बस में बैठी विजया ने दोनों हाथों से खिड़की थाम ली है,
“बाहर कुछ भी तो नहीं बदला है, सब कुछ वैसा ही है, जैसा बार-बार मुझे स्मरण होता रहा है।”
साथ बैठे लड़के ने उसकी ऑंखों में दुनिया भर की अजीबोगरीब प्यास भरी हुई देख कर,
“क्या सोच रही हैं? आपके चेहरे पर दर्द की गहरी छाया आपको शक के घेरे में डाल देगी”
“कुछ… नहीं! बस यूॅं ही!
तुम जाओ, अपने दोस्तों के संग बैठो।”
“क्या हम दोस्त नहीं हैं? तुम मेरे साथ नहीं चल रही हो?”
विजया ने पहली बार उसे ध्यान से देखा,
देवता स्वरूप!
यह लड़का जिसने उसे यातनाओं के उस जंगल से निकाला है, की उम्र उससे छोटी है, फिर अब इसकी परेशानी और अधिक नहीं बढ़ा सकती यह सोचती हुई विजया ढृढ़ स्वर में,
तुझे… सब है पता… मेरी माँ ! – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा : Moral Stories in Hindi
“नहीं, हम दोस्त नहीं हैं, तुम मेरे रक्षक हो, मुझे अपना कार्ड दे दो, आवश्यकता पड़ी तब मैं स्वयं तुमसे सम्पर्क कर लूॅंगी”
लड़के को यकीन नहीं हुआ, उसकी ऑंखों में एक साथ सैंकड़ों प्रश्न देख कर, उसे फिर से आश्वस्त करते हुए,
“सच कह रही हूॅं, मेरे पास अब खोने को और बचा ही क्या है? बहुत रो चुकी हूॅं, अब और नहीं रोऊंगी” बोलती हुई विजया के चेहरे की हिचकिचाहट भांप कर लड़के ने जेब से एक लिफाफा जिसमें कुछ पैसे और उसका ऐड्रेस छपा हुआ कार्ड था,
निकाल कर उसकी बगल की सीट पर रख दी और वहाॅं से उठ कर अपने दोस्तों के साथ बैठ गया। लिफाफा सहेजती, विजया ने चलती हुई बस की खिड़की से बाहर जहाॅं सूरज आखिरी साॅंसे ले रहा था, को देख कर सोचा।
काश!
समय के ऑंचल से अपनी जिंदगी के इस टुकड़े को निकाल पाती।
“जिंदगी कितनी छोटी और विधना की चाल टेढ़ी है। फिर भी ना जाने क्यूॅं ?
सब विधाता की करनी है। यह सोच कर भी मैं कभी चुप बैठी नहीं रह पाई थी।”
पिता, सीमित आय में परिवार का खर्च वहन न कर पाने के कारण चिड़चिड़े हो गए थे। जबकि माॅं, महज एक बेटे की आस में तीन-तीन लड़कियों को जन्म दे कर दिन-रात अपने काले भाग्य का ठीकरा उन सब बहनों पर फोड़ा करतीं। उनके इस व्यवहार से कोफ्त होती हुई भी विजया पूरी तन्मयता से घर और बहनों को संभालती,
आस-पड़ोस की मदद से किसी तरह इंटर तक पहुॅंच गई थी।एक औसत मध्यमवर्गीय परिवार की तरह उसका परिवार भी बेटियों को बोझ एवं बेटों को कुल-तारक मानने वाली विचारधारा में विश्वास करता था। चूंकि वो तीन बहनों में सबसे बड़ी थी। इसलिए टूट जाने की हद तक अत्याचार उसे ही झेलने पड़े थे।
पुत्र प्राप्ति की दिली इच्छा किसी तरह से भी पूरी नहीं होने से उपजी निराशा से हताश हुई माॅं को यह लगने लगा था, कि उनकी हर समस्या का समाधान सिर्फ और सिर्फ गुरु महाराज की संशय निवारक लीलाओं के माध्यम से ही हो सकती है। एवं उनके मन में उपजे इस अंधविश्वास के कारण विजया को उनसे डर लगने के बावजूद भी वह अपनी तरफ बढ़ रहे उस ढोंगी बाबा के पंजे से खुद का बचाव नहीं कर पाई थी।
एक दिन माॅं ने उसे साथ लेकर गुरु जी महाराज के आश्रम में जाने का फैसला सुना दिया।
इसके बाद सब कुछ वैसा ही घटा जैसा माॅं ने सोच रखा था।
घर छूटते समय वह बहुत रोई, लेकिन किसी पर उसका असर नहीं हुआ।
वह कुछ समझ नहीं पा रही थी,
“उसका घर जैसा भी था, उसके लिए स्वर्ग से कम नहीं था, वही स्वर्ग समान घर बेगाना हो गया”
वह पूरे रास्ते गहरे विषाद से घिरी रही थी। लेकिन
माॅं के चेहरे पर विजय का उल्लास था। उन्हें यह भ्रम हो गया था कि,
“मुझे आश्रम में सेवा के लिए प्रस्तुत कर देने के प्रसाद स्वरूप उन्हें अपने निर्धारित लक्ष्य! अर्थात पुत्र रत्न की प्राप्ति अवश्य होगी।”
उनकी इस कदर पुत्र लालसा से हैरान विजया का मन घबड़ा रहा था। यह देखकर वो उसकी पीठ पर हाथ रख कर दुलराते हुए,
“डर मत, तुम बड़ी किस्मत वाली हो, गुरु जी महाराज ने तुम्हें सेवा के लिए चुना है, वो हम सबकी भली करेंगे”।
विजया खुद को हारी हुई महसूस करती, अचानक उनके हाथ झटक परे ढ़केलती सीधे-सीधे पूछ बैठी ,
“क्या यह ठीक है, माॅं?”
उसकी आंखों में आक्रोश और स्वर में विद्रोह का आभास पा कर वो विजया के हाथ पर दबाव बढ़ा कर दाॅंत पीसती हुईं,
“चुपचाप चली चलो, यहाॅं से वापसी किसी हाल में संभव नहीं”
फिर बेबसी से हाथ मलती विजया होठ सिले हुए जैसा- जैसा उसे करने को कहा गया, वैसा ही करती चली गई। वहाॅं दीक्षित करने के नाम पर उसे महाराज जी के चरणों का जल अमृत कह कर पीने को दिया गया। बहरहाल …उसे आश्रम में सौंप माॅं फिर से मिलने आने को कह कर वापस चली गई थीं।
“जहाॅं आस नहीं वहाॅं चाह कैसी?”
विजया ने उन्हें मन से पूरी तरह तज दिया।
फिर शुरू हुआ था उसके आश्रम में आने से लेकर निकल भागने के बीच चलने वाले संघर्षों की अनवरत यात्रा। वह टूटी नहीं बल्कि तमाम दुसह्य परिस्थितियों को चुनौती के रूप में स्वीकार कर उससे उपजी ‘थकान’ को कभी अपने उपर हावी नहीं होने दिया और ना ही कभी निरीह बनी।
यों ऊपरी तौर से देखने पर तो वह आश्रम में रमने लगी थी, पर भीतर से प्रतिक्षण सुलगती हुई वह किसी तरह वहाॅं से निकल भागने का उपाय सोचती रहती।
जब कोई पर्व और त्यौहार आता तब मन्दिर में दर्शनार्थियों की अपार भीड़ आ जुटती। उस वक्त मन्दिर में काम भी बहुत बढ़ जाते। उसे बेचैन देख कर वहाॅं पहले से रह रही वे अधेड़ उम्र की औरतें, जिन्हें विजया अपनी उद्दीप्त भावनाओं को संतुष्ट करने हेतु गुरु जी के चरण पकड़ कर बैठे हुए देख हैरत में डूबी विजया चीखना चाहती थी, उसे अपने अंदर कुछ जमता हुआ सा लगता।उसका मन अवसाद से भर जाता।
इसी बीच दशाहरा आ गया। जब कोई पर्व या त्योहार आता, मन्दिर में दर्शनार्थियों की भारी भीड़ जुटती उस समय सुरक्षा व्यवस्था थोड़ी ढ़ीली हो जाती। उन्हीं दिनों वहाॅं सुदूर प्रांत से एक व्यवसाईयों का दल मन्दिर दर्शन के लिए आया हुआ था। जिनमें से एक कोई तीसेक बर्षीय लड़का अपनी टोली में सबसे अलग था। उसे पूरे टाइम सेवादार औरतों के इर्द-गिर्द ही घूमते हुए पा कर विजया चुपके से उसके पास जा कर खड़ी हो गई थी। लड़के की दृष्टि उस पर पड़ते ही चमक उठी,
“क्या तुम भी उन जैसी … हो?”
विजया मौन तोड़ कर ,
“जैसे कि ?”
“तुम्हें भी अपनी खोई हुई अस्मिता प्राप्त नहीं कर सिर्फ और सिर्फ महाराज जी की सेवा और भक्ति में लीन रहना है।”
“नहीं, कतई नहीं!
मैं तुम्हें बताऊंगी, यहाॅं इस गुरु भक्ति का स्वरूप कितना भद्दा,विद्रूप और असहनीय है। जिसका भान तक बाहर वालों किसी को नहीं होता है। संध्या आरती के बाद लंगर वाली जगह पर मिलना”
इसके आगे, कि वह और कुछ पूछता, विजया ने अपनी पीठ फेर ली।
उस सारे दिन वह किसी तरह समय काटती, संध्या आरती के बाद प्रसाद वितरण के लिए जमा हुई भीड़ का फायदा उठाकर लंगर वाली जगह जा पहुॅंची। हजारों की भीड़ में किसी का ध्यान उस पर नहीं गया। मगर अचानक ना जाने किधर से आकर उस लड़के ने सीधे उसके हाथ पकड़ लिए, वह सिहर उठी … हाथ छुड़ाना चाहा,
“नहीं! पहले मुझे बताओ तुम्हारा मन नहीं करता यहाॅं से निकल कर अपने घर जाने का” सहमती विजया ऑंखें मूंद कर हठात बोल उठी,
“वापस घर ? उस जगह जिसने मुझे त्याग दिया नहीं, बिलकुल नहीं वह तो कब का छूट चुका है”
पीठ पर सांत्वना के हाथ रख कर लड़के ने सीधी नजरों से विजया की ओर देखा,
“देखिए, अभी हम यहाॅं से निकलने वाले हैं, हिम्मत है तो चलिए हमारे साथ ?”
उसकी आवाज में जादू था, विजया की देह अद्भुत कंपन से भर गयी। तेजी से बदल रहे घटना क्रम को महज संयोग जान, उसके अन्दर कोई भय नहीं उपजा। वह मन का सारा जोर लगा कर मोहविष्ट सी उसके पीछे खामोशी से चलती हुई चुपचाप बस में आ कर बैठ गई थी।
ऑंसू तो कब के सूख चुके थे। इस वक्त उसके भीतर भयंकर छटपटाहट भरी कोलाहल मची हुई है।
विजया नहीं जानती,
“उसकी इस हिम्मत के पीछे बाहरी दुनिया के प्रति उसकी घोर आसक्ति थी, या अपने जीवन से उपजी वितृष्णा?” फिलहाल तो वह जिंदा है, खुली हवा में सांस ले रही है, उसके लिए यही बहुत है।
बस तीव्र गति से उसे भगाती हुई, ऐसी अंतहीन यात्रा पर लिए जा रही है,
जिसके एक छोर पर काला विगत! दूसरे छोर पर संभावनाओं से भरा हुआ आगत!
कौन जाने? सक्रिय ज़िंदगी के लिए संघर्ष करते हुए अगले पड़ाव पर ऐसे ही कहीं मृत्यु अचानक आ कर उसे गले लगा ले,
या फिर ‘होनी’ अपने तरीके से उसकी परीक्षा लेने को आतुर उसका इंतजार कर रही हो ?
अब विजया के प्रारब्ध में जो भी लिखा हो, वह खुद को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करने में जुट गई है।
लेखिका : सीमा वर्मा