के लिये एक  झुमका बना कर रखी थी। उसे उसका बाप हम को बताए बिना भाई के लिये लड़की देखने गया था , उसे दे दिया।”

एक साँस में बीरा ने सबकुछ कह डाला। वो बार-बार यही कहती जा रही थी कि हमें बताया भी नहीं। यदि बीरा कल त्योहार पर  उसके घर नहीं जाती तो उसे पता भी नहीं चलता। आँसुओं को पोंछती हुई बाकी काम करने रसोई घर में चली गयी, लेकिन  कुसुम वहीं जड़वत खड़ी रही। ……

उसका भी तो भरोसा टूटा था। उसके साथ भी विश्वासघात हुआ था। इन चालीस सालों में कई बार टूट कर बिखरी और फिर अपने को समेटती रही। कभी परिवार के लिए,  कभी समाज के लिए,  कभी बच्चों के लिए तो कभी घर की शान्ति के लिए। पूरी जिन्दगी का सिंहावलोकन करने पर भी वह समझ नहीं पायी कि कहाँ चूक हुई। चालीस सालों में भी पति का हमराज न बन सकी,

फिर भी उसे इतना विश्वास था कि पति कभी मुझसे झूठ नहीं बोल सकते। यही विश्वास  उसकी ताकत थी। मनमानी कर सकते हैं, परिवार को पत्नी से आगे रख सकते हैं। परिवार में कौन पत्नी को कितना सम्मान देता है, इससे कोई लेना-देना नहीं। जिन्दगी में कभी ऐसी घटना भी घट सकती है, सोचा न था। जाते-जाते पति का भांजा कह गया-


” हस्ताक्षर करना जरूरी था, नहीं तो अभी आने का बिल्कुल  समय नहीं था।”

हस्ताक्षर??

और उसी से पता चला कि पति अपनी जायदाद का वारिस बेटियों के साथ भांजा को भी बनाया, क्यों कि मरने पर बेटा का फर्ज निभायेगा।

कुसुम इस बात से काफी आहत हुई। जिन्दगी बेमानी लगने लगी। जैसे वह सबकुछ हार कर कंगाल हो चुकी हो। पति से पूछने पर यही सुनने को मिला-

” तुम्हें कौन-सा खाने को नहीं मिलेगा? तुम्हारे पास तो सबकुछ है ही।छीनकर थोड़े दिया हूँ।”

वह निरूत्तर हो गयी।

सोचने लगी-

कैसा उन्मुक्त जीवन था। तितली की भाँति मन उड़ता रहता था। दो भाईयों के बीच एकलौती बेटी थी। यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही रंगीन सपने आने लगे थे और आते भी क्यो न? जो भी रिश्तेदार , परिचित देखता ,माँ से यही कहता-


‘तुम्हारी बेटी तो रूप, गुण दोनों से सम्पन्न है। बहुत प्यार पायेगी अपने पति का।’ इसी विश्वास  के साथ ससुराल आई और कुछ ही दिनों में आसमान से सीधे जमीन पर  पर आ गिरी। पति अभी शादी करना नहीं चाहते थे। माता-पिता की जिद्द के सामने झुकना पड़ा, तो  क्या इसमें कसूर मेरा था? खैर थोड़े दिन में सबकुछ सामान्य हो गया।

दो बच्चों की माँ बनी, लेकिन कहीं-न-कहीं दूरी महसूस होती रही। सिर्फ जरूरत भर ही बातें होती थी। सोच लिया शायद कम बोलने की आदत है और लग गयी बच्चों की परवरिश में। पता नहीं कब कैसे मन में यह विश्वास बैठ गया था कि चाहे जो हो जाए पति मुझसे झूठ नहीं बोलेंगे। यही एक विश्वास गौरवान्वित करने के लिए काफी था।

चालीस साल बाद विश्वास टूटा तो निष्प्राण सी हो गयी। इतने दिनों में भी पति के जीवन में अपनी जगह न बना सकी? तो क्या पूरी जिन्दगी एक शरणार्थी बन कर यहाँ रही? अब नहीं, अब एक नयी जिन्दगी की शुरूआत करनी होगी। एक ही छत के नीचे आत्मसम्मान के साथ जीना होगा।

सालों पहले ही मेरे खालीपन को देखकर बेटी ने कहा था-

“मम्मी, तुम इतनी अच्छी सिलाई-बुनाई करती हो, क्यों नहीं एक बुटीक खोल लेती? तुम्हारा समय अच्छे और साकारात्मक सोच में व्यतीत होगा।”

अनायास अंगुलियाँ बेटी का नम्बर मिलाने लगी।

” कैसी हो बेटा?”

अरे माँ, मैं सोच ही रही थी फोन करने को।”

“अच्छा ये बता बेटा, क्या मैं अब बुटीक खोल सकती हूँ?”

“क्यों नहीं माँ? लेकिन आज अचानक?”

“हाँ, जभी जागो, तभी सबेरा।”

“अरे वाह माँ,क्या बात है?”

“अभी रखती हूँ बेटा, बाद में बात करूँगी।”

शुरुआत कैसे हो, इसकी योजना बनने लगी। क्यों न बीरा की बस्ती से इच्छुक लड़कियों को बुला कर पहले सिखाने का काम शुरू किया जाए।

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