विलास बहू (भाग-1) – संजीव जायसवाल ‘संजय’ : Moral stories in hindi

चांद सा चेहरा, दूध सी स्निग्ध त्वचा, झील सी नीली आंखें, मोती सी दंत-पंक्तियां, गुलाब से होंठ और हंसिनी सी चाल। ये सारी उपमायें उस नन्हीं सी जान के लिये थीं जिसे ललिता देवी लाखों में छांट कर लायी थीं।

जमींदार घराने का एकलौता चांद था विलास। सोने पर सुहागा यह कि आई.आई.टी. से इंजीनयरिंग करने के बाद उसने आई.आई.एम, अहमदाबाद से एम.बी.ए. की परीक्षा गोल्ड-मेडल लेकर उत्तीर्ण की थी। मल्टीनेशनल कम्पनियों से लेकर बड़े-बड़े धनकुबेर और नौकरशाह उसके लिये पलकें बिछायें बैठे थे। पचास-साठ के शुरूआती पैकेज के साथ-साथ यू.के. और स्टेट्स में नियुक्ति के प्रस्ताव आगे-पीछे घूम रहे थे। सुन्दर-सलोनी नवयौवनाओं के माता-पिता तो उसके लिये मंहमांगी कीमत अदा करने के लिये प्रतिस्पर्धारत थे।

पर ललिता देवी को पसंद आयी अपने बचपन की सहेली रूक्मणी की इंटर पास बेटी मोहनी। कंप्यूटर-सेवी विलास के अंतर्मन में जीवन संगनी के रूप में किसी हाईटेक बाला की मूर्ति स्थापित थी। जिससे वह अपनी पर्सनल लाईफ के साथ-साथ प्रोफेशनल लाईफ को भी शेयर कर सके। उसने दबे स्वर में मां से अपनी इच्छा जाहिर भी की थी।

‘‘बेटा, मुझे जिंदगी में कभी कोई सुख नहीं मिला। तेरे पिता मुझे दुनिया में अकेला छोड़ गये थे। अपनी नौकरी के चक्कर में तू भी मेरे साथ गांव में नहीं रह सकता। कम से कम मुझे कुछ दिनों तक बहू का सुख तो भोग लेने दे। अगर तू गिट-पिट, गिट-पिट वाली ले आया तो वह तो एक दिन भी मेरे साथ गांव में नहीं टिकेगी’’ ललिता देवी के तर्क ने विलास के सारे तर्कों को पराजित कर दिया।

शादी के मात्र दो वर्षों बाद विधवा हुयी मां ने विलास को पालने के लिये अपनी सारी इच्छाओं की बलि दे दी थी। अब उनकी एकलौती इच्छा ढेर सारे पोता – पोतियों को खिलाने की थी। उनकी किलकारियों से हवेली को एक बार फिर गुलजार करने की थी। विलास जानता था कि उसकी हाई-प्रोफाईल बीबी, मां की इच्छा पूरी नहीं कर सकती। इसलिये उसने हथियार डाल दिये थे।

मिलन-रात्रि की बेला पर विलास ने नख से शिख तक स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित मोहनी के दिदीप्तिमान चेहरे को देखा तो अपलक देखता ही रह गया। उसकी इस अधिकारिक धृष्टता से मोहनी की पलकें लाज से झुकी जा रही थीं और प्रकम्पित होंठों की कंपकंपाहट हर पल बढ़ती जा रही थी। घबराहट में पैर के अंगूठे से फर्श को कुरेदने का असफल प्रयास करती हुयी वह लाजवन्ती, मां की पहली सीख ही भूल गयी। पति परमेश्वर का प्रथम स्पर्श उसके चरणों को छूकर करना है, उसे याद ही न रहा।

विलास को भी कहां कुछ मालुम था। पर अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुये वह किसी अनाड़ी की भांति कोमंलागनी पत्नी के शरीर से भारी-भरकम आभूषणों का बोझ कम करने लगा। किन्तु चार तोले के रत्नजटित मांग-टीके को केशों से अलग करने में ही उसकी सारी प्रबंधन योग्यता असफल सिद्ध हो गयी। टीके के साथ कई केश भी उखड़ कर हाथ में आ गये तो कंचनकाया की सिसकारी पर वह झेंप कर रह गया।

रूपगर्विता की सुंदर नासिका से अठखेलियां कर रही नथ के साथ काफी माथा-पच्ची करने के बाद भी जब उसे खोलने की तरकीब समझ में न आयी तो उसके कंठ में पड़े बीस-बीस तोले के चन्द्रहार और रत्नहार को उतार कर उसने राहत की सांस ली। बाजूबंद के आसानी से खुलने की सफलता के बाद वह मोहनी के हाथों की उंगलियों में फंसी हथफूलों की लड़ियो से उलझ कर रह गया। एक-एक लड़ी को सुलझाना उसे गणित के जटिल प्रश्नों को सुलझाने से भी अधिकजटिल लग रहा था।

संगनी के स्पर्श की उष्मा विलास के तन-मन को उद्वेलित करती जा रही थी। एक झटके के साथ कमर में पड़ी पचास तोले की कर्धनी को उछाल कर फेंकने के बाद उसने जब मोहनी के चेहरे की ओर देखा तो कसमसा कर रह गया। भारी-भरकम नथ और कानों से झूल रहे बड़े-बड़े कर्णफूल अभी भी मुंह चिढ़ा रहे थे।

‘‘उफ्फ, ये क्या बेवकूफी है? तुमसे किसने इतने सारे जेवर पहनने के लिये कहा था?’’ न चाहते हुये भी वह झल्ला उठा।

मोहनी की समझ में ही नहीं आया कि पति के इस प्रथम संबोधन पर कैसे प्रतिक्रिया व्यक्त करे। घबराहट में उसके चेहरे की लाली कुछ और बढ गयी और माथे पर पसीने की बूंद चुहचुहा आयीं। विलास को भी अपनी गल्ती का एहसास हो गया था। अतः मोती की उन बूंदों को पोंछते हुये उसने एक भरपूर चुम्बन जड़ दिया। उसकी अनुगूंज मोहनी के तन-मन में गूंज गयी और दो अलग-अलग पथिकों को एक होते देर न लगी।

तृप्ति के सागर में गोते लगाने के बाद विलास गहरी निंद्रा के आगोश में चला गया। सुबह चूड़ियों की खनखनाहट सुन उसकी नींद खुली। जमींदार घराने की बहू पूर्ण श्रंगार किये सामने खड़ी थी। उसके तन पर रात्रि से भी अधिक आभूषण अभिभूषित थे।

‘‘नीचे चलिये, मांजी काफी देर से नाश्ते के लिये आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं’’ लाज से बोझिल अपनी पलकों को उपर उठाते हुये मोहनी ने कहा।

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