भाभी – मधुलता पारे : Moral Stories in Hindi

 सबेरे के लगभग 8 बज रहे थे धीरा किचन में व्यस्त थी मोबाइल की रिंग सुनकर उसने फोन उठाया उधर से भतीजी के पति सुधीरजी का फोन था बीबी अम्मा की तबियत बहुत बिगड़ गई है आप जल्दी बम्बई पहुंचिये 

मैं शुचि को वहीं छोड़ आया हूं दोनों बच्चों की वार्षिक परीक्षा होने के कारण उन्हें लेकर आ रहा हूं ।बड़े भैया भी शाम की गाड़ी से जा। रहे हैं और फोन बंद हो गया । खबर सुनकर धीरा सुन्न हो गई अभी चार दिन पहले ही भाभी से बात हुई थी

ऑपरेशन सफल रहा था कह रही धीं अच्छा महसूस करने के बाद बीबी सबसे पहले फोन पर तुमसे ही बात कर रही हूं यश ने तो अस्पताल में इतने बड़े बड़े डाक्टरों को इकट्ठा कर लिया था

कि बस अब मैं जल्दी अच्छी हो जाऊंगी उनके स्वर ने धीरा को भी आश्वस्त कर दिया था फिर भी भाई से शुचि से रोज हालचाल लेती रहती थी नितिन के ऑफिस मे ऑडिट चलने के कारण उसका मुंबई जाना नहीं हो पा रहा था । भाई धीरा से 15वर्ष बड़े थे उनके दो बेटे सुदीप यशदीप तथा एक बेटी शुचि थी।

सुदीप प्रोफेसर तथा यशदीप डाक्टर था उसकी पत्नी भी डाक्टर थी दोनों मुंबई में ही प्रेक्टिस करते थे नीचे नर्सिंग होम और ऊपर आवासीय व्यवस्था थी ।बड़ा बेटा सुदीप शुचि और धीरा तीनों एक ही शहर में रहते थे ।शुचि मां का ऑपरेशन होने वाला था इसीलिए पहले ही मुंबई पहुंच गई थी। परीक्षण केबाद ब्रेस्ट केंसर का पता चला था

घर में ही दो डाक्टर तथा समस्त मेडिकल सुविधाएं होने के कारण तुरंत ही विशेषज्ञों से परामर्श कर ऑपरेशन की तारीख निश्चित कर ऑपरेशन भी हो गया। धीरा ने तुरंत सुदीप को फोन लगाया उसने कहा कि हां मैं अकेला ही जा रहा हूं क्योंकि बड़ी मुश्किल से एक ही टिकिट मिल पाई है ।

समस्या का समाधान नितिन ने किया ऑफिस का ऑडिट समाप्त हो गया था इसीलिए वह साथ में जाने के लिए तैयार हो गया। जनरल बोगी में जैसै तैसे घुसने को जगह मिली वह भी इसीलिए की गाड़ी यहीं से शुरू होती थी परन्तु धीरा पर जैसे इन तकलीफों का कुछ भी असर नहीं हो रहा था

वह तो जल्दी से जल्दी बस मुंबई पहुंच ना चाह रही थी। किसी तरह घंटे भर बाद थोड़ी टिकने को जगह मिली तो आंखें बंद हो गईं और मन में रील चलने लगी एक छोटी सी पांच छह बरस की बच्ची मां के साथ नर्मदा स्नान के लिए जाती पिता पुलिस ऑफिसर पर मां बिना पूजा पाठ किए अन्न गृहण नहीं करती थी

नर्मदा स्नान उनका रोज का नियम था लौटते में नन्हीं धीरा से कहतीं देवीजी से प्रार्थना करो वह तुम्हें एक सुंदर छोटी सी भाभी दे धीरा रोज मां नर्मदा के मंदिर में पूरे मन से अपनी प्रार्थना दोहराती मां शायद उसके द्वारा अपनी अभिलाषा को फलीभूत होते देखना चाह रही थी । धीरे धीरे समय गुजरता गया

पिता के ट्रान्सफर के कारण नर्मदा नगरी भी छूट गई पर धीरा के मनमें तो प्रार्थना के शब्दों का गहरा असर था वह जब भी किसी भी मंदिर में जाती यही प्रार्थना दोहराती । भाई की पढ़ाई पूरी हुई और बहुत जल्दी नौकरी भी लग गई तब तक धीरा भी लगभग दस वर्ष की हो गई थी और वह चिरप्रतिक्षित क्षण भी आ गया

धीरा की अभिलाषा पूर्ण होने का धीरा ने जब स्वर्णा को देखा तो लगा उसकी प्रार्थना जैसे सशरीर उसके सामने उपस्थित है एक छोटे कद की एकदम झकाझक श्वेतरंग में कुमकुम की आभा लिए अत्यंत सुंदर गुड़िया सी उसकी भाभी उसके सामने खड़ी है अब तो धीरा की जैसे दुनिया ही बदल गई थी जितने समय स्वर्णा घर में रहती

धीरा उसके आसपास ही मंडराती रहती। जल्दी ही भाई के कार्य स्थल जाने का समय आ गया केवल जाने में आठ दिन का ही समय बचा था कि एक भीषण हा दसा हो गया पुलिस के एक सर्च ऑपरेशन में धीरा के पिता शहीद हो गए अब परिस्थिति पूरी बदल गई ।भाई पर पूरे घर की जिम्मेदारी आ गई गांव में दादा दादी और यहां मां और धीरा ।

भाई ने छुट्टी और बढ़ाई मां की हालत बिल्कुल अच्छी नहींथी । पिता के ना रहने के बाद इस शहर में भी रहना नामुमकिन था दा दा दादी को गांव छोड़कर मां धीरा और स्वर्णा को लेकर भाई अपनी नौकरी पर आ गए । मां की गृहस्थी का कुछ सामान अपने साथ लाए

तथा बाकी को गांव भेजने की व्यवस्था की इस हादसे ने भाई को एकदम सेअभिभावक की श्रेणीमेंखड़ा कर दिया स्वर्णा को उनकी अनुगामिनी। धीरा थी तो एक बच्ची ही पर परिस्थिति से सामंजस्य स्थापित करने का भरसक प्रयास कर रही थी ऐसे में सबसे बड़ा सहारा तो भाभी ही थी।

नए शहर में स्कूल में प्रवेश मिल गया धीरे धीरे धीराका बचपन लौटने लगा पढ़ने में तो शुरू से होशियार थी अब पूरा ध्यान शालेय गतिविधियों में रहने लगा । पहले धीरा के बाल कटे हुए थे पर अब नए स्कूल में प्रवेश के समय बेतरतीब बालों को करीने से दो चोटियों में स्वर्णा ने बांधा तो धीरा अपने आप को ही नहीं पहचान पाई ।

ऐसी कितनी कितनी यादें धीरा को झकझोर रही थीं। जब धीरा आठवीं कक्षा में आई तब सुदीप का जन्म हुआ उसको जैसे एक खिलौना मिल गया जब भी समय मिलता उसे टांगे रहती जब सुदीप ने कुछ बोलना सीखा उसे बुआ बोलना सिखाती पर वह बी बी से ज्यादा कुछ बोलता ही नहीं था

आखिर में एक दिन स्वर्णा ने अपना निर्णय सुना दिया धीरा का नाम बी बी और तब से उसका नाम ही बी बी पड़ गया इस बात को याद कर उसकी जोर से रूलाई फूट पड़ी गाड़ी के डिब्बे के सब लोग उसे देखने लगे नितिन ने मुश्किल उसे संभाला ।थोड़ाशांत होने के बाद फिर कड़ियां जुड़ गईं सुदीप के दो साल बाद यशदीप     

तब तक धीरा भी दसवीं में पहुंच गई पढ़ने में एकदम अव्वल पर घर के काम में बिल्कुल फिसड्डी । मां जब तक वहां रही तब तक काम के लिए टोकती रही पर स्वर्णा की शह पाकर धीरा अपनी पढ़ाई में ही मस्त रही दादा दादी के ना रहने पर मां को गांव जाना पड़ा ।लगभग 70 एकड़ जमीन थी भाई जा नहीं सकते थे

इसलिए ठेके पर देकर खेती की व्यवस्था करना पड़ी समय गुजरता गया स्कूल से धीरा काॅलेज में आ गई यशदीप के जन्म के बाद शुचि का जन्म हुआ । तीनों बच्चों की धीरा जैसे रिंग मास्टर थी उन्हें पढ़ाना अनुशासित करना सब पर उसका एका धिकार था भाई भाभी जानकर भी अनजान थे पर धीरा की इस चेष्टा से नाराज भी नहीं थे

और समय गुजरा धीरा की काॅलेज की पढ़ाई पूरी हुई और एक अच्छे परिवार में उसका संबंध तय हो गया फिर मां भी नहीं रहीं । किसी स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी अभी गंतव्य तक पहुंच ने में एक घंटे का समय था गाड़ी चल दी धीरा उहापोह की स्थिति में थी पता नहीं क्या होगा । स्टेशन पर उतरते ही सुदीप मिल गया

धीरा की आंखों में प्रश्न ही प्रश्न थे उत्तर में सुदीप की आंखें आंसू से भरी थीं बी बी सब खतम हो गया। अम्मा नहीं रहीं धीरा को जैसै काटो तो खून नहीं जिस अवांछित स्थिति से बचना चाह रही थी वही सामने आ गई टैक्सी कर घर पहुंचे धीर गंभीर भाई शांत मुद्रा मे थे यशदीप गरिमा दोनो असहज असहाय और बेबसी की स्थिति में खड़े थे।

य श बोला बीबी हम हार गए अपनी अम्मा को नहीं बचा पाए। शुचि दौड़कर गले लग गई बिना कहे ही सबकी स्मृतियों में वे अदृष्य होकर भी सजीव थीं । बाद में शुचि ने ही धीरा को बताया मेडिकल औपचारिताओं के चलते डेड बाॅडी को घर नहीं ला सकते इसीलिए वहीं से विद्युत शवदाह गृह ले जाकर अं तिम संस्कार किया गया।

अब तो सब यंत्रवत समय बीतता गया जैसे सबकी ऊर्जा ही चली गई भाई भी से वानि वृति के बाद स्थाई रूप से मुंबई में ही रहने लगे पर आज भाभी को गए दस वर्ष हो गए पर सब हर साल 5 अप्रेल को आ ज भी इकट्ठे होते हैं धीरा भी जाती है। आज स्वर्णा नहीं है पर उसकी सौम्यता गंभीरता

सहजता को धीरा ने कब आत्मसात कर लिया ये स्वयं उसे भी पता नहीं चला । लोकजगत में मां की महिमा अवर्णनीय है पर धीरा आज भी “भाभी” इन दो शब्दों में अपनी समस्त अनमोल स्मृतियों को सजीव होते देखती है जिसमें उसे बिना किसी प्रकार की डांट सीख उपदेश दिये बिना सफल जीवन जीनेका अमूल्य अनमोल मंत्र मिला।

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                   मधुलता पारे

                      भोपाल।

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