ढलती सांझ – सुभद्रा प्रसाद : Moral Stories in Hindi

” चाचाजी, कल जो अंकल यहाँ आये है ं ना, उन्होंने कल से कुछ भी नहीं खाया है | सुबह की चाय भी नहीं पी है और अब नाश्ता भी नहीं कर रहे हैं |” मालती ने रमाशंकर जी से कहा | 

        ” तुमने पूछा नहीं , क्यों नहीं खा रहे  हैं? ” रमाशंकर जी बोले |

       ” पूछा था, बहुत कहा भी, पर  कहते हैं कि मन नहीं है | ” मालती बोली |

         ” अच्छा चलो, मैं देखता हूँ | ” कहकर रमाशंकर जी मालती के साथ चल पड़े | 

          ” क्यों भाई, क्या बात है? नाश्ता क्यों नहीं कर रहे | मालती बता रही थी, आपने रात में खाना भी नहीं खाया था | ” रमाशंकर जी कंधे पर हाथ रखते हुए बोले | 

      ” मेरा मन नहीं है |” सुधीर बाबू बोले, जिनके कंधे पर रमाशंकर जी ने हाथ रखा था |

       ” भोजन मनुष्य की मौलिक आवश्यक्ता है | भोजन के बिना वह जिन्दा नहीं रह सकता है | इसलिए आप कुछ खा  लें |” 

     ” मैं जिन्दा हीं नहीं रहना चाहता हूँ | सुधीर बाबू गंभीर स्वर में बोले | 

        ” क्यों भला? ” 

        ” इसलिए कि मेरे पास जीने का कोई मकसद नहीं है | किसके लिए जिऊ ? मैं और मेरी पत्नी दोनों ने  बडे़ प्यार से अपने दोनों बेटों को पाला-पोसा, पढाया- लिखाया, योग्य बनाया | दोनों अच्छे पद पर काम करते हैं | पत्नी रही नहीं और दोनों बेटों में से कोई  मुझे अपने पास रखना नहीं चाहते  | मैंने अपने जीवन में नाम,

यश, पैसा सब कमाया| उन्होंने  पैसे, घर, जमीन, जायदाद सब ले लिया और अब यहाँ छोड़ गये | मेरा तो सबकुछ खत्म हो गया, तो अब जीकर क्या करूँगा |  मैं अकेला रह गया,  बहुत दुखी हूं | कुढ़- कुढ़कर जीने से अच्छा है कि मर   जाऊँ | ” सुधीर बाबू रोने लगे |

             रमाशंकर बाबू ने उन्हें थोड़ी देर रोने दिया, ताकि उनका मन थोड़ा हल्का हो जाये , फिर उनके बगल में बैठते हुए बोले – यह आप अकेले की समस्या नहीं है | यहाँ रह रहे सभी बुजुर्गों की यही समस्या है | सबकी लगभग यही कहानी है |  सभी ने बड़ी मेहनत और प्यार से अपने बच्चों को पाला, पढाया- लिखाया , सफलता तक पहुंचाया, पर बच्चों ने उन्हें यहाँ पहुंचा दिया | दूसरों की क्या बात करूँ, खुद मेरे साथ भी ऐसा हीं हुआ है | “

            ” आपके साथ भी ” सुधीर बाबू  थोड़ा अचरज से पूछा |

            ” हां, मेरे साथ भी ” रमाशंकर बाबू गंभीर आवाज में बोले -” मैं सरकारी सेवा में एक पदाधिकारी के पदपर कार्यरत था | पत्नी सुशीला नाम के अनुरूप ही बहुत सरल और सुशील थी | हम दोनों ने बहुत ही प्यार – दुलार से अपनी इकलौती संतान अपने बेटे का पालन किया | हर सुख- सुविधा, प्रदान किया | उसकी इच्छानुसार उसे  पढ़ने के लिए विदेश भेजा | वह वापस आया तो उसकी इच्छानुसार उसकी पसंद की लडकी से धूमधाम से शादी कर दी | सोचा अब बेटे – बहू, पोता- पोती के साथ आराम से बुढापा बितायेंगे,

पर वह फिर नौकरी करने विदेश चला गया | हमारे सारे अरमान धरे रह गये |  बेटा, बहू, पोता, पोती के साथ अपना बुढापा  बिताने का  सुशीला का सपना, सपना ही रह गया , वह उन्हें देखने को भी तरसती रहती| साल में एक बार वे आते और फिर वापस चले जाते | वे दिन हमारे लिए त्यौहार की तरह होते | एकबार वह दो वर्ष से नहीं आया| उसकी माँ उनलोगों को देखने, उनसे मिलने की आस लिये ही चली गईं | वे लोग आये और उसके क्रियाकर्म खत्म होने के बाद चले गये | ” इतना कहकर रमाशंकर बाबू थोड़ा रूके |

         ” वे लोग आपको साथ नहीं ले गये |” सुधीर बाबू ने पूछा |

         ” वे लोग तो ले जाना चाह रहे थे, पर मैं नहीं गया |”

           ” क्यों भला? “

            ” क्योंकि वे लोग हमारा यह घर बेचकर चलने को कह रहे थे | मैंने घर बेचने से इंकार कर दिया और कहा कि यूँ ही चलता  हूँ | बीच – बीच में यहाँ आता रहूँगा | इस घर में  तुम्हारी, सुशीला की बहुत सी यादें हैं, सामान है | घर बेचने के बारे में मेरी मृत्यु के बाद सोचना | बस इतना सुनते ही बेटा – बहू दोनों गुस्सा गये | बेटे ने तो यहाँ तक कह दिया कि जीवन की इस ढलती सांझ में भी आपको अपने बेटे से ज्यादा घर से प्यार है | आखिर घर तो आप साथ लेकर नहीं जायेगें | यह घर तो बिकेगा ही |

अगर अभी बिक जायेगा तो वह अपना घर खरीद सकेगा  | मैंने कहा भी कि मेरे बाद तो यह घर उसीका होगा, पर उनमें इतना धैर्य नहीं था कि वे मेरे मरने तक इंतजार कर सकें | उन्हें तो अभी  हीं चाहिए था | बस इसी बात पर वे लोग नाराज होकर चले गये | कह गये, रहिये अपने घर के साथ | हमें अब आपसे कोई मतलब नहीं है | बस तभी से मै अपने इस घर में अकेले रहने लगा |  हाँ ये बात जरूर है कि इस घर में रहने पर सुशीला की याद, उसका अहसास सदा साथ रहता है | जीवन में घर का काम किया नहीं,खाना तो कभी बनाया नहीं था |

सुशीला की बहुत याद आती थी | बहुत अकेलापन महसूस होता था | दुखी और उदास रहता था |जीवन बेकार लगता था | तभी एकदिन मालती की माँ, जो मेरे घर काम करती थी, खाना बना देती थी,मालती के साथ आई और रोने  लगी | मालती के पति की सडक दुर्घटना में मृत्यु  हो गई थी | उसके ससुराल में कोई था नहीं | मैंने मालती , उसके बेटे और मां को अपने घर के एक कमरा रहने को दे दिया | वे लोग यहाँ रहने लगे | मेरे घर और मेरी देखभाल करने लगे | जीवन थोड़ा ठीक हुआ | तभी एक दिन मेरा एक दोस्त मदन बहुत परेशान फटेहाल हालत में मेरे पास आया |

उसके बेटे बहू ने बहला फुसलाकर सारा पैसा ले लिया, घर अपने नाम करवा लिया और फिर उसे किराये के एक कमरे में छोडकर चले गये | किराया न देने के कारण मकान मालिक उसे घर छोडने के लिए कहने लगा | वह मेरे पास आकर रोने लगा | दो दिन का भूखा था | मैंने उसे  नहाने को कहा, पहनने को अपने कपड़े दिये,भोजन करवाया | तबसे वह मेरे ही पास है | तभी मेरे मन में  एक विचार आया | ” इतना कहकर रमाशंकर बाबू थोडा रूके |

           ” कैसा विचार? ” सुधीर बाबू  बोले, जो बड़े ध्यान से उनकी कहानी सुन रहे थे | 

         ” यही अपने इस बडे से घर को वृद्धाश्रम में बदलने का | सोचा मै तो अकेला ही रहता हूँ | मन भी नहीं लगता | मदन के आने से  अच्छा लग रहा था, तो क्यों ना इतने बड़े घर में कुछ और असहाय वृद्धों को जगह दे दूं | घर का उपयोग भी हो जायेगा और कुछ लोगों का भला भी |

मुझे तो अपनी जरूरत के लिए पेंशन मिलता ही है | सूरज भी ढलने के पहले रौशनी बिखेर कर जाता है फिर मैं भी  जीवन की ढलती सांझ में किसी के लिए कुछ करके जाऊँ, तो मुझे भी आत्मसंतुष्टि होगी | बस मैंने प्रयास करके अपने घर  को वृद्धाश्रम  बना दिया और आज मेरा यह घर  ”  सुशीला वृद्धाश्रम “

बन गया |  घर और सारी जमापूंजी इसके नाम कर दी जो मेरी मृत्यु के बाद भी इस वृद्धाश्रम के नाम ही रहेगा | एक एक करके लोग आते गये | पहले जहाँ घर में सन्नाटा रहता था, मैं अकेले चुपचाप पडा रहता था, वहाँ अब चहल पहल है | लोग अपना दुख, अकेलापन भूल कर एक दूसरे से हंस बोल रहे हैं | शुरू – शुरू में सब अपने दुख से दुखित रहते हैं, पर धीरे – धीरे सब एक दूसरे से घुलमिल जाते हैं | यहाँ सब कार्य के लिए समय निश्चित है | ध्यान, योग, सैर, चाय, नाश्ता, खाना के साथ – साथ बिमार पडने पर दवा, चिकित्सा का भी प्रबंध है

| सबके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाता है, सुधार  हेतु प्रयास  किया जाता है | ” इतना कहकर रमाशंकर बाबू थोडा रूके और बोले – ” आप थोडा नाश्ता कर लें फिर आपको सबसे मिलवाता हूँ | सबसे मिलकर आपको अच्छा लगेगा | उनकी कहानी सुनकर आप अपना दुख भूल जायेंगे | दुनिया में अकेले आप हीं दुखी नही है ं | माना कि आपके साथ गलत हुआ है, पर आगे की जिंदगी उस दुख को याद कर करके अपने आप को हर समय दुखित करने से अच्छा है कि आप पुरानी बातों को भूलकर आगे बढे |

यहाँ सबसे मिलें, बात करें, सबसे अपना सुख दुख, अनुभव बाटें | अपने आप को खुश और स्वस्थ रखने का प्रयास करें | आप चाहे ं तो अपनी रूचि, शौक, अनुभव, शक्ति के अनुसार कुछ काम भी कर सकते हैं |  यह कोई आवश्यक नहीं है, बाध्यता नहीं है,  इच्छा हो तभी करें |  यहाँ जिस बात में जिसकी रूचि होती है,वे वही करते हैं | जैसे कि कोई,  बगल के झोपडपट्टी के बच्चों को निशुल्क पढाते है | जो वकील रह चुके हैं, वे  लोगों को निशुल्क कानूनी सहायता, सलाह देते हैं |  महिलायें, अन्य महिलाओं

को स्वास्थ्य, सफाई, संस्कार , सिलाई, कढाई इत्यादि सिखलाती है |  जिसकी इच्छा हो निशुल्क इन सेवाओं का लाभ उठा सकता है | कोई फूल पौधों की देखभाल करता है | जिससे जितना बनता है,सहयोग करते हैं | मनबहलाव के साथ – साथ ,समय कटता है और आत्मसंतुष्टि भी मिलती है | “

           सुधीर बाबू उनकी बातें बडे ध्यान से सुन रहे थे | उनकी बातें उन्हें अच्छी लग रही थी |  उन्हें कुछ राहत मिली |

          ” मतलब ये कि बुजुर्गों के जीवन की ढलती सांझ को आपका यह “वृद्धाश्रम “

आशा, प्रकाश, खुशी, संतुष्टि प्रदान कर रहा है | धन्य है ं आप | ” सुधीर बाबू का दुख और निराशा थोडा कम हो गया था | 

          ” यह सब सिर्फ मेरी मेहनत का ही परिणाम नहीं है | यहाँ रह रहे सभी लोगों और समाज के कुछ अन्य भले लोगों के सहयोग से ही यह संभव हो पाता है | जब कोई अपना दुख भूलकर हमारे साथ धुलमिल जाता है, हंसने बोलने लगता है तो हमें बहुत अच्छा लगता है |  आप भी हमारे इस परिवार का सदस्य बनकर जीवन की इस ढलती सांझ का आनंद लें | अपने जीवन से निराशा और उदासी को दूर करें, हमें अच्छा लगेगा |  हमारा सहयोग करें | ” रमाशंकर बाबू आत्मीयता से बोले |

           ” जरूर सहयोग करूँगा | आपने तो मुझे जीने की नई राह दिखाई है | ” सुधीर बाबू उनका हाथ पकडकर हंसने लगे |

          ” आपका स्वागत है | ” रमाशंकर बाबू ने हंसते हुए उन्हें गले लगा लिया |

            

# ढलती सांझ

स्वलिखित और अप्रकाशित

सुभद्रा प्रसाद

पलामू, झारखंड |

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