चेहरे पर गंभीरता की चादर ताने अक्षर अक्सर कालेज में अकेला हीं रहा करता था।
उसके दो चार गिने चुने दोस्त थे जिनके सामने वो जी भर कर हंसा करता था।
और उनसे हीं अपनी भावनाएं सांझा किया करता।
अंतर्मुखी स्वभाव के कारण वो नये लोगों के सामने कम हीं घुल-मिल पाता था।
लड़कियों के सामने तो जैसे उसकी घीघी बंध जाती..
वो चाहकर भी उनसे कुछ नहीं बोल पाता था…
वैसे कालेज में सारी लड़कियां उसे खडू़स कहा करती थीं…
पर शायद उन्हें पता नहीं था कि अक्षर चेहरे से भले हीं खडू़स था मगर उसके दिल में लड़कियों के लिए खूब मान-सम्मान था।
कालेज की एक लड़की मंजुषा मन हीं मन अक्षर को चाहती थी…
एक दिन मौका देख उसने एक चिठ्ठी में मन की बात लिख कर अक्षर को पकड़ा दिया…
शर्म और लाज के कारण वो अक्षर से मन की बात नहीं कह पाई।
अगले दिन पूरे कालेज में अक्षर को ढूंढा उसने मगर वो नहीं मिला…
उसके बाद वो कभी कालेज नहीं आया…
मंजूषा के लिए असह्य हो रहा था अक्षर का इस तरह से मुंह मोड़ना …
मगर प्रतीक्षा के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं था।
बरसों बाद आलमारी की सफाई में उसकी पत्नी स्नेहा को जब वो बंद लिफाफा मिला तो वो उसका राज पूछने लगी -कौन है मंजूषा???
किसने दिया आपको ये लिफाफा??
और आपने इसे खोल कर पढ़ा क्यों नहीं???
ये एक लंबी कहानी है स्नेहा…
वो लड़की मुझे बेहद चाहती थी मगर मैं उसका बेरोजगार प्रेमी बन कर उसके जज्बातों से नहीं खेलना चाहता था।
मैं अपने अभावों के झंझावातों में उसके प्रेम की कश्ती नहीं डुबाना चाहता था।
कभी-कभी किसी से मुंह मोड़ना हीं उस इंसान के लिए हमारी सच्ची मोहब्बत होती है,इसलिए मैं उसे छोड़ कर चला गया…
स्नेहा!! मेरे रंग में रंगने वाली वो पहली लड़की थी और तुम आखिरी लड़की हो…
अब उस प्रेम का कोई अर्थ नहीं जिसे मैं छोड़ कर बहुत आगे निकल आया हूं…
स्नेहा के मन में अपने पति के लिए अथाह प्रेम और सम्मान उमड़ पड़ा…
डोली पाठक
पटना बिहार