दो दिन से पत्नी के साथ घर की सफाई करा रहा हूं. इधर उधर जहां देखो कूड़ा ही कूड़ा. दो बड़े बैग भरकर कल फेंके. दो आज भर गए.सारा का सारा पिछले साल खुद ही खरीदा था और दीवाली निबटते ही फिर कूड़ा खरीदना चालू हो जाएगा. सही बात है कि कूड़ा हम खुद ही खरीद कर घर लाते हैं, कोई फेंक कर तो जाता नहीं.
कल से लगातार सुन रहा हूं. प्रभा बोले जा रही. इसे भी फेंक दो.इसका भी कोई काम नहीं. इसका अब क्या करना है. फेंको ! फेंको! मां के पलंग के पास से गुजरा.उसको देख कर मन ने कहा, यह भी कूड़ा हो गई. ना खुद हिल सकती है. ना खा सकती है. इसका भी अब कोई काम नहीं. मैंने सिर को झटका दिया. कैसे इतना घटिया ख्याल दिमाग में आया. किंतु ख्याल तो ख्याल है. उसे आप हटा नहीं सकते. जितना हटाने की कोशिश करता हूं ,उतना ही ख्याल जोर से चिल्लाता है – यह भी कूड़ा है. इसका भी अब क्या काम है.
चार साल का था, जब पिताजी का देहांत हुआ. दिन में मुझे स्कूल में भर्ती करा कर आए थे. अगले दिन फीस जमा करने को बोला था. रात को मर गए.फीस हमेशा मां ने ही जमा की. दो चाचा और एक ताऊ के परिवार उसी मकान में रहते थे. मां और मैं उन्हें चुभने लगे. उन्होंने हमें घर से चले जाने को कहा .मां नहीं गई. थोड़े दिन बाद ही झगड़ा शुरू हो गया.मां अकेली उनसे लड़ती थी. मैं बहुत छोटा था. मां के घुटने से भी छोटा. पूरे झगड़े के दौरान मैं जोर-जोर से रोता रहता था. कभी धक्का खाकर गिर भी जाता था. मां तब मुझे उठा कर छाती से चिपका लेती थी. तब हम दोनों साथ-साथ रोते थे. मां उन्हें खूब बद्दुआएं देती थी, जिनमें से एक भी मैंने कामयाब होते नहीं देखी. वे खूब पनपते गए. बाद में हम ने वह मकान छोड़ दिया.
मेरी मां ने बहुत मजबूरियों में और बहुत मेहनत कर मेरी परवरिश की. वह दुनिया की सबसे मजबूत औरत है. मैं और प्रभा उसका बहुत सम्मान करते हैं. उसका इतना कमजोर होकर बिस्तर पर लेटे रहना, मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. उम्र अच्छे-अच्छे पहलवान को ढहा ही देती है.
प्रभा ने मुझे चाय का कप पकड़ाया. मां को सहारा देकर बिठाया. चाय पिलाने लगी .तब मां बोली – मेरी सारी जिम्मेदारी निबट गई हैं. न खुद हिल सकती हूं. ना खा सकती हूं. अब तो भगवान उठा ले. ऐसे कूड़े की तरह क्या पड़े रहना!
यह मां ने कैसे बोल दिया! मैंने चाय का कप नीचे रखा. मां को गले लगाया …और फूट-फूट कर रो पड़ा.