” सुनिये जी..हम कैसे लग रहें हैं…हमारी वजह से शैलेश का मज़ाक तो नहीं होगा ना….।” शीशे में खुद को निहारकर अपनी साड़ी का पल्ला ठीक करती हुई सुनंदा जी अपने पति श्रीकांत बाबू से पूछी तो वो हा-हा करके हँसने लगे…फिर उनके कंधे पर अपने दोनों हाथ रखते हुए बोले,” अब इस उम्र में क्या अच्छा लगना और न लगना….वैसे तुम तो हमेशा ही अच्छी लगती हो…ये आसमानी रंग भी तुम पर बहुत खिल रहा है…।”
श्रीकांत बाबू सेवानिवृत अध्यापक थे।अपने रिटायरमेंट से पहले ही उन्होंने बेटी आस्था और बेटे शैलेश की शादी कर दी थी।बस अब वो पत्नी के साथ कभी बेटी से मिलने चले जाते हैं तो कभी बहू के हाथ की चाय पीने मुंबई चले आते।
दस दिन पहले ही दोनों मुंबई आये थे।सबसे मिल लेने और घूमने-फिरने के बाद दोनों वापस जाने वाले थे कि सुनंदा जी पति से बोलीं,” चार दिनों के बाद ही तो शैलेश को ईनाम मिलने का फ़ंक्शन है…देखकर जाते हैं…।” फ़ंक्शन अटेंड करना तो श्रीकांत बाबू भी चाहते थे, इसलिए उन्होंने पत्नी की बात मान ली।
आज उसी फ़ंक्शन में जाने के लिये दोनों तैयार हो रहें थें।श्रीकांत बाबू के कहने पर ढ़लती उम्र में भी उनके दोनों कपोल शर्म से गुलाबी हो गये, धीरे-से बोली,” हटिये भी…।” और दोनों कमरे से निकलकर हाॅल में आ गयें।
शैलेश अपनी टाई बाँधता हुआ हाॅल में आया तो दोनों को तैयार देखकर उसे आश्चर्य हुआ, उसने पूछा,” आप दोनों कहाँ….?”
” तुम्हारी माँ का बहुत मन है…वो तुम्हारे लिये तालियाँ बजती देखना चाहती हैं…।” बेटे के तेवर देखकर श्रीकांत बाबू धीरे-से बोले।तब शैलेश अहंकार-से बोला,” वहाँ आप लोगों का भला क्या काम…आज जिस मुकाम पर मैं पहुँचा हूँ और जो मेरा इतना नाम हो रहा है…ये सब मेरी खुद की मेहनत है..आप लोगों ने क्या किया है जो…।”
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सुनकर श्रीकांत बाबू चकित रह गए।उन्होंने सोचा नहीं था कि बेटा ऐसा कहेगा..।अपने क्रोध को दबाते हुए वो बोले,” ठीक कहा है बेटा तूने…हमने कुछ नहीं किया है।बस तेरी माँ ने तुझे जनम देने की पीड़ा सही है…बुखार से जब तेरा बदन तपता था, वो रात भर तेरे सिरहाने बैठकर तेरे माथे पर ठंडी पट्टियाँ रखती थी…तुझे गरम-गरम रोटियाँ खिलाने के लिये वो चूल्हे की आँच में अपना हाथ जलाने में एक सुख का आनंद महसूस करती थी…।”
” और जिस नाम पर तू इतना इतरा रहा है..वो नाम तुझे तेरे पिता से ही मिला है, ये शायद तू भूल गया है।स्कूल से लेकर अपनी नौकरी-शादी तक में तूने सबसे पहले अपने पिता का नाम लिया है…।इनके नाम के बिना तो तेरी कोई पहचान…।” सुनंदा जी तैश में बोलती जा रहीं थीं।
तभी श्रीकांत बाबू बोले,”बस करो जी…।” वे कमरे में जाकर अपना बैग ले आये और पत्नी से बोले,”फ़ंक्शन देख लिया…अब घर चलो…।” सुनंदा जी का हाथ पकड़कर वो बाहर निकल गये और शैलेश ठगा-सा रह गया।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु