विलास बहू (भाग-4) – संजीव जायसवाल ‘संजय’ : Moral stories in hindi

अविश्वश्नीय दृष्टि से स्क्रीन को देखते हुये उसने माउस क्लिक किया। अगले ही पल ई-मेल खुल गया। मोहनी ने सही कहा था। उसने परसों ही उसे असलियत से अवगत करा दिया था किन्तु जल्दबाजी में उसने ई-मेल को देखा ही नहीं था। किन्तु मोहनी और ई-मेल? रसोई की चाहरदीवारी में कैद देहाती औरत का लैपटाप – कम्पयूटर और इंटरनेट से क्या संबध? उसका दिमाग चकरा कर रह गया।

इसी कमरे में उसका और मोहनी का मिलन हुआ था। इसी कमरे में वह उसे छोड़ कर गया था। तब से दुनिया काफी बदल गयी थी। आज इस कमरे में वह अकेला बिस्तर पर पड़ा करवटें बदल रहा था। बहुत मुश्किलों से आधी रात के बाद नींद आ सकी।

सुबह जब उठा तो धूप निकल आयी थी। उसका मंजन-ब्रश और कुर्ता-पैजामा मेज पर रखा था। तैयार होकर नीये आया तो ललिता देवी नाश्ते के लिये उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होने फौरन दो प्लेटें लगा दीं।

‘‘मोहनी, न नाश्ता नहीं करेगी क्या?’’ उसने इधर-उधर देखते हुये पूछा।

‘‘वह विद्यालय गयी है ’’ ललिता देवी ने प्लेट उसके आगे बढ़ाते हुये बताया।

‘‘चरवाहा विद्यालय? सुना है इंडिया में आज कल इसका बहुत क्रेज है’’ विलास के होठ व्यंग्य से टेढे हो गये।

‘‘चैधरी कृष्ण बिहारी राय गर्ल्स डिग्री कालेज। कभी नाम सुना है उसका? मोहनी प्रिंसिपल है उसमें ’’ ललिता देवी का स्वर तेज हो गया। विलास के स्वर में छुपे व्यंग्य को वह समझ गयी थीं।

‘‘यह तो पिताजी का नाम है। उनके नाम का स्कूल किसने खोला और मोहनी उसमें प्रिंसिपल कैसे बन सकती है? वह तो…वह तो…’’आश्चर्यचकित विलास चाह कर भी अपना वाक्य पूरा नहीं कर सका।

‘‘वह तो गंवार और जाहिल है’’ ललिता देवी ने विलास का अधूरा वाक्य पूरा किया फिर फट पड़ीं, ‘‘इतने वर्षो में तूने पलट कर भी नहीं देखा कि हम लोग जिंदा है या नहीं और आज पूछता है कि पिताजी के नाम का स्कूल किसने खोला। जो काम तूझे करना चाहिये था वह बहू कर रही है। तेरे नाम का झूठा सिंदूर लगा कर वह तेरे पुरखों का नाम रौशन कर रही है और तू उसे तलाक देने की सोच रहा है। तेरी हिम्मत कैसे हुयी नोटिस भेजने की?’’

‘‘मां, मैं इस बारे में बात नहीं करना चाहता’’ विलास ने नाश्ते की प्लेट खिसका दी और मेज से उठ गया।

ललिता देवी उसे रोकती रही लेकिन वह तेजी से बाहर निकल आया। कल शाम को जब वह आया था तब अंधेरा घिर आया था इसलिये गांव को ठीक से देख नहीं पाया था। इस समय उसे यहां की रंगत बदली नजर आ रही। कई मकान पक्के हो गये थे और थोड़ी ही दूरी पर डिग्री कालेज की ईमारत गर्व से सिर उठाये खड़ी थी।

तेज कदमों से चलता हुआ विलास उसके करीब पहुंचा। प्रवेश-द्वार के उपर बड़े से बोर्ड पर  ‘चौधरी कृष्ण बिहारी राय गर्ल्स डिग्री कालेज’ लिखा हुआ था। थोड़ी दूरी पर ‘ललिता देवी महिला छात्रावास’ की ईमारत थी। अविश्वश्नीय दृष्टि से देखते हुये विलास कालेज के भीतर घुसने लगा।

‘‘बाबू साहब, ये लड़कियों का स्कूल है। आप भीतर नहीं जा सकते ’’ द्वार पर खड़े सुरक्षाकर्मी ने उसे रोक दिया।

विलास पल भर के लिये हड़बड़ाया फिर संभलते हुये बोला,‘‘मुझे कुछ जरूरी काम है।’’

‘‘बहू जी की आज्ञा है कि जिसको भी काम हो वह कालेज टाईम के बाद आये’’ सुरक्षाकर्मी ने टका सा उत्तर दिया।

‘‘कौन बहू जी?’’

सुरक्षाकर्मी ने विलास को यूं घूरा जैसे वह कोई अजूबा हो फिर बोला,‘‘विलास बहू, जिन्होने यह कालेज खोला है।’’

‘‘वे कैसी औरत हैं ?’’ विलास ने पूछा। वह मोहनी के बारे में जल्द से जल्द सब कुछ जान लेना चाहता था।

‘‘औरत? अरे वे तो देवी हैं देवी। यहां के जमींदार का बेटा उन्हें ब्याह कर लाया था लेकिन अभागा हीरे को पहचान न सका। बहू जी ने न केवल खुद की पढ़ाई पूरी की बल्कि पूरे ईलाके की लड़कियों की किस्मत बदल कर रख दी है। भगवान उन्हें लंबी उम्र दे’’ सुरक्षाकर्मी ने बताया। उसके स्वर से मोहनी के प्रति अपार श्रद्धा टपक रही थी।

तस्वीर काफी कुछ साफ हो चुकी थी। काफी देर तक इधर-उधर भटकने के बाद जब वह घर पहुंचा तो मुनीम जी एक मेटाडोर से कुछ सामान उतरवा रहे थे।

‘‘यह क्या है?’’ विलास ने यूं ही पूछ लिया।

‘‘ए.सी.। बहू जी कह रही थीं कि आप इतने साल अमेरिका में रहे हैं इसलिए यहां की गर्मी में दिक्कत होगी। तभी शहर से मंगवाया है’’ मुनीम जी ने बताया।

विलास को कोई जवाब नहीं सूझा। चुपचाप भीतर चला आया। किन्तु आज उसके आश्चर्य का अंत न था। बैठक के बगल वाले कमरे में प्रबंधक की तख्ती लगी हुयी थी। कल रात के अंधेरे में वह उसे देख न सका था। उत्सुकतावश दरवाजा खोल कर वह भीतर पहुंचा।

विशालकाय मेज के पीछे पिताजी की आदमकद तस्वीर लगी हुयी थी। एक कोने में रखा छोटा सा कम्पयूटर आधुनिकता की गवाही दे रहा था तो अल्मारी में सजी बहुमूल्य पुस्तकें अपनी स्वामिनी की परिष्कृत रूचि की साक्षी थीं। मेज के बीचो-बीच रखी काला गाउन पहने मोहनी की छोटी सी तस्वीर चीख-चीख कर कह रही थी कि इस कक्ष की स्वामिनी वह ही है।

विलास को अपना व्यक्तित्व काफी बौना लगने लगा था। चंद वर्षो में मोहनी ने वह कर दिखलाया था जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। उसकी सोच से परे बिल्कुल नवीन मोहनी उसके सामने खड़ी थी और उसमें उसका सामना कर पाने का साहस न था। वह चुपचाप अपने कक्ष में आकर लेट गया।

कालेज से लौट कर मोहनी ने जल्दी -जल्दी खाना लगवाया फिर मांजी और विलास को बुलवाया। विलास ने देखा मेज पर उसकी ही पसन्द की चीजें सजी हुयी थी। उसने मोहनी की ओर देखा फिर बोला,‘‘ तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद।’’

‘‘किस बात का?’’

‘‘तुमने इस घर के लिये, गांव के लिये इतना कुछ किया…’’

‘‘मेरा जो फर्ज था मैने किया। इसमें धन्यवाद की क्या बात? आप खाना खाईये। छोटी-छोटी बातें सोच कर परेशान मत होईये ’’ मोहनी ने निर्लिप्त भाव से थाली उसकी ओर बढ़ाते हुये कहा।

विलास कट कर रह गया। मोहनी की बातों का निहितार्थ वह समझ गया था। खाना बेस्वाद हो चुका था। वह चुपचाप कौर निगलता रहा। ललिता देवी ने कई बार बात करने की कोशिश की किन्तु वह बस हां – हूं करता रहा।

कभी-कभी दिन, रात से भी अधिक भयानक होता है। रात तो फिर भी कट जाती है लेकिन दिन बिताये नहीं बीतता है। विलास के लिये एक-एक पल भारी हो रहा था। समझ नही पा रहा था कि क्या करे। मांजी,  मोहनी और नैन्सी सब गड्मगड हुये जा रहे थे। बेचैनी जब बढ़ गयी तो एक बार फिर घर से बाहर निकल आया। खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, नदी-तालाब हर जगह भटकता रहा किन्तु कहीं शांति नहीं मिली।

रात का खाना भी उससे नहीं खाया गया। किसी तरह दो-चार कौर ठूंस कर अपने कमरे में लौट आया। वह कमरा जो कभी उसके और मोहनी के मिलन का साक्षी था, वह आज उसके अकेलेपन का गवाह था। उसकी दीवारें आज उसे अजनबी सी महसूस हो रही थीं। उस कमरे के भीतर आज उसकी सांस घुट रही थी।

रात्रि के बारह बज चुके थे। चारों ओर निस्तब्धता छायी हुयी थी किन्तु विलास के मन में अशांति छायी हुई थी। जब उससे रहा नहीं गया तो चुपचाप कमरे से बाहर निकल आया। सोचा छत पर खुली हवा में शायद कुछ शांति मिल सकेगी। उसने सीढियों पर पांव रखा ही था कि बगल के कमरे की खुली खिड़की पर दृष्टि पड़ते ही ठिठक गया।

कमरे के भीतर बिस्तर पर मोहनी सोयी हुयी थी। खुली खिड़की से प्रवेश कर रहीं चन्द्र किरणें उसके मासूम चेहरे से अठखेलियां कर रही थीं। चांदनी में नहाया उसका चेहरा पूर्णमासी के चांद की भांति खिला हुआ था। बिल्कुल निश्छल और निष्कलंक। उसकी मांग में जगमगा रहा सिंदूर उसकी गरिमा में कुछ और श्रीवृद्धि कर रहा था।

   यह सिंदूर तो उसके नाम का है। उसके अधिकार का है। उसके जीवन की सलामती का है। विलास के मन में अनायास ही भावनाओं का ज्वार उफन आया। सीढ़ियों से पांव पीछे खींच वह दरवाजे के करीब पहुंचा। हाथ के दबाव मात्र से दरवाजा खुल गया। गृह-स्वामिनी को अपने गृह में कोई भय न था इसीलिये भीतर से कुंडी बंद किये बिना सो रही थी।

पलंग के समीप पहुंच विलास,  मोहनी के चेहरे को निहारने लगा। वह आज भी उतनी ही आर्कषक और लावण्यमय प्रतीत हो रही थी जितना मिलन की प्रथम रात्रि को थी। उसकी दुग्ध सी स्निग्ध त्वचा, सुराही सी तराशी गर्दन, धौंकनी की तरह उपर-नीचे हो रही थी वक्ष स्थली और कमल की ढंठल की तरह पतला कटि-प्रदेश आज भी किसी विश्वामित्र की तपस्या भंग करने में सक्षम थे।

 विलास के हृदय के स्पंदन की गति तीव्र से तीव्रतम होने लगी। रक्त शिराओं में विद्युत-धारा प्रवाहित होने लगी। श्वास नलिका तूफान से प्रतिस्पर्धा करने लगी। सम्पूर्ण शरीर, प्रचंड आवेग के पराभूत हो थरथराने लगा। सम्मोहित विलास ने आगे बढ़ मोहनी के चेहरे को दोनों हाथों में सहेजा और उसके अधरों पर भरपूर चुंबन अंकित कर दिया।

‘‘कौन है?’’ मोहनी भयभीत हिरणी सी व्याकुल हो उठ बैठी।

‘‘मैं हूं, तुम्हारा विलास’’ प्रकम्पित अधरों से स्वर निकले।

‘‘आप, यहां क्या कर रहे हैं?’’ आश्चर्यचकित स्वर कांप उठा।

‘‘कोई प्रश्न मत करो। उन्हें अनुत्तरित रहने दो’’ प्यासे बाहों के बंधन आगे बढ़े।

‘‘मुझे स्पर्श करने का प्रयास भी मत करियेगा। दूर रहिये मुझसे’’ शांत स्वर में अशांति की गूंज, गूंज उठी।

‘‘मैं पति हूं तुम्हारा। मेरा अधिकार बनता है तुम पर’’ व्यग्रता, अधीरता में परिर्वतित होने लगी थी।

‘‘किस अधिकार की बात करते हैं आप? वह अधिकार जो चुटकी भर सिंदूर ने दिया था? वह अधिकार जो सात फेरो ने दिया था? वह अधिकार जो मोतियों के मंगल-सूत्र ने दिया था? या फिर वह अधिकार जो तलाक की नोटिस भेज कर आपने खो दिया है  या फिर वह अधिकार जो पुरूषों का जन्म-जन्मातंर से नारी पर रहा है और हर युग में रहेगा?’’ वर्षो से दबा आक्रोश ज्वालामुखी बन धधक उठा।

भौंचक्का विलास हतप्रभ रह गया। ऐसी स्थित की उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी। बरस रही मोहनी को शांत कर पाने का नैतिक साहस भी उसमें शेष न था। 

शब्दों के बाण कक्ष की दीवारों को चीर मां जी के कानों तक पहुंच गये थे। कोई भी मां बेटे को हताहत होता नहीं देख सकती। फौरन बेटे की मदद को आ पहुंची और डपटते हुये बोली,‘‘ बहू, यह कैसा अनर्थ मचा रही हो? अभी तलाक नहीं हुआ है, इस नाते विलास अभी भी तुम्हारा पति है।’’

‘‘जो पुरूष परायी स्त्री का हो गया वह मेरे लिये पर-पुरूष समान है और मैं किसी पर-पुरूष की छाया भी अपने तन पर नहीं पड़ने दूंगी’’ सती का सतीत्व धधक उठा।

‘‘वह मेरा बेटा है,  इस घर का स्वामी’’ माँ जी का स्वर कड़ा हो गया.

‘‘मैं भी इस घर की स्वामिनी हूं लेकिन जो यह कर के लौटे हैं अगर मैं वह कर के लौटती तो क्या आप मुझे स्वीकार कर पातीं? ’’मोहनी ने सीधे मां जी की आंखो में झांका।

मां जी ने घबरा कर पलकें बंद कर लीं। जीवन की एकलौती इच्छा बंद आंखों के सामने तैरने लगी तो झोली फैला कर बोलीं,‘‘ बहू,  मैनें हमेशा तेरा कहा माना है। बस तू मेरी एक इच्छा पूरी कर दे। मरने से पहले मैं इस घर के वंशज को गोद में खिलाना चाहती हूं।’’

‘‘ठीक है मांजी, जैसी आपकी आज्ञा ’’ मोहनी ने सास की आंखो में प्रज्जवलित हो उठे आशाओं के दीप को देखा फिर बोली,‘‘लेकिन लोगों की व्यंग्य भरी मुस्कान जब आपके उस वंशज से पूछेंगी कि सात-समन्दर पार रहने वाला उसका बाप एक ही रात में कितना बड़ा आशीर्वाद दे गया जो यह हवेली जगमगा उठी। तब मैं क्या जवाब दूंगी? यह बता दीजये उसके बाद आपकी सारी आज्ञायें शिरोधार्य हैं।’’

अपने होठों को दांतो से दबा मां जी सिसक पड़ी। विलास बहू के एक प्रश्न ने हजारों प्रश्नों के व्यूह की रचना कर दी थी जिसे भेद पाने की सामर्थ्य उनमें न थीं। विवशता गंगा की धार बन बह निकली।

मोहनी नारी थी और मां जी के दिल का हाल जानती थी। अतः दर्द भरे स्वर में बोली,‘‘मांजी, मैं अपने साथ हुये अन्याय को बर्दाश्त कर सकती हूं लेकिन नारी होने के नाते दूसरी नारी के साथ अन्याय करने में मैं सहभागिता नहीं कर सकती।’’

बहू की बातों का गूढ़ार्थ मांजी की समझ में नहीं आया तो उन्होने अर्थ भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा। मोहनी ने विलास पर एक उचटती हुयी दृष्टि डाली फिर बोली,‘‘आपके बेटे ने अब नैन्सी का हाथ थामा है और नैन्सी ने बहुत विश्वाश के साथ उसे आपके पास भेजा है। ऐसे में यदि मैं आपके बेटे की इच्छा पूर्ति करती हूं तो क्या वह दूर बैठी उस नारी के साथ विश्वासघात नहीं होगा? यदि ऐसा हुआ तो फिर आपकी बहू और उस विदेशी बाला में क्या फर्क रह जायेगा? यदि ये आपके पुत्र का रूप धर कर आये होते तो मैं इन्हें सिर आंखो पर बैठाती। किन्तु जिस रूप में यह आये हैं यदि उसमें मैं इनकी क्षणिक इच्छा की पूर्ति करती हूं तो किसी राहगीर को क्षणिक विश्राम प्रदान करने वाली गणिका के व्यापार और सती के सतीत्व में क्या फर्क रह जायेगा?’’

‘‘बस कर बेटा, बस कर। जो तू कर रही है, सोच रही है वही सत्य है और बाकी सब झूठ’’ मांजी पूरी शक्ति से बहू के सीने से लिपट गयीं। उनकी आंखो से गिरने वाला एक-एक मोती सच्चा था।

विलास बहू के घर में विलास मेहमान हो चुका था। अतिथि के अधिकारों का अतिक्रमण करने का साहस उसमें शेष न बचा था। पराये हो चुके अपने शरीर को घसीटते हुये वह कमरे से बाहर जाने लगा। मांजी की सिसकियां उसे जल्द से जल्द यहां से दूर चले जाने का आज्ञा दे रही थीं।

लेखक : संजीव जायसवाल ‘संजय’

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