दूसरी भूल – उमा महाजन : Moral Stories in Hindi

       ‘पापा! यह देखो आपके लाड़ले को आज स्कूल में ‘बैस्ट स्टूडेंट् आफ द ईयर’ का इनाम मिला है’ अनामिका ने चहकते हुए अपने पुत्र के साथ घर में प्रवेश किया था ।

         “जाओ समीर ! नानू को अपना इनाम दिखाओ और उनके पांव छू कर उनसे आशीर्वाद लो।” मि. शर्मा ने समीर को गले से लगा लिया था।आज उन्हें अनामिका और समीर के चेहरे पर एक अलग ही नूर दिखाई दिया ।            

         उन्हें लगा कि वे जीत गए हैं।    

        दो वर्ष की ही तो बात है ।अपनी शांत और गंभीर बेटी के मुंह से ये शब्द सुनते ही वे मूर्तिवत हो गए थे– “नहीं मां ! अब समझौते की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है, मेरी यह जद्दोजहद एक लंबे समय से चल रही है।

आप लोगों को दुखी नहीं करना चाहती थी। इसीलिए चुप रही,किंतु अब मुझउस घर में बिल्कुल नहीं रहा जाता ! आप लोग मेरी परेशानी क्यों नहीं समझते ? मेरे साथ-साथ नन्हा समीर भी सजा पा रहा है।”

      दरअसल अनामिका का विवाह हुए छ: साल हो गए थे। शुरू – शुरू में तो उसनेे अपनी व्यथा को किसी के साथ साझा ही नहीं किया था, बस हंसना-मुस्कुराना छोड़ दिया था।

अपने को बस बेटे समीर तक  उनके  द्वारा पूछने पर, ‘ पापा, आफिस में काम का बहुत प्रैशर है, समीर भी अब स्कूल जाने लगा है, उस पर काम वाली बाई के नखरे – बिन बताए छुट्टी कर लेती हैं ‘ कह कर टाल जाती थो।  इसमें पति के सहयोग-असहयोग का कहीं जिक्र तक न होता। अतः वे चिंतित रहने लगे थे ।              

        एक बार उन्होंने अपनी पत्नी से बेटी का मन टटोलने को कहा था और बेटी- दामाद के बीच बिखरते संबंधों को जान कर वे टूटने लगे थे।बेटी और नाती का दिन प्रतिदिन कुम्हलाते जाना उन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।       

       फिर एक दिन उनके प्यार से सहलाने, समझाने-बुझाने पर वह मानों फूट पड़ी थी,”पापा ! हमारे सामाजिक नियम अलग-अलग मानसिकता और अलग वैचारिक पृष्ठभूमि​ वाले दो व्यक्तियों को बरबस एक साथ रहने के लिए क्यों मजबूर करते हैं।

मैं और अनिल एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं।  क्या ऊंची शिक्षा और ऊंचा पद ही किसी की ‘योग्यता ‘ का सही मापदंड होता है ? नहीं पापा ! ‘मन और विचार ऊंची डिग्रियों के मोहताज नहीं होते​’ , इस बात को तो मैं भी अब समझ पाई हूं।’ उन्हें लगा था कि उनकी बेटी एक दम से बड़ी हो गई है।           

         “बेटा, लेकिन विवाह में पति-पत्नी ही नहीं अपितु दो ‘घरों की इज्जत’ जुड़ी होती’,उसकी मां ने स्थिति संभालनी चाही थी।      

     ” हां मां , ठीक कहा आपने ,लेकिन अगर पति-पत्नी ही मानसिक रुप से नहीं जुड़ेंगे तो दो घरों​ को कैसे जोड़ेंगे​ ? विवाह एक सामाजिक दायित्व है तो क्या आपकी अपनी पत्नी , आपकी अपनी संतान उस दायित्व का हिस्सा नहीं ? और वह फूट- फूटकर रो पड़ी थी।      

     उसने मि. शर्मा से विनती की थी, “पापा आपने मुझे आत्मकेंद्रित रहना नहीं सिखाया, फिर मैं कैसे अपनी उड़ान को सीमित करूं? एक बात और पापा,एडजस्टमेंट​ दोनों तरफ से अपेक्षित होनी चाहिए न ? सिर्फ ‘घर की इज्जत  के नाम पर किसी की हठधर्मिता का सामना कब तक किया जा सकता है ?

दरअसल यह मेरी अपनी व्यथा है, जिसे समाज कभी नहीं समझ पायेगा, मैं समाज को समझाना भी नहीं चाहती। हां, आपसे केवल इतनी विनती है कि यदि आप मुझे और समीर को प्रसन्न देखना चाहते हैं तो मेरा साथ दीजिए ।’      

      धीरे-धीरे मि. शर्मा को समीर का ‘सहमापन’ समझ आने लगा। वह यहां आते ही कैसे दौड़ कर उनकी गोद में दुबक जाता था । वे तो इसी भ्रम में गौरवान्वित होते रहे कि ‘अपने नानू से बहुत प्यार करता है।’ अनिल के व्यवहार की गुत्थियां भी अब एक-एक करके उनके सामने खुलने लगी    उसका।

वे भी अब उसका ‘चुनाव’  करने में हुई अपनी ‘महाभूल’ से आहत हो उठे‌ थे, किन्तु अपनी इस भूल को वे दोहराना नहीं चाहते थे। अतः उन्होंने उसी क्षण अनामिका को मुक्ति दिलाने का निर्णय ले लिया था और आज अपने नाती और बेटी की ‘चहक’ के रूप में की इसका परिणाम उनके सामने था।

      ‌ उन्होंने अपनी बेटी के सिर पर आशीष भरा हाथ रखते हुए समीर‌ का मुख चूम लिया। निकट खड़ी पत्नी के नेत्र भी अतिरिक्त वात्सल्य से छलछला उठे। 

        विशेष :   आज बेटियां अपनी बौद्धिक क्षमता के कारण अपना भला-बुरा सोचने की शक्ति रखती हैं, लेकिन अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट बेटियों को आज भी प्राय: ‘घर की इज्जत’ के नाम पर सामाजिक मर्यादाओं की दुहाई देकर सब कुछ सहन करने के लिए विवश किया जाता है। यह एक तरह से पुरुष प्रधान मानसिकता को बढ़ावा देना ही है। ऐसे असंतुष्ट वैवाहिक जीवन के भार को बरबस ढोना परिवार और फलस्वरूप समाज के लिए स्वस्थकर नहीं हो सकता है । 

        निस्संदेह विवाह एक पवित्र और स्वस्थ संस्था है लेकिन तभी तक जब तक पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति समर्पित हों।ऐसी संभावना न दिखने पर असंतुष्ट विवाहित बेटियों की आवाज पर ध्यान देना अपेक्षित है। ऐसी बेटियों के माता-पिता को सामाजिक बंधनों के भय से मुक्त हो कर, उन्हें जीवन का एक नया अध्याय शुरू करने की आजादी दिलाने के लिए ,साहस दिखाने में संकोच नहीं करना चाहिए।          

         यह कहानी हमारे मध्यम वर्ग में प्राय: दिखने वाली इस समस्या को प्रकट करती है। यही समय की मांग है।

 

     उमा महाजन    

     कपूरथला       

     पंजाब। 

#घर की इज्जत

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