सोनिया , बेटा कल शाम कल्पना जी और आशीष अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ सगाई की रस्म करने आ रहे हैं तो कल सवेरे राघव को स्कूल और संदीप जी के ऑफिस जाने के बाद इधर ही आ जाना । और उन्हें बता देना कि शाम को सीधे यहीं आ जाए ।तू सुन रही है ना ?
हाँ, सुन रही हूँ …. आपने पा….
नहीं । उस आदमी से हमारा कोई रिश्ता नहीं ।
सरोज की आँखों से अविरल धारा बह निकली । उनकी बड़ी बेटी स्मिता , एक दम चाँद का टुकड़ा । बारहवीं के बाद ही दादा-दादी उसके ब्याह के लिए दबाव बनाने लगे ।शायद उसकी सुंदरता से डरकर ही तो ससुर ने कहा था—-
अरे ! कुछ ऊँच- नीच हो गई तो कहीं मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेंगे । छोरा देख आया हूँ, गेंहू काटते ही ब्याह कर देंगे । घर में छोरे हों तो दूसरी बात होती है पर यहाँ तो बहू के साथ- साथ तीनों छोरियाँ भाग्यहीन हैं , एक भी अपने पीछे भाई लेकर ना आई ।
सरोज ने इतनी जल्दी विवाह का दबे स्वर में विरोध किया पर सास- ससुर क्या साथ देते जब पढ़े-लिखे पति ने भी यह कहकर उपेक्षा कर दी कि गाँव समाज में कैसे रहना है, तुम्हें नहीं पता । बाबा जैसा उचित समझेंगे वैसा ही होगा ।
और उसकी चाँद सी बेटी की मात्र सत्रह साल की बाल उम्र में शादी कर दी गई । विवाह की ज़िम्मेदारी और सास- ससुर के कठोर स्वभाव ने स्मिता को खिलने से पहले ही मुरझा दिया । डेढ़ साल बाद ही बच्ची की गोद में बेटा राघव आ गया । कभी सरोज का दिल भी करता कि बेटी को कुछ दिन अपने पास बुलाकर खिलाए- पिलाए और उसके तन- मन को आराम मिलें तो ससुर कह देते—-
बहू , ब्याह के बाद बेटियाँ अपने घर में ही सजती है । दो/ चार दिन मिलने के लिए बहुत होते हैं । तुम्हारी जैसी माँएँ होती हैं जो लाड़- प्यार के चक्कर में बेटी का घर बिगाड़ देती हैं । दो लड़कियाँ और हैं , ये चोंचले देखकर कोई रिश्ता ना करेगा । बिना भाइयों की बहनें ब्याहनी मुश्किल हो जाती हैं ।
सरोज का मन करता कि पूछे —- क्या अपनी बेटियों के सुख- दुख की चिंता करना चोंचले होता है? ज़माना कहाँ से कहाँ पहुँच गया, और इस घर के पुरुष किस भुलावे में जी रहे हैं पर वह कभी चाहकर भी नहीं बोल पाई । उसकी छोटी बेटी अक्सर कहती—
मम्मी , आप हमारी माँ हैं भी या नहीं? आपके और पापा के होते हुए हम कौन से जमाने में जी रहे हैं? अगर आप अपने बच्चों के लिए कोई स्टैंड ले नहीं सकते थे तो हमें पैदा क्यों किया था ?
सौम्या की बातों से सरोज मुँह खोलने का साहस करना चाहती पर सास की कटु अमानवीय बातें हमेशा उसका मनोबल तोड़ देती—-
सरोज, आज ही लिखवा ले , ये तेरी छोरी भागेगी , कालिख पुतवाएगी ख़ानदान के मुँह पर , मेरा तो जी करें कि सबसे पहले इसके पैरों में ब्याह की बेड़ियाँ डलवा दूँ ।
अम्मा जी , सौम्या तो बच्ची है । इसे क्या पता कि क्या कहना है, बाबूजी के सामने कुछ मत कहना , मैं समझा दूँगी ।
और सरोज सास की इस तरह मिन्नतें करती मानो माँ- बेटी ने कोई बड़ा अपराध कर दिया हो और जान बख्शी का कोई प्रावधान ही ना हो ।
सरोज मन ही मन अपनी बच्ची के लिए घुटती रही । फ़ोन पर भी बातें कम कर दी क्योंकि स्मिता की आवाज़ सुनकर सरोज कई- कई दिन व्याकुल रहती और बस सोचती रह जाती कि क्या करूँ, कैसे करूँ? पति को तो शायद इस बात का पता ही नहीं था कि पत्नी नामक प्राणी में भावनाएँ भी होती हैं और उसके प्रति ज़िम्मेदारी होती है ।
जिस आशंका से सरोज का दिल घबराता था आख़िर एक दिन वहीं हो गया । उस दिन सुबह से ही सरोज का दिल भर- भरकर आता था , खुदबखुद आँखों में पानी आ रहा था और सुबह से ही रोटी का एक टुकड़ा गले से नहीं उतरा था । सरोज ने स्मिता की ससुराल में फ़ोन किया तो पता चला कि दो दिनों से उसे बुख़ार था इसलिए आज शहर के डॉक्टर को दिखाने गए थे । माँ का दिल समझ गया कि फ़ोन पर जो बताया जा रहा है, वैसा नहीं है और मेरी बेटी बचने वाली नहीं है । आज सरोज ने ज़िद पकड़ ली कि उसे इसी समय बेटी से मिलना है । ऐसे समय में भी सास की चुभती बातों ने उसके दिल के घावों पर नमक छिड़कने में कोई कसर नहीं छोड़ी——
जा बेटा , ले जा इसे , मैं भी देखूँ , ये क्या करेगी वहाँ जाकर जो करना, डॉक्टर करेगा ।त्रिया अपने चिलत्तर तो दिखाएगी ही । आज ही लिखवा ले यह उसका घर तुड़वा के रहेगी । अरे , बुख़ार- सुखार तो आ ही जाते हैं पर ना …ये भी अनोखी और इसकी छोरी भी अनोखी ।
सरकारी अस्पताल के जनरल वार्ड में पलंग पर पड़े कंकाल को देखकर सरोज की रूह काँप उठी । माँ को देखकर स्मिता की आँखें खुली तो सही पर फिर खुली ही रह गई ।
सास ने एक साल के पोते राघव को सरोज की गोद में थमाते हुए कहा—-
यहाँ कौन है संभालने वाला ? मैं रीति- रिवाज निभाऊँगी, आने-जाने वालों को देखूँगी या इस भाग्यहीन को सँभालूँगी । कुछ दिन ले जाओ । समय- समय पर ले आना , रीति रिवाजों के समय इसके हाथ लगवा देंगे ।
बेटी की आख़िरी निशानी को छाती से लगाए सरोज वापस आ गई । तीसरे दिन अस्थि विसर्जन की रस्मों के दिन सोनिया अपने पिता के साथ राघव को लेकर बहन की ससुराल पहुँची क्योंकि सरोज की हालत ऐसी नहीं थी कि वह धेवते को ले जाए ।
शायद सोनिया की गोद में राघव को देखकर ही उसका भविष्य निश्चित कर दिया गया था । तेरहवीं से दो दिन पहले स्मिता के ससुर ने बाबा को बुलाकर कहा—-
समधी साहब, घर की बात घर में रह जाएगी । बिन माँ के बच्चे को मौसी से बढ़िया भला कौन पाल सकता है ? आदमी का क्या बिगड़ता है ? संदीप में कोई कमी थोड़े ही है , पहले ब्याह के समय तो नौकरी भी ना थी , अब तो ईश्वर की कृपा से अपने पैरों पर खड़ा है, सोच लो । हमें लड़कियों की कमी नहीं बस तुम्हारे धेवते की वजह से कह रहे हैं ।
एक बार फिर सरोज को समाज और स्मिता की आख़िरी निशानी के नाम पर अपनी दूसरी बेटी सोनिया के साथ होते अन्याय को देखना पड़ा क्योंकि सोनिया पढलिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी ।
स्मिता की मृत्यु के एक महीने बाद ही सोनिया राघव की माँ के रूप में स्मिता की ससुराल आ गई । शायद वह मन ही मन अपने माता-पिता और मायके के सारे रिश्तों को समाप्त करके आई थी । इसलिए ना तो कभी सामाजिक नियमों को निभाने के नाम पर मायके गई और ना ही भावनाओं के नाम पर ।
हाँ, दूसरी पत्नी के रूप में संदीप को पूरी तरह से अपने क़ाबू में करने में , उसने कोई कसर नहीं छोड़ी । ब्याह के दसवें दिन ही उसने शहर में जाकर रहने का ऐलान कर दिया । अपने पति से हर बात मनवाना ही सोनिया की सबसे बड़ी जीत थी।
सोनिया के साथ हुई घटना ने सौम्या के मन की विद्रोही भावनाओं को अधिक उग्र बना दिया था । बड़ी बेटी की असमय मृत्यु, सामाजिक नियमों के नाम पर दूसरी बेटी के सपनों का गला घोट देना और तीसरी बेटी को दिन- रात की मानसिक यंत्रणा झेलता देखकर, एक दिन जब आगे की पढ़ाई के बारे में बात करने पर हमेशा की तरह बाबा- दादी ने सौम्या का ब्याह करने का फ़रमान जारी कर दिया और पिता ने एक आदर्श बेटे के रूप में सिर झुका लिया तो सरोज घायल शेरनी की तरह बिफर उठी —-
लोगों के घर बर्तन माँज कर अपनी बेटी की पढ़ाई पूरी करवाऊँगी पर अब ग़लत फ़ैसलों के आगे सिर नहीं झुकाऊँगी । मेरी स्मिता के हत्यारे हो तुम सब , मेरी सोनिया के सपनों को तोड़ने वाले हो और अब सौम्या…..
ज़लील औरत….. मेरे माँ-बाप के सामने ज़बान चलाती है, कहकर सरोज के पति ने जैसे ही हाथ उठाया, सरोज तुरंत सामने से हट गई और गली में बाहर आकर चीखते हुए बोली—-
सब सुन लो , मैं अपनी बेटी के साथ चार जोड़ी कपड़े लेकर जा रही हूँ । कहीं ऐसा ना हो कि मेरे और मेरी बेटी के चरित्र पर कलंक ना लगा दिया जाए इसलिए बता कर जा रही हूँ । अब मैं छोटी के साथ कोई बेइंसाफ़ी ना होने दूँगी ।
और वह सौम्या के साथ उसी शहर में आ गई जहाँ सोनिया रहती थी । सोनिया ने अपने विवाह के बाद माँ से तो कभी बात नहीं की थी पर सौम्या का फ़ोन कभी-कभी उठा लेती थी । उस दिन जल्दबाज़ी में फ़ोन भी गाँव में छूट गया था । एक दिन तो माँ बेटी इधर-उधर ही घूमती रही और रात को बस स्टैंड पर आकर बैठकर रात गुज़ारी । अगले दिन घूमते- घूमते सुबह ब्रह्मकुमारी आश्रम के बोर्ड पर नज़र पड़ी । उन्हें वहाँ कुछ दिनों तक रहने की आज्ञा मिल गई । सरोज ने सबसे पहले अपने गले में पड़ी चेन और कानों की बालियाँ बेची । सौम्या का सरकारी कालिज में प्रवेश तो हो चुका था इसलिए उसकी फ़ीस भरी । आश्रम की संचालिका ने माँ- बेटी की दुर्दशा देखकर सरोज को रसोइया की नौकरी दे दी । इस तरह धीरे-धीरे ज़रूरत का सामान ख़रीद कर आश्रम की बराबर में एक कमरा किराए पर ले लिया ।
जिस दिन सरोज ने फ़ोन लिया । सबसे पहले सोनिया को फ़ोन करके अपने और सौम्या के साथ घटी पूरी घटना सुनाई और सोनिया को अपने पास बुलाया ।
अगले दिन सोनिया संदीप और राघव के साथ माँ और बहन से मिलने आई और बरसों के बाद दोनों माँ- बेटी गले मिलकर बहुत रोई । सोनिया ने रोते- रोते कहा—-
मम्मी, काश आपने बहुत पहले अपनी ज़बान खोली होती तो क्या पता दीदी भी हमारे साथ होती ।
मम्मी जी , मुझे भी माफ़ कर दें । अगर मैंने स्मिता की बातों पर गौर किया होता । अपने माता-पिता की ग़लत बातों का विरोध करता तो क्या पता , वो इस तरह असमय ना जाती । आपकी बेटी बहुत अच्छी थी मम्मी जी । सोनिया! मेरा यक़ीन करना । अगर राघव इतना छोटा ना होता तो मैं हरगिज़ दूसरी शादी के लिए तैयार ना होता ।
यही लिखा था हमारे भाग्य में वरना जान बूझकर कौन अपने जीवन में अशांति चाहता है बेटा ? बस एक निवेदन है कि मेरी सोनिया को अपने पैरों पर खड़े होने का बहुत शौक़ था । उसकी पढ़ाई पूरी करवा दो ।
अरे मम्मी जी, सोनिया ने तो शहर में आते ही सबसे पहले अपने पैरों पर खड़ी होने का सपना साकार करने के लिए कमर कस ली थी । राघव छोटा था इसलिए मेरे ऑफिस से आने के बाद ये रोज़ शहनाज़ हुसैन के ब्यूटी ट्रेनिंग सेंटर जाती थी और बाक़ायदा इसने कोर्स पूरा किया । अभी तो घर में ही सेटिंग की है सोनिया ने पर अगले साल तक अपना मकान बनवाकर इसके पार्लर के लिए बढ़िया इंतज़ाम करवा दूँगा ।
सरोज और सौम्या को शहर में आए पाँच साल बीत चुके थे । उसकी पढ़ाई पूरी हो गई और सौम्या स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में मैनेजर के पद पर नियुक्त हो गई थी ।
जिस दिन पड़ोस में रहने वाली कल्पनाजी ने अपने लेक्चरर बेटे के लिए सौम्या का हाथ माँगा , सरोज का जीवन सफल हो गया क्योंकि कल्पना जी केवल उसकी पड़ोसन नहीं बल्कि उसके अतीत की राज़दार भी थी । और सरोज उनके बेटे आशीष को पिछले सालों में अच्छी तरह से परख चुकी थी ।
तभी सोनिया का फ़ोन सरोज को अतीत से निकालकर वर्तमान में लेकर आया —-
हाँ बेटा! अरे कुछ नहीं….. ये कड़वी यादें पीछा ही नहीं छोड़ती।
मम्मी, संदीप कह रहे हैं कि क्यों ना सगाई का बंदोबस्त यहाँ हमारे घर में रख लें , उनके रिश्तेदार भी होंगे?
नहीं बेटा, कल्पना जी ने किसी से कुछ नहीं छिपाया और जिस माँ के पास बेटियों के रूप में ऐसे कोहिनूर हीरे हों उसे कुछ भी छिपाने या शर्मिंदगी की ज़रूरत नहीं ।
मम्मी, आज मुझे आप पर गर्व है । मैं और संदीप राघव के साथ सुबह ही पहुँच जाएँगे ।
अगले दिन बहुत ही सादगी के साथ सौम्या और आशीष की सगाई संपन्न हो गई और विवाह का मुहूर्त एक महीने के बाद का निकला ।
दो चार दिन बाद कल्पना जी का फ़ोन आया—-
सरोज, मैं और आशीष तुम्हारी ससुराल जाकर एक बार सौम्या के दादा-दादी और पापा से मिलना चाहते हैं । कल इतवार है , तैयार रहना , चलेंगे ।
फ़ोन सुनते ही सरोज का मन बैठ गया —
हे मेरे भगवान! अब कौन सी परीक्षा रह गई ? सौम्या ! सौम्या!
हाँ मम्मी, आप इतना क्यों घबरा रही है और इतना पसीना ?
उन्होंने जल्दी-जल्दी फ़ोन आने की बात बताई ।
हाँ, मुझे पता है । आशीष मुझसे इस बारे में बात कर चुके हैं । चलते हैं मम्मी । एक बार उन भाग्यशालियों से मिल आते हैं । चाहो तो सोनिया दीदी को भी ले चलो ।
ना … उसे रहने दे । मेरा दिल घबरा रहा है ।
आपको घबराने की क्या ज़रूरत है?
अगले दिन सभी गाँव के लिए चल पड़े । पूरे रास्ते सरोज का मन बहुत सी आशंकाओं से भरकर घबरा रहा था पर वह कैसे रोकती ?
घर के दरवाज़े पर गाड़ी रुकते ही एक बार फिर से घर छोड़ने का पूरा घटनाक्रम सरोज के सामने आ गया ।
आँगन में ही माँ जी खाट पर लेटी थी और हमेशा चमचमाता रहने वाला घर जगह- जगह से उखड़े प्लास्टर तथा धूल मिट्टी से अटा एक अजीब से सन्नाटे से घिरा था ।
कौन है ? अरे बेटा , देख ज़रा …. कोई आया है…..
हाँ माँ, यहाँ कौन आएगा ? कान बज रहे हैं तुम्हारे….. ले खिचड़ी खा ले ।
बरसों बाद पति की आवाज़ सुनकर सरोज की आँखों से आँसू निकल आए । उसने अपनी सौम्या का हाथ पकड़ लिया ।
हाथ में खिचड़ी की थाली पकड़े सरोज का पति रसोई से बाहर निकला—-
कौन हो भाई, किसी का पता पूछना है क्या ?
तभी आगे आकर सौम्या बोली—-
पता तो अजनबी पूछते हैं पापा ! मैं और मम्मी तो सालों इसी घर में रहे हैं । यह आशीष हैं और ये इनकी माँ, मेरी होने वाली सास । ये उस घर के लोगों से मिलने आए हैं जहाँ लड़कियों को जन्म देने वाली माँ और जिन बहनों के भाई नहीं होते , उन्हें भाग्यहीन माना जाता है ।
तभी खाट पर लेटी सरोज की सास में न जाने कहाँ से स्फूर्ति आई कि वह सरोज को गले लगाकर बोली —-
ए बेटी , भाग्यहीन तो हम हैं जिन्होंने देवी के तीनों रूप में आई अपनी पोतियों का आदर नहीं किया । मैं तो अनपढ़ गँवार हूँ । कहाँ- कहाँ नहीं ढूँढा तुझे । इनका बाबा तो तरसता ही मर गया । बहू , माफ़ कर दें हमें । घर की सुख- शांति, बरकत सब चली गई तेरे साथ ।
पापा तो अनपढ़ नहीं है दादी । गाँव के स्कूल के हेडमास्टर हैं और उनका व्यवहार……
अब हमने जीना सीख लिया है । मेरी मम्मी ने बहुत कुछ सहा , केवल यह सोचकर कि आप कभी तो ठीक को ठीक और ग़लत को ग़लत कहेंगे पर वह इनकी भूल थी । चलिए आँटी, आप केवल एक बार यहाँ आकर देखना चाहती थी ।
सौम्या…. मेरी बच्ची! मैं असली दोषी हूँ । तुम्हारी माँ का , अपने माता-पिता का और तुम तीनों बहनों का । डिगरी तो ले ली थी पर मैं विचारों से अनपढ़ और गँवार ही रहा ।
कहते-कहते सरोज का पति हिचकियाँ लेने लगा । आज उसके मन में सच्चा पश्चाताप था । आशीष और सौम्या अपनी- अपनी माँ के साथ लौट आए ।
एक बार फिर से सरोज के जीवन में उथल-पुथल मच गई । सौम्या चुपचाप अपनी माँ को रात को रोते देखती , आँधी रात में घबराहट में जागते देखती । उसने आशीष, सोनिया और संदीप के साथ बात की तथा अपने विचार विमर्श में कल्पना जी को भी शामिल किया क्योंकि जवानी की ऊर्जा और अनुभव की गरिमा के साथ निर्णय लेने की आवश्यकता थी ।
एक सप्ताह बाद सरोज खाना खाकर लेटी थी कि डोरबेल बजी उन्होंने दरवाज़ा खोला तो हक्की- बक्की रह गई । दरवाज़े पर उनके पति और सास खड़े थे —-
सौम्या घर में नहीं है ।
बहू , अंदर आने को ना कहेगी ?
हाँ, अंदर बैठ जाओ । इतना कहकर सास के पैर छुए ।
मेरे बहू- बेटे की जोड़ी बनी रहे । भगवान मेरी पोतियों को लंबी उम्र दे , उनके घर में सुख शांति दे……
सरोज के कानों में सास का आशीर्वाद मंत्रों की भाँति गूँज रहा था । तभी दोनों बेटियाँ, दामाद और कल्पना जी ने घर में प्रवेश किया—-
सरोज ! जाओ बहन , अपने घर जाओ । भाई साहब को अपने किए पर पछतावा है । गलती इंसान से ही होती है । तुम्हें भाई साहब से शिकायत तो है पर तुम उनसे आज भी प्रेम करती हो । सौम्या ने भी छुट्टियाँ ले ली है । अगले हफ़्ते बारात लेकर आ रहे हैं, जाओ और तैयारी करो ।
सरोज ने सौम्या की तरफ़ देखा तो वह तो तीन/ चार सूटकेस के साथ पहले से ही तैयार थी । अब सरोज ने सोनिया की तरफ़ देखा । सोनिया ने माँ का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा—
मम्मी, कुछ बातों का भुलाना ही ठीक होता है । जो चला गया, लौटकर कभी नहीं आएगा पर बिगड़े को सुधारने में ही सबकी भलाई है । आज मैंने भी पापा को माफ़ किया वरना हममें और इनमें क्या फ़र्क़ रहेगा ।
सोनिया, तू भी आज ही चल ….
आप जाइए मम्मी, हम दो दिन बाद पहुँच जाएँगे ।
लेखिका : करुणा मलिक