अनुत्तरित प्रश्न…!! – विनोद सिन्हा “सुदामा”

सच कहूँ तो पितृ दिवस क्या होता है..कभी जाना और महसूस ही नहीं किया मैने…..

एक अरसा हुआ आपको मुझे और हम सभी को यूँ अकेला छोड़ कर गए हुए..तब से लेकर आज तक जाने कितने पल आएं और कितने गएं,ना जाने कितने ही रंग शामिल हुए जीवन में मेरे..लेकिन उस दिन के बाद मेरे चेहरे से मुस्कराहट के रंग कभी पूरी तरह खुलकर नहीं बह सकें..आपकी कमी हर कदम पर खलती रही है मुझे.।।।

सच तो ये है कि आपके दूर जाने का ग़म आज भी सालता है मुझे,एक हूक सी उठती है मेरे सीने में जब सोचता हूँ मैं आपको..याद करता हूँ आपको…!

अब भी थोड़ा थोड़ा याद है मुझे कैसे बचपन में मैं आपकी

उंगली को पकड़ कर चला करता था और मेरे बहुत ज्यादा थक जाने पर आप मुझे अपने कांधे पर चढ़ा लिया करते थे

कैसे आप मुझे अपने सिरहाने तले सुलाते थे,कैसे मेरे बालों में प्यार से उगलियाँ फेरा करते थे..!!

सब कुछ धुंधला धुंधला सा याद है मुझे पर देखा जाए तो उस दिन सिर्फ मैं ही अकेला और यतीम नहीं हुआ था कई और भी थे..!

उस दिन अकेले नहीं दम तोड़ा था आपने.? कितनों के अरमानों ने भी दम तोड़ा था,सिर्फ आप ही अकेले नहीं जले थे चिता पर उस रोज साथ आपके जला था एक सुहागन का सुहाग,उसकी आंखों में बसे हजारों रंगीन सपनें…

आपके साथ जली थी एक औरत की सारी ख़ुशियाँ,एक माँ के मन में जन्म लेती अनंत आकांक्षाएं,उसके छोटे छोटे बच्चों के अनगिनत ख्वाहिशें और उनकी जन्मी-अजन्मी कई हसरतें

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जिन्हें अकेला और अनाथ कर चले गएं थे आप अपने अनंतहीन सफ़र पर..जिनके आंखों के आसूँ आज भी उनका साथ नहीं छोड़ती,आज भी गाहे-बगाहे सामने ला खड़ा करती है आपको उनका मुज़रिम बना कर और पूछती है आपसे कई मासूम से सवाल..?

उनका कसूर,उनकी शिकायतें,उनकी मजबूरियां,आखिर

क्यूँ महरूम रहें वो आपके लाड़,आपके प्यार,आपकी स्नेहिल छत्रछाया से…पूछता है उनका बचपन आपसे क्यूँ नहीं बन सकें आप सहारा उनका,क्यूँ न चल सकें वो आपकी

उंगुलियों को पकड़ कर थोड़ी और दूर थोड़े और वक़्त के लिए….!

पर सच तो सच है और बदला भी नहीं जा सकता श्मसान से उठता धुआं और जलती लाशों की विषैली गंध के बीच

आपका पंच तत्व में समाहित होना हम सभी के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं था.

एक असहनीय दर्द,एक अंतहीन पीड़ा बहुत छोटा था मैं उस समय…बहुत याद भी नहीं मुझे लेकिन आज भी जब कहीं

कोई जलती चिता देखता हूँ तो सोचता हूँ जिसके ख़ुद के लहू से रूप लिया,जिसने सीचा हमें स्वंय के लहू पसीने से और जो

आज भी दौड़ता है धमनियों में हमारे लहू बनकर,क्यूँ और कैसे जलाया गया होगा आपको क्या पूरी तरह जल भी पाएं थे आप.?

या फिर रह गयी थी अधूरी दम तोड़ती आपकी भी चंद ख्वाहिशें उस रोज…? जलती “चिता” पर आहें भरती हुई

क्या बाकी रह गयी थी आपकी भी कुछ उम्मिदें ? जो बनी राख की ढेरी सुलगती रही थी चिता बुझने के बाद भी काफी देर तक…

कभी कहीं आप मिलो तो पूछूँ आपसे पूछूँ आपसे कि जलते समय ..क्यूँ आँखें गीली थी आपकी.? कौन सा गम था आपको ?

बहुत कुछ पूछना है आपसे..मेरे इस भटकते पिपासित मन में

बहुत से ऐसे प्रश्न हैं,जो आज भी अनुत्तरित हैं,आप जहाँ भी हैं सुन रहें हैं न “पापा”.? कभी न कभी जवाब़ देंगे न आप मेरे इन अनुत्तरित प्रश्नों का..?

या फिर मन यूँ ही पिपासित रहेगा सदा मेर हर अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर के लिए…

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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