गर्वित ने अपना बचपन कभी खुलकर जिया ही नहीं।एक कारपेंटर थे उसके पापा। फर्नीचर की दुकान पर दिन रात काम करते और मालिक के स्टोर रूम में बीवी -बेटे के साथ रहते थे वे।
हांथ में सफाई का हुनर दिया था भगवान ने।मालिक के घर में भी तीन बच्चे थे।बेटा गर्वित से दो साल बड़ा था।बड़े दिलवाले मालिक की पत्नी गर्वित से बाहर बाजार वाले काम भी करवा लेती थी ।बदले में अपने बेटे की पुरानी चीजें(कपड़े,खिलौने)ईनाम स्वरूप दे देतीं थीं।
गर्वित अगले सप्ताह से विद्यालय जाने वाला था।मालिक साहब ने सरकारी स्कूल में नाम लिखवा दिया और बोलें पुरुषोत्तम (गर्वित के पिता)से”ले,अब तेरा बेटा स्कूल जाएगा।मेरी पहचान है वहां तभी नाम लिख गया।तुझ जैसे निट्ठल्ले के भरोसे तो हो चुका था एडमिशन।सुन उसे बोल देना,स्कूल से आकर घर पर मालकिन का हांथ बंटा दिया करे।”पुरुषोत्तम तो मालिक के आगे नतमस्तक होकर प्रणाम कर रहा था पर गर्वित को बहुत बुरा लगा
था।उसके पिता को अपनी बेइज्जती भी नहीं समझ आ रही थी।शाम को मालिक के बच्चों के स्कूल बैग,टिफिन,बॉटल लाकर गर्वित के हांथ में रखकर पिता ने कहा था”सुन ले गर्वित,मालिक का अहसान हम कभी चुका नहीं सकते।उनके टुकड़ों पर ही अभी तक पला है तू।खूब मन लगाकर पढ़ाई करना।वापस आकर मालकिन के पास चला जाया कर।
“गर्वित ने उनसे तो कुछ नहीं कहा ,पर अपनी मां से पूछा”जब पढ़ा-लिखा नहीं सकते थे मुझे,तो पैदा ही क्यों किया?पापा के भाग्य में तो मालिक बाबू की गुलामी लिखी है।मैं भी उन्हीं की तरह भाग्यहीन ही रहूंगा।पढ़ -लिखकर भी क्या कर पाऊंगा?आगे पढ़ाने के लिए तो पैसे ही नहीं होंगें तुम लोगों के पास।”
मां ने झट से गर्वित के मुंह पर हांथ रखकर कहा”क्या रे,कोई अपने पिता के लिए ऐसा बोलता है क्या? दिन-रात मेहनत करतें हैं,तेरे लिए ही ना?”
“नहीं मां, दिन-रात मेहनत करते हैं,जो मिलता है शराब में उड़ा देते हैं।घर आकर पीकर तुम्हें मारते हैं।तुम कैसे रह लेती हो उनके साथ?चली क्यों नहीं चलती नानी के पास?”
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मां उसे सीने से लगाकर समझाती”बेटा,औरतों के सर पर पति का होना ही भाग्य होता है।अपना पति छोड़कर जाऊंगी,तो कहीं इज्जत नहीं मिलेगी।तू भाग्य हीन नहीं है रे।हम दोनों के हिस्से का अच्छा भाग्य रोज़ मैं तेरे माथे पर लिख देती हूं अपने हांथ से।जब तू सोता है तब।”
पिता के प्रति नफ़रत लेकर ही दसवीं में पहुंच चुका था गर्वित।अब उन्होंने पीना और ज्यादा कर दिया था।मालिक से हर महीने एडवांस लेकर,कभी ब्याज में पैसे लेकर घर चल रहा था।एक दिन जब गर्वित स्कूल से लौटकर मालकिन के घर पर घर के काम कर रहा था,पापा को गेहूं का पचास किलो का बोरा पिसवाने ले जाते देखा साइकिल पर।मालकिन बहुत गुस्से से बात कर रही थीं उनसे।वह और सुन नहीं पाया।घर दौड़कर वापस आया।
अंदर से मालिक की आवाज आ रही थी।उसका माथा ठनका।मालिक मां की तरफ अश्लीलता से तक रहे थे।दो घंटे से जमकर बैठे थे।उठ ही नहीं रहे थे।मां चाय का एक और कप लाई,और पल्लू सर पर रख कर बैठ गई।गर्वित को मालिक के चरित्र की कालिमा उनकी आंखों में साफ़ दिखाई दी।उनके जाते ही मां पर चिल्लाने लगा”ये यहां क्या कर रहे थे मां?तुम जाने को क्यों नहीं कह देतीं उनसे?ये मालिक अच्छा आदमी नहीं है।”
मां ने विवशता से कहा”तेरे पापा के मालिक हैं,कैसे जाने के लिए कहूं?मालकिन के ब्लाउज़ सिलने हैं,वही बताने आए थे।तू अपना दिमाग मत खराब किया कर।बस मन लगाकर पढ़ाई कर ले तू,तो मेरी तपस्या पूरी हो जाएगी।”उस रात पापा काफी देर से लौटे थे।नशे में धुत्त होकर आए,और एक पैकेट मां को पकड़ाते हुए कहा”मैं ना कहता था चंपा,मालिक का मन बहुत बड़ा है।देख मुझे मोबाइल दिए हैं।अपने लाड़ले से कहना,मुझे सिखा दे फेसबुक चलाना।”
गर्वित का तो अब खून खौलने लगा।सामने से आकर पिता से जोर से बोला”कैसे पति और पुरुष हैं आप।मालिक की गुलामी के अलावा और कुछ आता है आपको?आपकी गैरमौजूदगी में घर आकर बैठा रहता है आपका मालिक।उधर मालकिन आपसे नौकरों की तरह काम करवाती है।सप्ताह में एक दिन भी छुट्टी नहीं मिलती।बचपन से आज तक कभी कोई नई चीज खरीद कर नहीं दी मुझे आपने।इतना काम यदि आप कहीं और करते,तो हमारे घर के हालात बेहतर होते।छि: मुझे घिन आती है आपसे।ख़ुद तो ज़िंदगी भर उनकी गुलामी करते रहे,ऊपर से भाग्य को कोसते रहें हैं आप।आज के बाद अगर मुझे कुछ देना है तो,खरीदकर दीजिएगा,भीख मांगकर नहीं।”
आज पहली बार गर्वित ने ऐसे बात की थी पुरुषोत्तम जी से।वो भी सकते में आ गए।नज़रें मिला नहीं पा रहे थे बेटे से।बेटे की आंख में आंसू देखकर,आज पहली बार उन्हें खुद पर शर्म आ रही थी।सच ही तो कह रहा था बेटा, भाग्यहीन पति और पिता थे वे।अगले दिन से उन्होंने पता नहीं कैसे पीना छोड़ दिया।अपनी पगार से ही घर खर्च चलाने लगे। गर्वित ने डिप्लोमा के लिए एप्लाई किया था सरकारी कॉलेज में।एडमिशन में अभी देरी थी।गर्वित ने पेपर बांटना शुरू कर दिया था,पिता को बिना बताए।
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मालिक का रवैया अब पुरुषोत्तम जी के प्रति सख्त हो गया था। बात-बात पर नीचा दिखाते।मालकिन भी खीझ उतारने लगी थी मां पर।जिस दिन रिजल्ट आने वाला था, पुरुषोत्तम जी सुबह ही नहा-धोकर मंदिर चल दिए।साथ में अभागन पत्नी भी थी।मंदिर में भगवान के सामने कसम खाकर कहा उन्होंने “पूजा,आज मेरे बेटे का एडमिशन करवा दें भगवान। मैं अभागा सारी जिंदगी ,दूसरों के टुकड़ों पर पलता रहा।पहले पिता चल बसे।
घर चलाने के लिए बढ़ई का काम सीखा।परिवार में बड़े भाइयों ने कभी इज्जत नहीं दी मुझे।तुम लोगों से छिपाकर हर महीने अम्मा-बाबू को पैसे भेजता हूं कुछ।मेरे भाग्य की परछाई कहीं मेरे बेटे पर भी ना डालें भगवान।”,
लौटते हुए गर्वित को पेपर डालते देखा,तो कलेजा मुंह को आ गया।घर पहुंचते ही लिपटकर रोते हुए बोले”तू सही कहा करता था रे।मैं बाप बनने लायक नहीं हूं।तेरे हिस्से का बचपन भी तुझसे छीन लिया।मैंने कभी तुझे कुछ नहीं दिया।”
गर्वित ने खुशी से पापा के सीने लगकर कहा”पापा ,मेरा एडमिशन हो गया सरकारी कॉलेज में।आप देखना,मैं आपके सारे दुख दूर कर दूंगा।आप बुरे नहीं थे,हालात बुरे थे।”
डिप्लोमा पूरा करते ही ट्रेनिंग में गया गर्वित।कॉलरी की परीक्षा में पहली बार में ही इलेक्ट्रिशियन के पद पर चयन हो गया उसका।पापा के लिए नया फोन लाकर बोला”लाइये, फेसबुक और व्हाट्स एप चलाना सिखाता हूं आपको।”
पुरुषोत्तम जी किसी बच्चे की तरह खुश हो रहे थे।उनके सर पर अब ना तो उधारी की तलवार थी,ना ही मालिक के जिम्मेदारी की कटार।
अब तो सीख भी गए थे लगभग फोन चलाना।आज सुबह ही चंपा को फोन दिखाकर बोले”ये देख,तेरे लाड़ले ने क्या मैसेज किया है”हैप्पी मेन्स डे”
मेरे बेटे ने मुझे आदमी तो माना।अरे नीचे पापा भी लिखा है।तेरे गर्वित ने मेरे माथे पर अभागे की कालिख धो डाली।अब मैं भाग्यहीन नहीं, भाग्यशाली हूं!”
शुभ्रा बैनर्जी
भाग्यहीन