विलास बहू (भाग-3) – संजीव जायसवाल ‘संजय’ : Moral stories in hindi

‘‘अपने ईलाके में लड़कियों के लिये एक भी डिग्री कालेज नहीं है। हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं है। अगर आप अनुमति दें तो पिताजी के नाम से एक डिग्री कालेज खोल दिया जाये’’ विलास बहू ने मन की इच्छा बतायी।

ललिता देवी सोच में डूब गयीं। उनके चेहरे पर एक के बाद एक भाव आ रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वह कोई बड़ा फैसला करना चाहती हैं।

‘‘मां जी, क्या सोचने लगीं?’’ विलास बहू ने टोंका।

‘‘मै स्कूल खोलने की अनुमति एक शर्त पर दे सकती हूं।’’

‘‘कैसी शर्त ?’’

‘‘तुझे भी उसमें पढ़ना होगा।’’

‘‘मैं भला कैसे पढ़ सकती हूं?’’ विलास बहू का स्वर कांप उठा।

‘‘बेटा, अभी तेरी उम्र ही क्या है। मात्र 21 बरस। अगर मैं तुझे न ले आती या रूक्मणी तुझे पढ़ाने के लिये शहर भेजने की हिम्मत जुटा पाती तो अभी तू पढ़ ही रही होती’’ ललिता देवी ने स्नेह से विलास बहू के सिर पर हाथ फेरा।

‘‘तब की बात और होती लेकिन अब शादी के बाद…’’

‘‘तुझे पढ़ना होगा बहू और विलास से ज्यादा पढ़ना होगा। यह साबित करना होगा कि तू किसी मामले में उससे कम नही है’’ ललिता देवी की आंखो से आसूं टपकने लगे। उनके अंतर्मन में इस बात की फांस थी कि उनके ही कारण बेटा, बहू को छोड़ गया है। उसे पढ़ा लिखा कर अब वे अपना प्रयाश्चित पूरा करना चाहती थीं।

विलास बहू ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिर्फ आखों से दो बूंद टपक पड़े। ललिता देवी ने उसे सीने से लिपटा लिया। दोनों एक दूसरे का दर्द समझतीं थीं। दोनों की हिचकियां एक दूसरे को दिलासा दिलाने लगीं।

अगले ही दिन दोनों शहर पहुंच गयीं। विलास बहू ने शहर के सबसे बड़े आर्कीटेक्ट से बात की। ललिता देवी ने पुरखों के खजाने का मुंह खोल दिया। देखते ही देखते कालेज की ईमारत बनने लगी। विलास बहू ने न दिन देखा और न रात। बस एक ही धुन समायी थी कि इस साल कालेज प्रारम्भ कर देना है। वह अपने एक पुराने प्राध्यापक पांडे जी को बुला लायी। कालेज चलाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी गयी।

सत्र प्रारम्भ होते ही विलास बहू ने भी बी.एस.सी. में दाखिला ले लिया। वह नियमित रूप से कक्षायें अटैंड करती और खाली समय में कालेज का प्रबंधन संभालती। वह कालेज में कम्पयूटर की कक्षायें भी प्रारम्भ करना चाहती थी किन्तु ललिता देवी काफी खर्चा कर चुकी थीं। कम्पयूटर खरीदने के लिये अब उनके पास पैसे न थे।

   इसके अलावा गांव में बिजली और टेलीफोन भी न था। किन्तु जहां चाह वहां राह। विलास बहू ने अपनी पचास तोले की करधनी बेंच दी। एक जनरेटर और 4 लैपटाप आ गये। दूसरी लड़कियों के साथ वह खुद भी कम्पयूटर सीखने में जुट गयी। उसकी लगन देख कर सभी दंग थे। प्रिसंपल पांडे जी तो कहते विलास बहू तपस्या कर रही है। इसका पुण्य उसे जन्म – जन्मातंर तक मिलता रहेगा।

देखते ही देखते छै साल कब बीत गये पता ही नहीं चला। प्रथम श्रेणी में एम.एस.सी और बी.एड. की परीक्षा उत्तीर्ण कर मैडम मोहनी राय चैधरी अब उसी कालेज में लेक्चरर हो गयी थी। किन्तु क्षात्राओं से लेकर स्टाफ तक के लोग उसे मैडम के बजाय विलास बहू ही कहते थे। मैडम मोहनी राय चैधरी को भी इसमें कोई आपत्ति न थी।

अमेरिका जाने के दो वर्षों बाद तक तो विलास के पत्र हर महीने आते रहे। फिर धीरे – धीरे पत्रों की संख्या कम होती गयी। अब छठे-छमाही ही कोई पत्र आता। शायद इस दुनिया को भूल वह दूसरी दुनिया में पूरी तरह रम गया था।

अचानक एक दिन पत्र आया। विलास का नहीं बल्कि उसके वकील का। वह अमेरिका में अपनी एक सहयोगी नैन्सी से शादी करना चाहता था इसलिये उसे मोहनी से तलाक चाहिये था। नोटिस देखते ही ललिता देवी हाय-हाय कर उठीं। किन्तु विलास बहू ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। नोटिस को पढ़ कर चुपचाप अल्मारी में रख दिया।

‘‘वह इस तरह दूसरी शादी कर तेरी तपस्या भंग नहीं कर सकता। कुछ कर बेटा। इस नोटिस का जवाब भेज। सुना है विलायत की कोर्ट-कचहरी सच्ची होती हैं। तुझे न्याय जरूर मिलेगा’’ ललिता देवी क्रंदन कर उठीं।

‘‘मां जी, कोर्ट के आदेश से जमीन- जायदाद हासिल की जाती है, दाम्पत्य सुख नहीं’’ विलास बहू ने र्निलिप्त भाव से उत्तर दिया और अपने कमरे में चली गयी।

ललिता देवी का कलेजा फटा जा रहा था। जीवन में कभी कोई सुख न मिला था और अब बुढ़ापे में इतना बड़ा झटका? उन्होने मुनीम को बुला कर आदेश दिया, ‘‘ शहर जाकर विलास को फोन करो कि मेरी तबियत बहुत खराब है। अगर फौरन न आया तो अंतिम दर्शन भी न कर पायेगा।’’

मुनीम समझ गया कि जरूर कोई अनहोनी हो गयी है। अतः फौरन शहर चला गया। लौट कर बताया कि विलास बाबू अगली फ्लाईट से इंडिया आ रहे हैं। परसों तक गांव पहुंच जायेगें।

ललिता देवी ने हुलसते हुये विलास बहू को खबर सुनायी ,‘‘एक बार वह नालायक आ जाये फिर कभी वापस नहीं जाने दूंगी। तेरे कदमों में बांध कर न डाल दिया तो मेरा नाम बदल देना।’’

‘‘मां जी, यह आपने अच्छा नहीं किया। झूठ के सहारे गढ़े गये संबध कभी प्रगाढ़ नहीं हो सकते हैं’’ विलास बहू ने धीमे स्वर में कहा।

‘‘अरे मति मारी गयी है तेरी। पति दूसरा ब्याह करने की सोच रहा है और तू पत्थर बनी बैठी है? बौरा गयी है तू’’ ललिता देवी फट पड़ीं। उस दिन उन्होने विलास बहू को खूब खरी-खोटी सुनायी।

वह सिर झुका कर चुपचाप सुनती रही। एक भी शब्द मुंह से नहीं निकाला। मांजी का दर्द समझती थी। कुछ कह कर उसे और नहीं बढ़ाना चाहती थी।

ललिता देवी का एक – एक पल बिताये न बीत रहा था। जिस दिन विलास को आना था सवेरे से दस बार छत पर जाकर देख आयीं थीं किन्तु गांव की कच्ची सड़क पर किसी गाड़ी की धूल उड़ती हुयी दिखायी न पड़ी।

   विलास बहू को कोई आतुरता न थी। हमेशा की ही तरह उठी। रसोई में जाकर विलास की पसंद का खाना बनवाया और किताबें उठा कर कालेज चली गयी। वापस लौटी तो ललिता देवी को वैसे ही बेकरार पाया।

शाम का धुंधलका होने पर घर के सामने एक जीप आकर रूकी। ललिता देवी दौड़ कर बाहर आयीं। विलास जीप से नीचे उतर रहा था। उन्हें देखते ही वह चौंक पड़ा,‘‘मां, तुम ठीक तो हो। मुनीम जी कह रहे थे कि…’’

‘‘भीतर चल फिर सब बतलाती हूं’’ ललिता देवी ने हुलस कर उसकी बांह थामीं और भीतर लिवा लायीं।

विलास अब तक असलियत समझ गया था। मोहनी पर दृष्टि पड़ते ही फट पडा ,‘‘तो इसके कहने पर तुमने झूठा फोन करवाया था।’’

‘‘मैने परसों ही आपको ई-मेल कर दिया था कि मांजी की तबियत बिल्कुल ठीक हैं। आप अगर अपने घर आना चाहें तो आराम से आयें’’ मोहनी ने धीमे स्वर में सफाई दी।

‘‘ई-मेल’’ विलास ने दांत भींचे फिर बोला,‘‘जानती हो ई-मेल क्या होता है? किसी पत्रिका में नाम पढ़ लिया और सोचती हो कि मैं रोब खा जाउंगा।’’

‘‘बहू अपने लालीपाप पर दुनिया भर में ई-मेल, सी-मेल भेजती रहती है’’ ललिता देवी ने फौरन बहू का पक्ष लिया।

‘‘मांजी, लालीपाप नहीं लैपटाप से ई-मेल किया जाता है’’ मोहनी ने धीमे स्वर में संशोधन किया।

जैसे कोई देहाती ए.बी.सी.डी. सुना कर किसी अंग्रेज पर रोब गालिब करने की कोशिश कर रहा हो। विलास को मोहनी का प्रयास कुछ वैसा ही लगा। वह बात आगे नहीं बढ़ाना चाहता था इसलिये चुप हो गया।

इतने वर्षो बाद बेटा आया था। ललिता देवी बहुत कुछ पूछना चाहती थीं, जानना चाहती थीं। विलास थोड़ी देर तक तो हां-हूं करता रहा फिर थकावट का बहाना कर उठ गया। मोहनी ने उसका सामान अपने कमरे में रखवा दिया था. अपना सामान उसने एक दिन पहले ही वहां से हटवा दिया था।

विलास जब कमरे में पहुंचा तो उसका लैपटाप मेज पर रखा हुआ था। दुनिया से सम्पर्क बना रहे इसलिये वह अमेरिका से उसे साथ ही लेकर आया था। दो दिनों से उसे अपनी मेल चेक करने का अवसर ही नहीं मिल पाया था। लैपटाप खोल कर उसने लाग-ईन किया और इंटरनेट से जुड़ गया। ई-मेल खोलते ही वह चौंक पड़ा। पहला मैसेज मोहनी के नाम का ही था और तारीख परसों की थी।

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