हत्या – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi

आज सारी रात सुनीता एक पल के लिये भी सो नहीं पाई। उसको समझ में नहीं आ रहा है कि वह अब क्या करे? उसकी तो सारी पूॅजी ही लुट गई। किसी को बता भी नहीं सकती और बताये बिना गुजारा भी नहीं है। आज नहीं तो कभी तो सबको पता चलेगा ही, तब वह सबको क्या उत्तर देगी। बेटी – मोह के वशीभूत वह अपना ही सर्वनाश कर बैठी। मन ही मन वह बार बार यही कह रही थी कि मेरी बुद्धि इतनी भ्रष्ट क्यों हो गई कि मैं बेटी के मोह में सही – गलत का फर्क भूल गई थी।

अपनी बेटी सुरुचि की आदतों और स्वभाव से वह अच्छी तरह परिचित भी थी लेकिन अपनी ऑखों से कभी मोह का पर्दा उठाकर सच्चाई देखने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि यदि कोई उनको सच्चाई से परिचित कराने का प्रयास भी करता तो वह उसी को झूठा और बुरा भला कहती। उन्हें लगता कि सारी दुनिया उनकी बेटी के विरुद्ध है और सभी उससे  ईर्ष्या करते हैं। उनकी दृष्टि में सुरुचि दुनिया की सबसे दुःखी और बेचारी स्त्री है। 

सुरुचि जब भी मायके आती ससुराल में अपने दुःख और तकलीफों का रोना रोती रहती। बहू गीतिका और अरुण ने कई बार मॉ को समझाया कि इस तरह बेटी के गलत कामों में बढ़ावा देकर वह सुरुचि के जीवन में ही जहर घोल रही हैं। सुरुचि की आदत थी असंतुष्ट रहने की। जो है उसकी बजाय उसकी नजर हमेशा दूसरों की वस्तुओं पर रहा करती। भाभी गीतिका की हर वस्तु से उसे ईर्ष्या थी। एक दो बार तो उसके मॉगने पर गीतिका ने बड़े शौक से खरीदी अपनी वस्तुयें मन मारकर सुरुचि को दे दीं लेकिन सुरुचि की हरकतों से तंग आकर बाद में वह मना करने लगी।

कई बार उसने सुनीता से उसके गहने मॉगे – ” मम्मी, आपके कंगन मुझे बहुत पसंद हैं, आप क्या करेंगी? पहनती तो हैं नहीं, मुझे दे दो।”

लेकिन हर बार उसका भाई अरुण कह देता – ” तुम्हारे पास इतने गहने हैं लेकिन तुम्हारा मन ही नहीं भरता। मम्मी कहीं जाती हैं तो अपने गहने पहनती हैं। उनका खाली गला और कान मुझे अच्छा नहीं लगता है इसलिये अपने गहने पहनो, बार बार उनके गहने क्यों मॉगती हो? जो मम्मी की बुढ़ापे में सेवा करेगा, ये गहने उसको ही मिलेंगे।”

सुनीता बेटे से तो कुछ न कहतीं लेकिन सुरुचि के जाने के बाद अपना गुस्सा पोते – पोती और बहू पर निकालतीं। सुनीता अपने सारे गहने बैंक लाकर की बजाय अपने बक्से  ही रखती।

सुरुचि के देवर की शादी होने वाली थी। उसने सुनीता से जिद करते हुये कहा – ” मम्मी सिर्फ शादी में पहनने के लिये अपने गहने दे दो। शादी बाद मैं खुद वापस कर दूॅगी।”

” नहीं सुरुचि तुम्हारे भाई भाभी जान जायेंगे, तो आफत कर देंगे। वे लोग मेरे गहने पहचानते हैं।”

सुरुचि ने मॉ के गले में बॉहें डाल दी – ” मैं इस तरह पहनूॅगी कि इन्हें पता नहीं चलेगा। शादी होने के बाद मैं चुपचाप वापस तुम्हें दे दूॅगी, किसी को पता ही नहीं चलेगा। तिलक के समय मैं अपने सभी गहने पहन चुकी हूॅ, अब बदलकर पहनूॅगी तो अच्छा लगेगा।”

सुनीता ने उसे गहनों का डिब्बा देते हुये कहा – ” सम्हाल कर पहनना और शादी होते ही वापस ले आना। मेरे पास यही पूॅजी बुढ़ापे का सहारा है। रहना तो मुझे गुड्डू के पास ही है, उसने तुम्हें या बहू दोनों को गहने देने से मना किया है।”

सुरुचि खुशी से चहकते हुये एक बार फिर सुनीता के गले लग गई – ” तुम कितनी अच्छी हो मम्मी, मेरी खुशियों का कितना ख्याल रखती हो।”

सुरुचि जब देवर की शादी होने के बाद एक हफ्ते तक नहीं आई तब सुनीता को चिन्ता हुई। डर के कारण उसका बुरा हाल था। घर में किसी को उसके गहनों के बारे में कुछ पता नहीं था। सुनीता जब भी सुरुचि को फोन करती, वह या तो फोन ही न उठाती और अगर उठा भी लेती तो कह देती कि बहुत व्यस्त है, बाद में बात करेगी।

धीरे धीरे तीन महीने बीत गये।‌ स्थानीय ससुराल होने के कारण और घर के कामों से बचने के लिये सुरुचि अक्सर मायके आ जाया करती थी लेकिन अब उसने मायके आना ही छोड़ दिया।

आखिर सुनीता ने अरुण से कहा – ” बहुत दिन से सुरुचि नहीं आई, मैं सोंच रही हूॅ कि मैं ही जाकर मिल आती हूॅ। बहुत याद आ रही है उसकी।”

” हॉ, यह बात तो है। जबसे देवर की शादी हुई है, सुरुचि आई ही नहीं। इस रविवार को आप मुझे और मम्मी जी को सुरुचि के घर ले चलियेगा।” गीतिका ने कहा।

” तुम लोगों को जब जाना हो तब जाना। कैब बुला देना, मैं कल जाऊॅगी।”

अरुण और गीतिका दोनों जानते थे कि सुनीता को रोकने से कोई फायदा नहीं है। सुनीता को देखकर सभी बहुत खुश हुये लेकिन उसकी अपनी बेटी – दामाद का चेहरा उतर गया। चाय नाश्ते के बाद सुरुचि की सास ने कहा – ” बहू, अपनी मम्मी को अपने कमरे में ले जाओ और दोनों मॉ बेटी आराम से बातें करो।”

सुरुचि का मन तो नहीं था लेकिन सबके सामने कुछ बोल नहीं पाई। एकान्त होते ही सुनीता ने कहा – ” तुमने शादी के तुरन्त बाद गहने वापस करने के लिये कहा था लेकिन इतने दिन हो गये तुम आईं ही नहीं।‌ जल्दी से मेरे गहनों का डिब्बा दे दो। अब मुझे घर वापस जाना है, काफी देर हो गई।”

सुनकर सुरुचि चुपचाप बैठी रह गई, उसे उठने का कोई उपक्रम न करते देखकर सुनीता बड़े प्यार से उसके गालों को थपथपाते हुये बोली – ” कोई बात नहीं, तुम नहीं आ पाईं तो क्या हुआ मैं आ गई। अब जल्दी करो।” 

लेकिन सुरुचि को अब भी न उठते देखकर सुनीता ने फिर कहा – ” क्या बात है, बेटा? गहने निकालो।”

” मम्मी, आपके गहनों का डिब्बा मुझसे कहीं खो गया है।”

” क्या?” सुनीता लड़खड़ा कर वहीं बिस्तर पर गिर गई।

” हॉ, मम्मी। इतने दिन से इसीलिये मैं नहीं आ रही थी कि आपको क्या जवाब दूॅ?”

” लेकिन ऐसे कैसे डिब्बा खो गया? मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि सम्हाल कर रखना। अब मैं क्या करूॅ? मुझसे तुम्हारे  अरुण  ने अपने गहने किसी को भी देने के लिये मना किया था लेकिन मैं बेटी के मोह में सही – गलत का फर्क भूल गई थी और विपत्ति को निमंत्रण दे बैठी।”

” फालतू का ड्रामा मत करो मम्मी। मैंने तो एक बार पहने भी नहीं।‌ पता नहीं डिब्बे सहित कौन चुरा ले गया? अब खो गये तो क्या करूॅ? प्राण दे दूॅ क्या तुम्हारे गहनों के लिये? 

” लेकिन मैं सबको क्या जवाब दूॅगी?” 

” मैं क्या बताऊॅ? जब मेरे पास पैसे होंगे, तुम्हारे गहने बनवा कर वापस कर दूॅगी।” कहकर सुरुचि कमरे से  निकलकर बाहर बालकनी में आगई। 

सुनीता कमरे से बाहर निकलने वाली थी कि सुरुचि की बेटी की खिलौने की टोकरी में अपना गहनों का खाली डिब्बा मुॅह चिढाता हुआ दिख गया।‌ उसने डिब्बा उठा लिया और बालकनी में आकर सुरुचि से कहा – ” यह डिब्बा तो खिलौने की टोकरी में रखा है।”

सुरुचि ने सुनीता के हाथ से डिब्बा लगभग छीनते हुये कहा – ” यह आपके गहनों वाला डिब्बा नहीं है। आपको कहॉ से मिला? कह तो दिया कि जब मेरे पास पैसे होंगे बनवा दूॅगी।‌ अब जाइये यहॉ से।” कहती हुई सुरुचि पैर पटकती हुई सीढियॉ उतरती चली गई।

क्रोध से लाल बेटी के चेहरे को देखकर सुनीता अवाक रह गई। वह तबियत खराब का बहाना बनाकर घर आई। घर आकर भी अपने कमरे में लेट गई।‌ अरुण और गीतिका से थकान का बहाना करके खाना भी नहीं खाया। उसे अच्छी तरह समझ में आ रहा था कि उसके गहने खोये नहीं हैं बल्कि उसकी अपनी बेटी ने चुरा लिये हैं।

सुबह होने वाली थी लेकिन सुनीता अपनी ही बेटी से मिले इस धोखे और बेईमानी के कारण अपने को कोस रही थी। सुरुचि की गलत बातों को भी सदैव उचित ही ठहराती। सुरुचि हमेशा अरुण और गीतिका के प्रति उनके कान भरकर अपना स्वार्थ सिद्ध करती रही। बेटी पर आवश्यकता से अधिक विश्वास के कारण ही आज उसकी ऐसी दशा हुई है कि वह कहीं की नहीं रही। समझ में नहीं आ रहा था कि इस आघात को वह कैसे सहन करे? बड़ी मुश्किल नींद आई। 

सुबह सुरुचि के फोन की घंटी बजी, उठाते ही अरुण की घबड़ाई आवाज कानों में पड़ी – ” सुरुचि, जल्दी घर आ जाओ। मम्मी को सोते में दिल का दौरा पड़ गया और वह हमें छोड़कर चली गईं।”

सुरुचि के हाथ से मोबाइल छूट गया। उसके लालच ने उसके हाथों अपनी ही मॉ की हत्या कर डाली। जोर से चीखते हुये उसने अपना सिर दीवार पर पटक दिया। सुरुचि के पति अजय ने जल्दी से सुरुचि के हाथ से मोबाइल लेकर कान से लगाया तो अरुण ने उसे सुनीता के निधन की सूचना दी।

मोबाइल रखकर उसने पत्नी की ओर देखा तो वह दीवार पर सिर पटकते हुये कह रही थी- ” मैं हत्यारी हूॅ, मैंने मम्मी को मार डाला है।” 

अजय की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, बड़ी मुश्किल से उसने सुरुचि को चुप कराया तो बुरी तरह बिलखते हुये सुरुचि ने उसे पूरी बात बताई – ” लालच ने मेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी। मैं अभी जाकर सारे गहने भइया भाभी को दे दूॅगी, वरना जब वे लोग मम्मी का बक्सा खोलेंगे और उसमें गहने नहीं मिलेंगे तब पता नहीं मम्मी पर क्या क्या इल्जाम लग जायें।”

” ऐसा मत करना सुरुचि। तुम्हारे लालच ने एक अनर्थ तो कर ही दिया है, अब कुछ ऐसा मत करो कि तुम और मम्मी दोनों पर कलंक लग जाये। अरुण और गीतिका तो कभी तुम्हारा चेहरा नहीं ही देखेंगे साथ ही तुम मेरे परिवार का विश्वास हमेशा के लिये खो दोगी। सब लोग यही कहेंगे कि जो अपनी मॉ की सगी न हुई मेरी क्या होगी?”

सुरुचि और जोर से रोने लगी – ” बचपन से मम्मी के ये गहने मुझे बहुत पसंद थे। मैंने सोंचा था कि हमेशा की तरह मम्मी थोड़ा नाराज होंगी और फिर क्षमा कर देंगी। मैं क्या जानती थी कि इन गहनों का लालच मुझसे मेरी मम्मी को ही छीन लेगा। अब तुम्हीं बताओ क्या करूॅ मैं?”

” यह बात हमेशा के लिये भूल जाओ। अभी कोई मम्मी का बक्सा नहीं देखेगा। तेरहवीं के पहले किसी दिन रात में मम्मी के कमरे में रुक जाना और मौका देखकर यथास्थान डिब्बा रख देना। शायद इससे उनकी आत्मा को शान्ति मिल जाये।”

” लेकिन…..।”

अजय ने उसे गले से लगा लिया, उसकी आंखें भी भीग गईं – ” मम्मी अब वापस नहीं आ सकतीं इसलिये यह बात कभी किसी के सामने मत कहना। काश! तुमने एक बार इस संबंध में मुझसे बात की होती।” 

सुरुचि ने अजय की बात तो मान ली लेकिन अपने मन के हाहाकार और पश्चाताप को लेकर कहॉ जाये? आखिर अपनी मॉ की हत्या तो उसने ही की है।

बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर

VM

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