“छोटी, सब्ज़ी और सलाद वगैरह सब तैयार हैं। ऐसा करते हैं कि तुम चपातियां बना दो, मैं सबको परोस देती हूं।” स्मृति ने प्यार से अपनी देवरानी मनीषा से कहा।
“वाह भाभी, कितनी चालाक हैं आप! ताकि मैं रसोई में खड़ी रहूं और बाहर आप सबको भ्रमित कर सकें कि खाना आपने बनाया है।” मनीषा चिढ़ कर बोली।
और अगली बार जब स्मृति ने कहा, “छोटी, खाना मैं बना रही हूं। तुम सबको गर्म-गर्म परोस देना।” तब भी मनीषा को आपत्ति हुई, “ताकि रसोई पर आपका एकाधिकार हो। फिर धीरे-धीरे पूरे घर पर कब्जा करना चाहती हैं आप। भाभी, मैं रिश्ते में आपसे छोटी हूं, आपकी देवरानी हूं। लेकिन बुद्धि में आपसे बड़ी हूं। आपकी सारी मंशा बखूबी समझती हूं और मैं इसे सफल नहीं होने दूंगी।”
स्मृति सुनकर हैरान रह गई। फिर भी उसने विनम्रता से कहा, “ये सब क्या कह रही हो, छोटी। ऐसी बातें मेरे मन में ईश्वर कभी न लाए। तुम बिल्कुल मेरी छोटी बहन की तरह हो। सपने में भी मैं तुम्हारा बुरा नहीं सोच सकती। मैं तो तुम्हें प्यार में कह देती हूं ताकि तुम्हारे साथ समय बिता सकूं। सारा दिन तो घर से दूर ऑफिस में ही निकल जाता है।”
ये सब सुनकर तो मनीषा ऊंची आवाज में बोलने लगी, “ऑफिस! हां भाभी, इसी बात का तो घमंड है आपको कि आप पैसा कमाती हैं। मैं हाउसवाइफ हूं तो क्या! सुन लीजिए! आपका रौब मैं नहीं सहूंगी।”
स्मृति माफी मांगने के अंदाज में कुछ कहने ही वाली थी कि संतोष जी ने अपनी दोनों बहुओं को इशारे से अंदर कमरे में बुलाया और मनीषा से कहा, “स्मृति से कुछ सीखने की बजाय, तुम ये क्या अनाप-शनाप बोल रही हो? दीवारों के भी कान होते हैं, बेटा। और तुम इतना ऊंचा बोलकर पड़ोसियों को अपने ही घर की बेवजह खिल्ली उड़वाने के लिए मसाला दे रही हो…….।”
संतोष जी की बात पूरी होने से पहले ही मनीषा गुस्से में बोली, “बेवजह कैसे, मम्मी जी! ओह! मैं तो भूल ही गई थी कि आप तो कमाने वाली बहू का ही साथ देंगी!”
संतोष जी के चार बेटे हैं और इन सबसे छोटी एक बेटी है। उनका सबसे बड़ा बेटा गांव में अपने परिवार के साथ रहता है, जहां उनकी थोड़ी बहुत ज़मीन है। वह उसी पर खेती कर घर के खर्चे लायक कमा लेता है।
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उनके दूसरे नंबर के बेटे-बहू दूर महानगर में मल्टीनेशनल कंपनियों में कार्यरत हैं। उनकी बेटी स्वाति भी उन्हीं के पास रहकर MBA करने के बाद अभी-अभी नौकरी करने लगी है। वह स्वयं यहां अपने गांव के पास ही एक छोटे शहर में अपने दोनों छोटे बेटों के साथ रहती है।
तीसरे नंबर की बहू स्मृति और उसका पति भी बढ़िया नौकरी में हैं और सबसे छोटा, जो मनीषा का पति है, वह अभी छोटे पद पर है और उसका वेतन भी अभी कम है। इसलिए घर में कोई बड़े बजट वाला कार्य हो या कोई फंक्शन हो, बीच के दोनों बेटे-बहू ही सारा खर्च वहन करते हैं।
लेकिन परिवार में पूरी एकता है। “तेरे मेरे” का कोई भाव नहीं। पास-पड़ोस और समाज में संतोष जी का परिवार अपनी प्रतिष्ठा और एकजुटता के लिए जाना जाता है। उनका सभी पड़ोसियों और संबंधियों से अच्छा मेलजोल है। लोगों को इस बात का कोई भान नहीं है कि किस भाई की कितनी आमदनी है। कौन ज्यादा खर्च करता है और कौन कम।
संतोष जी ने अपने पूरे परिवार को सिखाया है कि सुख-दुख के पहले साथी पड़ोसी होते हैं। परिवार के लोगों को तो इधर-उधर से आने में समय लगता है। इसलिए पड़ोसियों से हमेशा मधुर संबंध रखने चाहिए। लेकिन घर की अंदरुनी बातें परिवार के सदस्यों के बीच रहनी चाहिएं। पड़ोसियों को तो क्या, घर की दीवारों को भी उनकी भनक नहीं लगनी चाहिए, क्योंकि दीवारों के भी कान होते हैं।
सारा परिवार उनकी बातों को समझता और मान देता है। लेकिन अलग परिवेश से आई उनकी सबसे छोटी बहू मनीषा अभी यह सब नहीं समझती और समझना भी नहीं चाहती। वह अपनी कामकाजी जेठानी स्मृति से द्वेषभाव रखती है और हीनभावना से ग्रस्त है। वह निर्दोष स्मृति को अपनी कुंठा की वजह से जब-तब जली-कटी सुनाने की आदी हो गई है।
इतना ही नहीं, अवसर मिलते ही मनीषा नासमझी में पड़ोसियों के सामने संतोष जी और स्मृति की बुराई करती है। उसे लगता है कि संतोष जी हमेशा स्मृति का ही पक्ष लेती हैं। पड़ोसी उसकी बातों को चटखारे ले-लेकर सुनते हैं, उससे अपनापन जताते हैं और उसकी अनुपस्थिति में उसका मजाक बनाते हैं।
धीरे-धीरे ये सब बातें संतोष जी तक भी पहुंचती हैं। उन्हें यह जानकर दुख होता है कि मनीषा उनके स्वस्थ परिवार का एक कमजोर अंग है। वह मनीषा की कुंठा दूर कर, अपनेपन से उसे समझाने की भरपूर कोशिश करती हैं। लेकिन मनीषा पर इसका असर कम ही होता है।
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उल्टा उसे आपत्ति होती है, “मम्मी, आप और स्मृति भाभी स्वयं तो पड़ोसियों से हंस-हंस कर बातें करते हो। उन्हें घर बुला कर चाय-नाश्ता करवाते हो। अभी पिछले हफ्ते ही भाभी शर्मा जी के बेटे को अपनी गाड़ी में अस्पताल लेकर गई थीं। आपको मुझे ही नियंत्रण में रखना है क्योंकि मैं कमाती नहीं हूं।”
संतोष जी उसे फिर समझाने का प्रयास करती हैं कि पड़ोसियों की सहायता तो करनी चाहिए। हमें भी उनसे काम पड़ता है। समाज एक-दूसरे के सहयोग से ही चलता है। लेकिन उनसे बातचीत करने में एहतियात बरतनी चाहिए। इससे अपना और अपने घर का मान-सम्मान बना रहता है।
लेकिन मनीषा को तो यही लगता है कि उस पर बंदिश लगाई जा रही है। संतोष जी को स्मृति आश्वस्त करती है, “मम्मी, हमें थोड़ा धैर्य रखना होगा। नए परिवेश में चीजें सीखने में समय लगता है। मनीषा जल्दी ही सब समझ जाएगी।”
मनीषा इस भ्रम में जी रही थी कि पड़ोसी उसे बहुत मान-सम्मान देते हैं। एक दिन पड़ोसिन शीतल जी के यहां अतिथि आने वाले थे। वह संतोष जी से सहायता के लिए स्मृति को भेजने का अनुरोध करती है। संतोष जी कहती हैं, “स्मृति अभी ऑफिस में है। इसलिए मैं मनीषा को भेज देती हूं।”
शीतल ने एकदम से मना कर दिया, “नहीं, संतोष! कोई बात नहीं। स्मृति होती तो ठीक था। वह समझदार है। लेकिन मनीषा नहीं। उसे नहीं पता कि किसके सामने क्या बात करनी है! अतिथियों के सामने ही कुछ कह दिया तो….।”
शीतल जी के लिए पानी लेकर आती हुई मनीषा यह सब सुन लेती है। पहली बार उसे अपनी मूर्खता का थोड़ा अहसास होता है। अब वह पड़ोसियों के प्रति कुछ-कुछ सचेत होने लगती है। हालांकि उसे अभी और समझने की आवश्यकता है।
कुछ महीनों बाद संतोष जी की बेटी स्वाति की शादी का अवसर आता है। सारा परिवार एक साथ यहीं संतोष जी के पास इकट्ठा हो जाता है। सभी रस्मों-रिवाजों को सब मिलकर खूब मस्ती से मनाते हैं। आपस में कोई दुराव-छिपाव नहीं। कोई ईर्ष्या-द्वेष नहीं।
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मनीषा सोच रही थी कि बाहर से आई बड़ी जेठानियों से संतोष जी और स्मृति के व्यवहार के बारे में बातचीत करेगी। पर उसे दो-तीन दिन में ही समझ आ गया, “सबकी आपसी समझ कितनी अच्छी है। किसी को भी स्मृति दीदी घमंडी नहीं लग रही। मम्मी जी को भी सभी मान दे रहे हैं। वास्तव में सब एक-दूसरे के लिए कितना कर रहे हैं! मुझे स्वयं की सोच में परिवर्तन लाना होगा।”
मनीषा सब अवलोकन कर रही है। हर रस्म पर पड़ोसियों को मन से शामिल किया जाता है। उनकी खूब आवभगत भी की जाती है और पूरे अधिकार से उनसे सहयोग भी लिया जाता है। संतोष जी के परिवार द्वारा किए गए शानदार आयोजन से सभी पड़ोसी अभिभूत हैं।
मनीषा ने ये भी नोटिस किया कि किसी भी पड़ोसी की परिवार के अन्य किसी भी सदस्य से आयोजन के खर्च और व्यवस्था से संबंधित कोई भेद लेने की या रहस्य जानने की हिम्मत नहीं है, सिवाय उसके। लेकिन इस बार वह चौकन्नी है और पूरी तरह समझ गई है कि पड़ोसियों और परिवार में क्या अंतर होता है।
स्वाति की शादी ठीक-ठाक होने के बाद जब परिवार के लोग एक साथ बैठे थे, तब उसने सबकी उपस्थिति में संतोष जी और स्मृति से अपनी नासमझी के लिए माफी मांगी।
उसने संतोष जी से कहा, “मम्मी, अब आपके कहने का सही अर्थ मैं समझ पाई हूं कि पड़ोसी और परिवार दोनों का अपना-अपना महत्व है। पड़ोसियों के साथ ही हमारे उत्सवों की रौनक बढ़ती है। अचानक आई किसी भी विपत्ति के पहले साथी पड़ोसी होते हैं। हमें उनसे सहयोग लेना और देना, दोनों आने चाहिए। लेकिन हमें अपने घर-परिवार की आंतरिक बातें केवल अपने तक रखनी चाहिए। पड़ोस और समाज में अपना और अपने घर का मान-सम्मान बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है।”
सभी घर की नई समझदार सदस्य को प्यार से निहारने लगे और संतोष जी गर्व से मनीषा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं, “बिल्कुल सही समझा है तुमने! पड़ोसियों और परिवार में यही तो अंतर होता है, बेटा!”
-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
प्रतियोगिता वाक्य: #पड़ोसियों और परिवार में यही तो अंतर होता है, बेटा!