‘‘तुमने फिर इतने सारे जेवर क्यूं पहन लिये?’’ बिना किसी भूमिका के विलास ने सीधा प्रश्न किया।
‘‘मांजी ने पहनाये हैं’’ आनंदातिरेक में डूबी मोहनी ने बताया।
‘‘मुझे उलझन होती है, उतारों इन्हें’’ विलास झल्ला उठा।
‘‘ये मांजी का आशीर्वाद और मेरे सुहाग की निशानी हैं ’’ नववधू सहम उठी।
‘‘तुम्हें अपना जीवन सुहाग की निशानी के साथ नहीं, सुहाग के साथ गुजारना है और तुम्हारे सुहाग को ये सब ताम-झाम पसंद नहीं हैं। अच्छी तरह समझ लो इसे’’ विलास ने तेज स्वर में कहा और तौलिया उठा कर बाथरूम में चला गया।
विलास के अंतर्मन में जीवन-साथी के रूप में जीन्स-टाप और शॉर्ट्स पहनने वाली आधुनिका की छवि कैद थी। भारी-भरकम साड़ी और आभूषणों से एक दिन में ही उसका मन घबड़ा उठा था। उधर मोहनी उस माहौल से आयी थी जहां स्वर्णाभूषण ही नारी की प्रतिष्ठा के प्रतीक माने जाते हैं। अपनी हैसियत से वंचित होना दुख का स्वाभाविक कारण है। मोहनी भला अपवाद कैसे हो सकती थी। सिसकारियां भरते हुये वह पति-परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने लगी।
उसकी सिसकारियों की गूंज लालिता देवी के कानों तक पहूंच गयी थी। मन में अनेकों आशंकाये लिये जब वे विलास के कक्ष में पहुंची तब मोहनी अपने शरीर का अंतिम आभूषण उतार रही थी।
‘‘बहू, ये क्या अपशकुन कर रही हो। सुहागन होकर श्रंगारहीन?’’ लालिता देवी का स्वर कांप उठा।
‘‘मांजी, यह इनकी आज्ञा है’’ मोहनी फफक उठी।
असलियत जान लालिता देवी ने विलास को खूब फटकारा। अनेकों आर्कषक प्रस्तावों को ठुकरा कर उन्होने मोहनी को चुना था। उसके चांद जैसे चेहरे को देख रिश्तेदारों के कलेजे पर सांप लोट गये थे। पति की मौत के बाद किसी रिश्तेदार ने उनकी कोई मदद नहीं की थी, सभी ने उन्हें कमजोर ही करना चाहा था। अब वह अपनी बहू को स्वर्णाभूषणों से लाद कर अपने राय खानदान की हैसियत का प्रर्दशन करना चाहती थीं और विलास चाहता था कि उनकी बहू फटीचरों की तरह रहे?
उन्होने अपने हाथों से एक-एक आभूषण पहना कर बहू को किसी राजकुमारी की भांति सजा दिया। विलास की एक न सुनी। मोहनी, उच्चशिक्षित विलास के मानसिक स्तर की न थी किन्तु उसने यह सोच कर समझौता कर लिया था कि वह उसे अपने अनुकूल ढाल लेगा। किन्तु मोहनी उसके बजाय मांजी के अनकूल ढलती चली गयी।
विलास का मन करता कि पत्नी को लेकर कहीं घूमने जाये किन्तु उसे घर में रह कर मांजी की सेवा करने में ज्यादा आनंद आता। वह चाहता था कि मोहनी उसके साथ तेज धुनों पर नाचे – गाये किन्तु मोहनी को घर के मंदिर में भजन गाने में ज्यादा आनंद आता। विलास की इच्छा मोहनी को आधुनिका बनाने की थी किन्तु उसे कर्तव्यों और परम्पपराओं का पालन करने में असीम शांति मिलती थी।
मनपसंद बहू पाकर ललिता देवी धन्य हो उठी थीं। किन्तु विलास का मन उचटने लगा था। वह छुट्टियां खत्म होने से पहले ही दिल्ली लौट गया। मां को बताया कि कम्पनी उसे कुछ दिनों के लिये अमेरिका भेज रही है इसलिये ट्रेनिग करना जरूरी है। भोली-भाली मोहनी पति के मन की बात भांप न सकी।
दिन, सप्ताह करके तीन महीने बीत गये। ललिता देवी रोज पूंछती,‘‘विलास बहू, क्या कोई चिट्ठी आयी?’’
वे दोनों ही उत्तर जानती थीं फिर भी ललिता देवी बिना नागा प्रश्न पूछतीं और विलास बहू इन्कार में सिर हिला देती। कहती ‘बहुत काम होगा। चिट्ठी लिखने का समय नहीं निकाल पाते होंगें।’
पर चिट्ठी एक दिन आ ही गयी। लिखा था कि अमेरिका की एक कम्पनी में नौकरी मिल गयी है। अगले सप्ताह वहां जा रहा हूँ। मां से सफलता का आशीर्वाद मांगा था विलास ने। सन्न रह गयीं ललिता देवी। 4 – 6 महीने के लिये अमेरिका जाने की बात और थी किन्तु वहां नौकरी करने का मतलब था कि बेटा अब वापस नहीं आयेगा।
‘‘विलास बहू, तैयारी कर। कल ही दिल्ली चलना है’’ ललिता देवी ने फैसला सुनाया।
‘‘किसलिये?’’
‘‘विलास को रोकने। वह मुझसे और तुझसे मिले बिना भला कैसे जा सकता है? उसे रोकना होगा’’ ललिता देवी ने इस उम्मीद से कहा मानो बहू के मन की बात कह रही हों।
‘‘वे आपके बेटे हैं। आपको उनके पास जाने का हक है’’ विलास बहू ने धीमे स्वर में कहा।
‘‘और तेरा हक?’’
‘‘मेरा हक यह है कि वे मुझे लिवाने आयें तभी जाउंगी ’’ स्वाभिमानिनी ने फैसला सुनाया।
सास ने बहुत उंच-नीच समझायी, दुनियादारी दिखलायी पर विलास बहू न मानी तो न मानी। एक ही रट थी। अपना हक भीख में नहीं लेगी। जिसकी जिम्मेदारी है वह निभाये तो ठीक, न निभाये तो जिस देहरी पर डोली आयी है वहीं जिंदगी काट देगी।
बहू की बातों ने मां का स्वाभिमान भी जगा दिया था। न विलास ने बुलाया और न ही वे मिलने गयीं। उसने आशीर्वाद मांगा था सो पत्र लिख कर आशीर्वाद भेज दिया।
विलास चला गया लेकिन विलास बहू ने घर की जिम्मेदारी बखूबी संभाल ली थी। भंडारगृह से लेकर अनाज – गोदाम तक का पूरा हिसाब – किताब उसे सौंप कर ललिता देवी निश्चिंत हो गयी थीं। क्या बनना है, क्या खाना है से लेकर खेतों में क्या बोना है और कब फसल बेचनी है, सारी बातें नौकर और मुनीम अब उसी से पूछने लगे थे। विलास बहू की योग्यता और कर्मठता से ललिता देवी धन्य थीं। अक्सर हुलस कर कहतीं कि तू बहू नहीं बेटा है मेरा। पिछले जन्म में मैने जरूर कोई पुण्य किया होगा तभी तेरा साथ मिला है।
पिछला जन्म होता है या नहीं, मोहनी नहीं जानती थीं। किन्तु इस जन्म में जिसका साथ मिलना चाहिये था वह क्यूं नहीं मिला? यह वह अक्सर सोचती रहती। यह सब भाग्य का खेल था? विधना का लेख था या फिर होनी थी, बैठी हिसाब लगाती रहती। तर्को को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसती रहती किंतु उत्तर न मिलता।
‘‘जानती हैं मांजी, वे हमें छोड़ कर क्यों चले गये?’’ एक दिन उसने कहा।
‘‘किस्मत खोटी थी उसकी जो हीरे को पहचान न सका’’ ललिता देवी ने ठंढी सांस भरी।
‘‘हीरा तो कोयला होता है। अगर तराशा न जाये तो न पहचानने का देाश भला दूसरे पर कैसे लगाया जा सकता है ?’’ विलास बहू के चेहरे पर दर्द की रेखायें उभर आयीं।
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘बताईये क्या कमी है मेरे भीतर? रंग, रूप, गुण, आर्कषण क्या कुछ नहीं है मेरे पास?’’ विलास बहू ने सास की आखों में झांका। वहां असमंजस के चिन्ह देख बात आगे बढ़ायी ,‘‘बस एक ही कमी थी मुझमें कि समय के साथ न चल सकी। उनकी जरूरत के मुताबिक खुद को न ढाल सकी। लेकिन मैं चाहती हूं कि किसी और के साथ ऐसा न हो। इसलिये मैं….’’
कहते – कहते रूक गयी वह। ललिता देवी बहुत ध्यान से बहू की बातें सुन रही थीं। उसे चुप होता देख पूछा,‘‘इसलिये क्या करना चाहती हो तुम?’’
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विलास बहू (भाग-3) – संजीव जायसवाल ‘संजय’ : Moral stories in hindi