‘वाऊ ममा ! यू आर सच अ कांफीडेंट स्पीकर ! हाउ डिड यू रिमैंबर सो मच टू स्पीक ? आय एम
सो प्राउड आप यू !’
नोटिफिकेशन की आवाज से जैसे ही उन्होंने अपना मोबाइल खोला तो हर्ष युक्त कई इमोजीजके साथ अपनी बेटी के उपर्युक्त व्हाट्स एप संदेश को पढ़ते ही उनके मुख पर भी स्वत: एक गर्वपूर्ण मुस्कान आ गई।
दरअसल आज अपने नगर में हुए एक विशाल सांस्कृतिक कार्यक्रम में वे भी एक वक्ता थीं और उन्होंने मंच पर अभिव्यक्त करते हुए अपने विचारों की वीडियो विदेश में रह रही अपनी बेटी के साथ साझा की थी । ये सराहना उसकी ही प्रतिक्रिया मात्र थी, किंतु ‘हाउ डिड यू रिमैंबर सो मच टू स्पीक’ शब्द तुरंत उन्हें सुदूर अतीत में ले गये…
कितना भव्य आयोजन था उस दिन ! नगर के उस प्रतिष्ठित विद्यालय में अंतर्विद्यालय भाषण प्रतियोगिता का आयोजन स्थल अनेक विद्यालयों की छात्राओं की चहल-पहल से भरा हुआ था। अपने-अपने विद्यालय की वेशभूषाओं में सजी-धजी छात्राएं कहीं अपने हाथों में पकड़ी भाषण की विषयवस्तु का रट्टा लगाती दिख रही थीं और कहीं दो छात्राएं एक-दूसरे को ही श्रोता बनाकर भाषण देने का अभ्यास कर रही थीं। कुछ अत्यंत आत्मविश्वास से भरपूर अपनी ही मस्ती में गपशप में मशगूल थीं तो कुछ अपने संग आई अध्यापिकाओं की संगति में खड़ी रहकर उनसे मार्गदर्शन ले रही थीं।
और अपने इलाके के छोटे सरकारी स्कूल से आईं वे, नौवीं कक्षा की औसत कद की छात्रा के रूप में चकित हिरणी सी इधर-उधर नजरें घुमाते हुए सब कुछ देख रही थीं। अपने स्कूल में यद्यपि वे समस्त सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेते हुए उनमें विजेताओं की श्रेणी में रहने के कारण एक ‘आलराउंडर छात्रा’ के नाम से प्रसिद्ध थीं और संभवतः इसीलिए अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करने के लिए इस प्रतियोगिता के लिए उनका चुनाव किया गया था,
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किंतु स्कूल से बाहर और वह भी नगर के इतने बड़े और प्रतिष्ठित स्कूल में आने का उनका यह पहला अवसर था। उन्होंने तो इतने विशाल आडिटोरियम में अत्यंत विशाल मंच भी पहली बार देखा था, जिसपर चढ़ने और उतरने के लिए भी दो तरफ से अलग अलग सीढियां थीं। मंच पर एक नहीं तीन माइकों की व्यवस्था की गई थी। एक तरफ से प्रतियोगियों के नाम पुकारे जा रहे थे, तो दूसरी तरफ के माइक पर प्रतियोगियों को अपना भाषण देना था। तीसरा माइक संभवतः आपातकाल के लिए रखा गया था। इस धूमधाम में उस दिन एक साधारण से स्कूल से आईं वे अपनी मनःस्थिति को संभालने में ही जुटी हुई थी कि प्रतियोगिता का आरंभ हुआ।
विभिन्न छात्राओं ने विभिन्न शैलियों में अपनी भाव-भंगिमाओं द्वारा अपने विचारों को प्रकट किया और अपना नाम पुकारा जाने पर इस बड़े स्कूल की चकाचौंध से सहमी-डरी वे भी मंच पर जा पहुंचीं। मुख्य अतिथि, निर्णायक मंडल और श्रोताओं को संबोधित करके अपने भाषण का अभी कुछ ही भाग प्रस्तुत किया था
कि एकाएक हकलाते हुए वे रुक गईं.. आगे के भाषण को याद करने के लिए वे अपना मस्तिष्क अपने भाषण लिखे पृष्ठों पर ले गयीं, किंतु सब व्यर्थ.. डरी-सहमी सी नज़रों से उन्हें उत्साहित करती अपनी अध्यापिका को देखा, लेकिन सब शून्य ! इसी नर्वसनेस में वे कुछ क्षण वहां खड़ी रहीं और फिर मंच संचालिका ने उनकी पीठ पर हाथ रखते हुए उन्हें मंच से उतरने का संकेत दे दिया और शर्मिंदगी से रुंआंसी सी वे मंच से नीचे आ गईं।
डायस छोड़ मंच से उतरकर नीचे आते समय अन्य छात्राओं की व्यंग्यात्मक हंसी उनका पीछा कर रही थी। आत्मविश्वास से भरी कुछ छात्राओं की नजरों में उन्हें अपना उपहास दिख रहा था और औरों से अधिक वे स्वयं को ‘अपने आप’ से ही अपमानित अनुभव कर रही थीं, ‘दर्पण के समक्ष खड़े होकर भी बार-बार अभ्यास किया था मैंने, अध्यापिका को भी अनेक बार सुनाया था। फिर कैसे भूल गई ? अपने विद्यालय की प्रतियोगिताओं में तो आज तक नहीं भूली ! मुझे अपने स्कूल का सर्वश्रेष्ठ वक्ता मानकर भेजा गया था,लेकिन मैंने केवल अपने आप को ही नहीं अपितु अपने स्कूल को भी अपमानित कर दिया..!’
अत्यन्त रुआंसी अवस्था में डरते हुए वे अपनी अध्यापिका तक पहुंची,किंतु उन्होंने उनकी पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्हें ढांढस बंधाया, ‘कोई बात नहीं बेटा ! हो जाता है कभी-कभी ! दरअसल तुम पहली बार किसी अन्य स्कूल में आई थीं न !’
और अब तक आंखों की कोरों पर रुके उनके अपमान के आंसू अध्यापिका के समक्ष अविरल बह उठे। खैर…
कुछ समय पश्चात् उनकी इस असफलता को नजरंदाज करते हुए उन्हें, उन्हीं अध्यापिका के साथ, पुनः एक अन्य विद्यालय में आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिता में, स्कूल का प्रतिनिधित्व करने लिए भेजा गया और वहां उनकी आत्मविश्वास से भरपूर अभिव्यक्ति शैली को द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
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बस,उस दिन के अपमान के बावजूद उस अध्यापिका और स्कूल द्वारा एक ‘वक्ता’ के रूप में उन पर किया गया ‘विश्वास’ एक वरदान के रूप में फलित हुआ और अपने अध्ययन काल में स्कूल से कालेज, कालेज से यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी से शिक्षण क्षेत्र में आकर उनकी यह प्रतिभा निरंतर निखरती गई।
आज अपनी बेटी द्वारा कहे गए ‘ममा ! सो प्राउड ऑफ यू’ शब्द उन्हें बार-बार अपनी उस अध्यापिका को नमन करने पर विवश कर रहे थे।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब
अपमान बना वरदान