पैसे का गुरूर – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय : Moral Stories in Hindi

अभी अपनी बेटी के हाथ पीले किए हुए दो महीने भी नहीं बीते थे कि सुधाकर जी की नौकरी पर आंच आ गई थी।

आर्थिक मंदी ने सुधाकर जी की नौकरी में भूचाल ला दिया था ।

जो बड़े सैलरी वाले थे उन पर तो कोई खतरा नहीं था मगर जो मध्यम आमदनी वाले थे उनकी नौकरी पर गाज गिर गई थी और गाज गिरने वालों पर सुधाकर जी का भी नाम था।

नौकरी से निकाले जाने की खबर सुनकर उनके पांव के नीचे से जमीन खिसक गई थी ।

उच्च रक्तचाप  के मरीज सुधाकर जी यह सुनकर बहुत ही ज्यादा घबरा गए थे क्योंकि अभी ही उनकी बिटिया का ब्याह हुआ था और उन्होंने दिल खोलकर लेनदेन के साथ बिटिया का ब्याह किया था।

दहेज के अधिकतर सामान, होटल, हलवाई शामियाने  सभी के खर्च किस्तों पर जा रहे थे और उसपर बेटे ध्रुव के इंजीनियरिंग की पढ़ाई का अंतिम साल चल रहा था।

इस समय नौकरी से रिसेशन ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा था।

किसी तरह से वह घर पहुंचे और अपनी पत्नी माला के सामने बिलख उठे।

“हम कहीं के भी नहीं रहे माला! अब कहां जाएंगे? ध्रुव के भी पढ़ाई बची हुई है और सुधा और उसके ससुराल वाले क्या कहेंगे? कैसे उधार चुकाएंगे हम!”

“आप चिंता मत कीजिए सब ठीक हो जाएगा!” मन ही मन डरते हुए ऊपर से मुस्कुराते हुए उनकी पत्नी ने उससे कहा लेकिन आने वाले भविष्य की आहट उन्हें भी डरा दिया था।

जब नौकरी ही नहीं रहेगी तो इतने सारे लोन, सब की पेमेंट कैसे करेंगे? सबको धीरे-धीरे किस्तों में बकाया दिया जा रहा था।

 उन्होंने सुधाकर जी को पानी ला कर दिया और चाय भी बना कर ले आई 

“सुनिए ना जी, आप सुधांशु भैया से बात कीजिए ना वह तो हमारी मदद कर सकते हैं।”

“हां, वही मैं भी सोच रहा था।”सुधाकर जी ने ठंडी सांस भरकर कहा।

सुधांशु सुधाकर जी का चचेरा भाई था जो एक बड़ा बिजनेस मैन बन चुका था।

उसके माता-पिता दोनों की एक सड़क दुघर्टना में मृत्यु हो गई थी तब सुधाकर जी के माता-पिता ने ही उन्हें पाला पोसा और पढ़ाया लिखाया था। जब कहीं भी नौकरी नहीं लगी तो सुधाकर जी के पिता जी ने एक दुकान खोलकर उसे दे दिया।

काफी दिनों तक सुधांशु जी की हालत बहुत खराब थी। सुधाकर जी ही उनकी मदद किया करते थे। उनके दोनों बच्चों की पढ़ाई लिखाई और अन्य जरूरतें लेकिन इधर कुछ सालों से उनका बिजनेस चल निकला था और वह एक बड़े दुकानदार बन गए थे।

यह भी सच था कि समय के बदलते ही सुधांशु जी का व्यवहार बिल्कुल बदल गया था। उनके भीतर पैसे का गुरूर आ चुका था।

यह बात सुधाकर जी भी समझते थे और उनसे दूर ही रहते थे मगर इस समय उनकी मजबूरी थी।

इस महीने तो सैलरी मिल गई थी लेकिन अगले महीने से!यह सोचकर ही सुधाकर जी के पसीने छूट रहे थे।

डरते हुए सुधाकर जी ने उन्हें फोन किया तो सुधांशु जी ने मदद करने से साफ इंकार कर दिया।

उल्टा उन्हें डांट फटकार लगाने लगे।

सुधाकर जी आहत होकर बोले

“भैया मैं उधार में पैसा मांग रहा हूं। जैसे ही मैं ठीक हो जाऊंगा सारी कर्जों के साथ आपका भी कर्जा उतार दूंगा।”

“सुधाकर तुम्हारे पास कहने को तो एक नौकरी है और वह भी अब छूटने की कगार पर आ गई है। फिर तुम मेरे पैसे किस तरह उतारोगे?”

“भैया, बस एक दो महीना मुझे संभाल लो। मैं अपने आप को संभाल लूंगा। कोई और नौकरी पकड़ लूंगा या तो कोई कोचिंग सेंटर या कहीं भी काम कर लूंगा।”

“देखो सुधाकर, यह सब बेकार की बातें मत करो ।तुम्हें सोच समझ कर खर्च करना था ।अगर तुम्हारी हैसियत नहीं थी ध्रुव को पढ़ाने की तो इतने बड़े कॉलेज में पढ़ाने का क्या मतलब है और सुधा की शादी में इतना बढ़ चढ़कर खर्च करने का क्या मतलब था ?तुम दोनों पति-पत्नी को दिखावा करने की आदत है ।

इतना दिखावा ठीक नहीं। अब किए हो तो उसका फल  भुगतो।”

“हां भैया दोनों बच्चे मेरे हैं तो मैं अपने बच्चों पर अपनी खुशी नहीं बांटूंगा तो और किस पर बांटूंगा और रही बात ईश्वर की मर्जी जैसे रख ले मगर इतना घमंड ठीक नहीं ।

पैसे का गुरुर आदमी को डूबा देता है‌। आपको भी पता है लक्ष्मी चंचल है एक जगह टिकती नहीं!” सुधाकर जी झल्ला गए।

“तो तुम मुझे श्राप दे रहे हो?”सुधांशु जी गुर्रा कर बोले।

“नहीं भैया श्राप नहीं दे रहा हूं ।मैंने कोई गलती की तो मुझे माफ कर देना।”सुधाकर जी बड़ी मायूसी से फोन रख दिया।

उनकी चिंता उनके दोनों बच्चों से अछूती  नहीं थी।

 ध्रुव अभी इंजीनियरिंग कॉलेज के अंतिम साल में था। कुछ ही दिनों में कैंपस होने वाला था।

सुधा भी एमबीए कर चुकी थी और नौकरी की तलाश में थी ।सुधाकर जी को एक अच्छा लड़का मिल गया था इसलिए  उन्होंने उसकी झटपट उसकी शादी करवा दिया था।

कुछ ही दिन बीते थे। सुधाकर जी ने एक कोचिंग सेंटर ज्वाइन कर लिया। 

सुधा को भी अपने पति के ही ऑफिस में नौकरी मिल गई थी।

वह भागती हुई मायके आई और बोली 

“पापा आप बेकार का चिंता कर रहे हैं मैं हूं ना, अपने दहेज के सारे किस्तें मैं वसूलूंगी।

देखिए मेरी नौकरी लग गई।”

“इस आर्थिक मंदी ने मुझे नौकरी निकाला कर दिया और तुम्हारी नौकरी लग गई!” सुधाकर जी मुस्कुरा उठे।

जहां चाह वहां राह !उन्होंने लैपटॉप में बैठकर कई जगह नौकरी का आवेदन दिया था।

उधर ध्रुव पार्ट टाइम बच्चों को पढ़कर अपना फीस निकाल लिया कर रहा था। जिसके कारण कॉलेज में उसका नाम भी हो रहा था।

धीरे-धीरे जिंदगी पटरी में लौटने लगी थी ।

देखते ही देखते छह महीने बीत गए ध्रुव का चयन एक बड़ी कंपनी में अच्छी तनख्वाह पर हो गई।

और आश्चर्यजनक यह रहा कि सुधाकर जी की कंपनी ने उन्हें फिर से बुला लिया। अब सबकुछ सही हो गया था।

अचानक ही उड़ती हुई खबर आई कि सुधांशु जी  अस्पताल में भर्ती हैं।

यह खबर सुनते ही सुधाकर जी घबरा उठे।

वह आनन-फानन में गांव पहुंचे तो पता चला कि सुधांशु जी का बेटा शराब का अवैध व्यापार करता था। पुलिस ने छापेमारी कर  सबकुछ जब्त कर लिया।

अब वह अस्पताल में थे और  उनका  बेटा जेल में ।

“भैया ये आपने क्या किया?”

“ मुझे माफ कर दो सुधाकर,पैसे ने मुझे अंधा कर दिया था । मैंने किस तरह तुम्हारा मजाक उड़ाया था सुधाकर, अब मैं सड़क पर आ गया हूं। अब जीने का न मुंह रह गया है और न ही इच्छा।

मेरे मरने के बाद अपनी भाभी और पूरन, जीवन (बेटे)को देख लेना।“उन्होने अपने दोनों हाथ जोड़ लिया। 

“नहीं भैया आप मुझसे माफ़ी मत मांगिए।

मैं कुछ करता हूं बस आप जल्दी ठीक हो जाइए।”सुधाकर जी ने कहा तो सुधांशु जी की आंखें छलछला आईं।

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प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय 

# पैसे का गुरूर 

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना बेटियां के साप्ताहिक विषय #पैसे का गुरूर के लिए।

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