जीवन में गरीबी के कारण बहुत संघर्ष झेले उसने पर कठिन परिस्थितियों से निजात पा ही लिया । एक सप्ताह बाद शादी को पाँच साल होने वाले थे । पर घर में कोई उत्साह ही नहीं था । उसका नाम था मनोरमा । जहाँ जिस कोने में जाती हर किसी के दिल में एक अमिट छाप छोड़ देती थी पर अपने घरवालों के दिल में ही जगह नहीं बना पा रही थी । यूँ तो संघर्ष बहुत झेला उसने, अपनी बहनों को ट्यूशन पढ़ा के फीस भरी और घरों में खाना बनाकर पैसे कमाए पर झेलते – झेलते वो काफी मजबूत बन चुकी थी ।
मायके से वो बहुत साधारण से घर -परिवार की थी । पिताजी उनके खेतिहर किसान थे जो गाँव के जमींदार मनसुख जी के गाँव मे घर और खेती बाड़ी की देख -रेख करते थे । मनसुख जी का ज्यादा समय बिजनेस की भाग दौड़ में बीतता था । मनसुख जी की पत्नी रोग से ग्रसित होकर चल बसीं और मनसुख जी की ज़िंदगी में तीन छोटे बच्चे एक बेटा और दो बेटी छोड़ गई । बेटा बारहवीं में और जुड़वा बेटियाँ दसवीं में थे । बच्चों के लालन – पालन के लिए मनोरमा जैसी दयालु और कोमल दिल की महिला हो ही नहीं सकती थी ।
मनसुख जी की माँ ने बेटे को मनोरमा के साथ ब्याह दिया । मनोरमा के कदम जिस दिन से पड़े उसने घर को अच्छी तरह सम्भाल लिया पर एक महीने बाद ही मनसुख जी के अनाज गोदाम में आग लग गयी । पड़ोसियों से यही सुनने मिला..”लड़की के पैर अच्छे नहीं हैं । मनोरमा सुनती सब कुछ, अपने विरुद्ध बातें, अपमान और ताने पर मुँह को सिल के रहती थी । क्योंकि माँ की बात उसने गाँठ बाँध ली थी…”तेरे अंदर एक कमी है मनोरमा ! गरीब हैं हम, चाह के भी तुझे ऐसे घर नहीं ब्याह सकते थे । जी को ललचाना नहीं और मुँह ज्यादा चलाना नहीं । बहुत किस्मत वालों को ऐसा घर नसीब होता है ।
इस अनूठे किस्मत को लेकर वह अंदर ही अंदर घुट रही थी । मनसुख जी तो उसे बहुत प्यार करते और सम्मान देते पर उनके तीनों बच्चे मनोरमा को बहुत परेशान करते थे । एक बात नहीं सुनते और दादी को शिकायत करते कि नई माँ खाना नहीं देती है । रिचा और तृषा दोनों बेटियाँ माँ के पर्स से पैसे छिपा लेती थीं और पापा को शिकायत कर देती थीं…”माँ जरूरत के लिए पैसे नहीं देती धीरे – धीरे स्कूल से बच्चे कॉलेज में आ गए ।
ये सब खुराफात अभी भी जारी था । रिचा और तृषा अपनी सहेलियों के लिए खूब सारा पकवान बना कर ले जाती थी और सहेलियों को खिलाकर घर में दुबारा खाना बनाने के लिए शोर मचाती थीं । खाना उन्हें सिर्फ मनोरमा के हाथों का भाता था । फुर्सत पाकर कभी मनोरमा अपने बेटे निर्भय और बेटियों के पास पूछती थी…”क्यों तुम सब मुझे परेशान करते हो, तुम्हारे लिए सब कुछ करती हूँ पर तुमलोग मुझे कभी नहीं समझते । निर्भय ने कहा…”तुमने मेरी माँ की जगह ली है, तुम्हें खुश रहने का अधिकार नहीं है ।
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अथाह आँसू लिए आँखों में मनोरमा ने कहा…”तुमलोग मेरे बगैर बिल्कुल अकेले हो जाते, इसलिए तुम्हारे पापा ने मुझे लाया है । तुमलोगों से दिल का रिश्ता है, तुम्हारी दुश्मन नहीं हूँ । मनसुख जी बिजनेस के काम के लिए ज्यादातर बाहर ही रहते थे । वो मनोरमा के दुःख और मनोरमा द्वारा दिए गए
बच्चों के सुख को देख ही नहीं पाते थे । मनोरमा तो कोई शिकवा शिकायत नहीं करती थी लेकिन बच्चे जो कहते वो उन्हें सुनना पड़ता था नहीं मानते हुए भी पर वो बच्चों को ही सिखाते थे..”नई माँ की उम्र भी तुमलोगों जैसी ही है, गुस्सा भी करे तो तुम्हारे भले के लिए ही करेगी । लेकिन बढ़ते बच्चों को जो सामने दिखा कि उनकी माँ की जगह किसी ने ली है तो वो उस अनुसार नाराज़गी दिखाने लगे ।
यूँ तो घर के सारे काम बाई किया करती थी पर तीनों बच्चों के कमरों को व्यवस्थित रखना मनोरमा के ही जिम्मे था । यहाँ तक कि मनोरमा अगर दो दिन के लिए मायके जाती तो खाना तैयार कर के जाती थी और रोटियाँ बूढ़ी दादी सेंक देती थीं । कभी दिन भर में आ जाती या कभी बड़ी मुश्किल से एक दो दिन रुकती, फिर दादी आने के लिए परेशान कर देती थी ।
कुछ दिन बाद मनोरमा की छोटी बहन की शादी थी । मनसुख जी साथ में उसको गाँव जाकर छोड़ आए । सात दिन की कह के गयी थी । मनसुख जी ने लेने आने को कहा तो पता चला मनोरमा को टाइफाइड हो गया था, बहुत कमजोरी थी उसका उठना मुश्किल हो गया था । दिन भर मनसुख जी चिंतित रहे तो बूढ़ी दादी ने कहा…”मनोरमा को लिवाने का समय आ गया है बेटा, जा किस सोच में डूबा है ?मनसुख जी ने कहा…”बहुत असमंजस में हूँ माँ ! बीमार है मनोरमा, बिस्तर से उठ नहीं पा रही, कैसे जाऊं ?
तीनों भाई – बहन खुश हो रहे थे कि अच्छा है अब न ही आए मनोरमा । मनसुख जी ने कड़क आवाज़ में बच्चों को बुलाया और कहा…”तुम्हारी माँ बहुत बीमार है, चलो देख आएँ हम सब फिर जैसे हालात होंगे उन्हें ले आएँगे ।तृषा और रिचा चुपचाप खड़ी थीं ।
निर्भय ने भी बहुत रोबीले आवाज़ में कहा…”नहीं पापा ! मुझे नहीं जरूरत है , आपको जाना है जाइये, वो हमारी माँ नहीं है । मनसुख जी ने कहा…”जिसने तुम्हें जन्म दिया वो तो भगवान के पास चली गयी, तुमने उसे देखा भी नहीं । पर जीवन दान तो तुम्हें इस माँ ने दिया है । मेरा इसमें कोई सुख – स्वार्थ नहीं बस तुमलोगों के सहारे के लिए ये शादी किया है । मुझसे पूछो मेरे दिल पर क्या बीती थी जब तुम्हारी माँ मुझे अकेला कर गयी । मैं मजबूत नहीं था, बच्चों को देखता या बूढ़ी माँ को? तो मैंने माँ की बात मानकर शादी कर लिया ।
हम अकेले बिता लेते समय पापा, आपने हमसे नहीं पूछा और मेरी माँ का कमरा, कपड़ा, आभूषण और यहाँ तक कि माँ का स्थान भी दे दिया । बिल्कुल गंवार सी दिखती है वो । “ये तुम नहीं #पैसे का गुरुर बोल रहा है । तुमलोगों को इतनी सुख सुविधा दी कि तुम्हारे तेवर इतने सख्त हो गए हैं । पढ़ी – लिखी को लेकर आता तो शायद आज तुमलोग इस हालात में नहीं होते । मनोरमा ने जरूरत से ज्यादा प्यार तुम्हें दे दिया इसलिए ये दिन मुझे देखना पड़ रहा है । #पैसे का गुरुर तुम्हारे सिर चढ़ कर बोल रहा है ।बच्चों के सवाल सुनकर परेशान थे मनसुख जी तभी मनोरमा के घर से फोन आया…”मनोरमा बहुत सीरियस है मनसुख बाबू ! फिर भी आपको एक बार देखना चाहती है ।
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“नहीं ! आखिरी बार नहीं । मत बोलिये ऐसा, मैं आ रहा हूँ । न जाने मनसुख जी के रोआंसे स्वर सुनकर रिचा और तृषा को क्या हुआ…”मनोरमा का ममत्व, सेवा और प्यार उनकी आँखों के आगे घूमने लगे । रिचा ने पापा का हाथ पकड़ते हुए कहा…”चलिए पापा ! रिचा और तृषा दोनों साथ मे चली गईं । वहाँ पहुँचकर देखा मनोरमा अस्पताल में बेहोश पड़ी थी । दुबलेपन से पहचान नहीं आ रही थी । रिचा तृषा का हृदय अंदर से विदीर्ण हो रहा था । आज पहली बार उसे माँ अपनी सी लग रही थी । ज़ोर ज़ोर से चीख कर दोनों बहनें रोने लगीं फिर डॉक्टर ने बाहर बुलाते हुए कहा..मरीज अभी बेहोशी की हालत में है और चिंता से ग्रसित है, कृप्या उनके सामने न रोएँ ।
पीछे से निर्भय भी खड़ा होकर सारी बातें सुन रहा था । डॉक्टर के जाने के बाद तीनों भाई – बहन एक दूसरे के गले लगकर रो रहे थे । अब अंदर पहुँचकर निर्भय ने कहा…”माँ ! तो ऐसा लगा मनोरमा के शरीर में जैसे जान आयी । बोलते हुए निर्भय के स्वर काँप रहे थे । तृषा और रिचा ने खुद को संभालते हुए मनोरमा की हथेली पर हाथ रखकर कहा..”ठीक हो जाओ माँ, तुम्हारी जरूरत है लौट आओ ।
एक – दो घण्टे के बाद मनोरमा को होश आया । ख़ुद के अंदर भी उसे परिवर्तन महसूस हो रहा था और शायद जीवन में भी । तीनों बच्चे और पति को एक साथ खुद के सामने पाकर उसके होंठो पर मुस्कान तैर गयी और आँखों से अश्रु बह रहे थे । मुस्कुराते हुए निर्भय ने कहा..”पाँचवीं सालगिरह अब बहुत धूमधाम से मनाएँगे माँ । जल्दी से इंतज़ार रहेगा आपके घर आने का ।
मनोरमा के चेहरे पर खोई हुई मुस्कान लौट आयी ।
मौलिक, स्वरचित
अर्चना सिंह
#पैसे का गुरुर