स्नेह का बंधन – सीमा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

मेरा बेटा संकल्प घर आकर बहुत खुश है। दादी और मम्मी-पापा के दुलार की अनुभूति अलग ही होती है। पर पुणे और गुड़गांव के मौसम में अंतर के कारण, गुड़गांव आने पर जनवरी की सर्दी उसे जकड़ लेती है। उसे लगातार छींकें आने लगती हैं। मां जी (संकल्प की दादी) उसे काढ़ा बनाकर पिलाती हैं। तो मैं प्रीति दीदी के अचूक नुस्खे को याद करती हुई सरसों के तेल में लहसुन काटकर पकाती हूं और गर्म तेल से मालिश करने के लिए उसके पास जाती हूं।

संकल्प की मालिश करते हुए मैं उसे बताती हूं कि इस तेल के साथ मेरी कॉलेज की यादें जुड़ी हैं। उन दिनों हॉस्टल में प्रीति दीदी ही मेरी सब कुछ होती थीं। मुझे जरा सी सर्दी लगते ही गर्म-गर्म लहसुन वाले तेल से मेरी हथेलियों और तलवों में ऐसे प्यार से मालिश करती थीं कि बिना किसी दवा के अगली सुबह तक मैं बिल्कुल ठीक हो जाती थी। तुझ पर भी ये नुस्खा मैं तेरे बचपन से ही अपनाती आई हूं और यह हमेशा कारगर सिद्ध होता है।

मम्मा, कितना आदर करती हैं आप प्रीति आंटी का! संकल्प ने कहा तो संकल्प के साथ-साथ मेरे पति आकाश और मां जी ने भी प्रीति दीदी के बारे में विस्तार से बताने का आग्रह किया। मेरी पुरानी सुहानी यादें मुखर हो उठीं।

जब मैने एम ए करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तो मैं फरीदाबाद अपने मायके के घर से प्रतिदिन अप डाउन करने लगी। तीन चार महीने तक ऐसा किया लेकिन इसमें इतना समय लगता कि घर आकर पढ़ाई न कर पाती। इसलिए मैने छात्रावास में रहने का निर्णय लिया। लेकिन तब तक एम ए के विद्यार्थियों के लिए निर्धारित हॉस्टल में कोई स्थान खाली नहीं बचा था।

वार्डन ने मुझे बताया कि पीएचडी स्कॉलर्स के हॉस्टल मे तुम्हें स्थान मिल सकता है पर यदि तुम स्वयं किसी स्कॉलर को मना सको तो। छात्रावास के नियमों के अनुसार हम किसी रिसर्च स्कॉलर को रूम मेट रखने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। मैंने बहुतों से अनुरोध किया पर सबने मना कर दिया। जब मैने प्रीति दीदी का दरवाजा खटखटाया तो उन्होंने भी यह कह कर मना कर दिया कि एक सप्ताह बाद से उनकी एक सहपाठी रिनी उनके साथ रहेगी।

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मैंने दीदी से एक सप्ताह के लिए जगह देने की विनती की। वे इस शर्त पर मान गई कि सात दिन के अंदर मैं कोई दूसरा इंतजाम कर लूं। मेरा कोई और अरेंजमेंट तो हो नहीं पाया पर मैंने निर्धारित दिन अपना सामान समेटना शुरू कर दिया।

प्रीति दीदी को एक झटका सा लगा। दीदी ने अपनी आँखों में आंसू भरकर मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, “मीतू, किससे पूछ कर सामान इकट्ठा कर रही हो तुम? इतने प्यार से दीदी-दीदी कह, अपने स्नेह के बंधन में बांध कर, मुझे छोड़कर कैसे जा सकती हो तुम? रिनी अपना इंतजाम कहीं और कर लेगी। मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दूंगी। मेरी छोटी बहन बनकर चुपचाप यहीं रहो।” फिर खींचकर मुझे अपने गले से लगा लिया।

स्नेह का ये बंधन दिन-प्रतिदिन प्रगाढ़ होता गया। घर से दूर मां सी बड़ी बहन मिल गई थी मुझे। मेरी थोड़ी सी भी तकलीफ बर्दाश्त नहीं होती थी उनसे। मेरे जरा सा भी बीमार होने पर अपने हाथ से सब्जियों वाली खिचड़ी बनाकर खिलाती थी मुझे, दीदी। उनके प्रति मेरा आदर भाव भी रोज-रोज बढ़ता गया। पूरे हॉस्टल में हम बहनों की जोड़ी प्रसिद्ध हो गई थी।

अत्यंत मेधावी और बहुमुखी प्रतिभा की धनी, दीदी से बहुत कुछ सीखा मैने। सभी महत्वपूर्ण विषयों और कई भाषाओं पर ज़बरदस्त पकड़ थी उनकी। उनकी रूम मेट होना मेरे लिए सौभाग्य की बात थी। मेरी हर उपलब्धि पर वे बहुत खुश होती और मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती। वे मेरे लिए सच्ची प्रेरक बन गई। काश! अपने बेटे की उपलब्धि की खबर भी मैं उन्हें सुना पाती।

मीतू, तुम चाय बहुत अच्छी बनाती हो। ऐसा कहकर मुझसे चाय बहुत बार बनवाती थी दीदी। बस एक यही काम करवाती थी वे मुझसे। बाकी सब अपने जिम्मे ले रखा था उन्होंने। मैं उनसे मजाक में कहती, “दीदी, आप इस भूल में मत रहना कि आपकी झूठी तारीफ़ से खुश होकर मैं बार बार आपको चाय बनाकर देती रहूंगी। इससे आपको एसिडिटी होती है।” और फिर हम दोनों खिलखिलाकर हंसने लगते। 

पढ़ाई पूरी होने पर बिछुड़ने का समय आया। एक दूसरे के गले लगकर बहुत रोए हम दोनों। काश तब फोन की सुविधा होती। शुरु में एक दूसरे को चिट्ठी लिखी हमने। फिर हमारी शादियां हो गई। नौकरियों के चलते कई बार शहर और घर बदले और हमारे पास एक दूसरे के एड्रेस भी नहीं रहे। सोशल मीडिया पर सब सखियां मिल गईं मुझे, दीदी को छोड़कर। पर मैं जानती हूं कि जितना दीदी को मैं याद करती हूं, उतना ही याद करती होंगी वे भी मुझे।

इतना कहकर भावों के अतिरेक ने मेरी बोलती बंद कर दी और मेरी आँखें नम हो गई। मां जी, आकाश और संकल्प भी भावुक हो उठे। तीनों का कहना था कि स्नेह के बंधन की डोर बहुत मजबूत होती है। एक दिन प्रभु कृपा से तुम अपनी दीदी से अवश्य मिलोगी।

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मेरी एक ही संतान है, मेरा बेटा संकल्प। वह पुणे के प्रतिष्ठित संस्थान में एम टेक अंतिम सेमेस्टर का विद्यार्थी है। कैंपस सिलेक्शन में उसे गुड़गांव की एक बड़ी कंपनी ने बहुत अच्छे पैकेज पर चुन लिया है। वह इंटर्नशिप भी गुड़गांव से करने वाला है। केवल छुट्टियों में घर आने वाला बेटा अब हमारे साथ गुड़गांव में ही रहेगा, इससे बड़ी खुशी हमारे लिए और क्या हो सकती है! उसी की मौजूदगी से तो ये सर्व सुविधा युक्त मकान घर लगता है।

खैर, संकल्प के आ जाने से दिन हंसी खुशी से बीतने लगे। पता  ही नहीं चला कि कब उसकी इंटर्नशिप भी पूरी हो गई। बस अब अंतिम औपचारिकताएं पूरी करने जाना था संकल्प को पुणे। दो महीने बाद एम टेक की डिग्री मिलने वाली थी उसे। वह चाहता था कि उसकी कन्वोकेशन में हम सब उपस्थित रहें। इसलिए हम तीनों की अभी से रिजर्वेशन करा दी उसने। 

संकल्प ने अपने मन की बात साझा की, “मम्मा, जब हम घर से दूर रहते हैं और भगवान हमें किसी ऐसे इंसान से मिलवा दें जिससे हमारा रक्त संबंध न होते हुए भी वो अपना लगने लगे, तो इसे ईश्वर की विशेष कृपा ही माना जाएगा। अभिनव मेरा ऐसा ही दोस्त है। मेरा कोई भाई बहन नहीं था। लेकिन अब उसके रूप में मुझे भाई मिल गया है। उसके साथ मेरा बंधन वैसा ही विकसित हो गया है जैसे आपका प्रीति आंटी के साथ।”

“एक तो अभिनव का घर पुणे में ही है। दूसरे, उसके माता-पिता भी बहुत अच्छे हैं।‌ अपना दूसरा बेटा ही मानते हैं मुझे। मेरे लिए खाने पीने का कितना कुछ भेजते रहते हैं। हर जरूरत में सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। जब आप लोग कन्वोकेशन में आएंगे तो मैं आप तीनों को अभिनव और उसके पेरेंट्स से मिलवाऊंगा।” संकल्प की बातों से जाहिर था कि उसे अभिनव के परिवार से अपनापन मिल रहा है।

मैं अभिनव से कभी मिली नहीं पर वह मेरे बेटे का बहुत अच्छा दोस्त है, ये तो मुझे संकल्प ने कई बार बताया था। पर अब  ये जानकर मुझे बहुत अच्छा लगा कि दोनों का स्नेह संबंध प्रगाढ़ हो चुका है। हम सब भी अभिनव से मिलने को उत्सुक हो उठे।

दो तीन दिन बाद संकल्प चला गया। कन्वोकेशन का समय आते भी देर नहीं लगी। पूरे उत्साह से हम तीनों भी वहां पहुंचे और बेटे के गर्व के पलों के साक्षी बने। समारोह के बाद अभिनव और उसके माता पिता से मिलने की हमारी आतुरता बढ़ने लगी। और वो पल भी आ गए जब दोनों परिवार एक दूसरे के आमने सामने खड़े थे।

अभिनव की मम्मी को देखते ही मुझे लगा जैसे इनसे तो मेरा पुराना नाता है। तभी वे भाव विभोर होकर बोल पड़ी, “मेरी मीतू, तुम! मेरी छोटी बहन! कहां गुम हो गई थी? कितना ढूंढा मैंने तुम्हें? अपनी दीदी की याद नहीं आई तुम्हें?”

अवरूद्ध गले से, अस्फुट स्वर में, “प्रीति दीदी, ईश्वर ने मेरी सुन ली! कितना तड़पी हूं आपकी याद में मैं!” कहते हुए मैं उनके गले लग गई। दोनों और अश्रु धारा फुट पड़ी थी। इस अद्भुत मिलन को परिभाषित करने की आवश्यकता ही नहीं थी। सब लोग स्वयं ही समझ चुके थे। कोई दिन था ही नहीं जब स्नेह के बंधन से जुड़ी दोनों बहनों ने अपने-अपने घर में एक दूसरे का नाम न लिया हो। 

भगवान जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है। ऐसा यूं ही तो नहीं कहा गया है। दोनों और सभी बहुत खुश थे। मीतू और प्रीति की स्थिति तो ऐसी थी कि उन्हें अब इस जीवन में कुछ और नहीं चाहिए था। दिलों के मिलन में वर्षों की दूरी स्वाहा हो गई थी।

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दोनों ने ही ईश्वर को धन्यवाद देते हुए अपने बच्चों पर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी, “हमारे बच्चों, तुम्हें इस दुनिया की हर ख़ुशी मिले। प्रतिदिन उन्नति के नए आयाम स्थापित करो। ईश्वर ने तुम दोनों को हमारे मिलन का जरिया बनाने के लिए ही भाई भाई के रिश्ते में बंधने को प्रेरित किया।”

सभी अभिनव के घर की ओर चल पड़े। घर पहुंच कर प्रीति ने सबके सामने पूरे अधिकार से मीतू से कहा, “मीतू, चलो मेरे साथ किचन में और मेरे लिए एक कप चाय बनाओ, तीन दशक होने को आए, तुम्हारे हाथ की चाय के लिए तरसते हुए। 

बाकी सब के लिए चाय मैं बनाती हूं।”

एक साथ चाय नाश्ता करते हुए सब खुशी से सब झूम उठे।

मां जी ने तो लोक गीतों से समा बांध दिया। रक्त संबंध से परे दो बहनों के स्नेह का बंधन इस तरह पल्लवित होगा, जो‌‌ दो परिवारों को पवित्र स्नेह की डोर में बांध देगा, किसी ने नहीं सोचा था। सब ईश्वर के समक्ष नतमस्तक थे।

है सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)

साप्ताहिक विषय: #स्नेह का बंधन

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