गृह प्रवेश – हरी दत्त शर्मा : Moral Stories in Hindi

   विद्यालय से लौट कर शाम को जब मैं घर पहुंचा तो बैठक में एक महिला को अपनी बेटी के साथ बैठे पाया। यही कोई पैंतीस साल की उम्र रही होगी। पर सुगठित और आकर्षक शारीरिक वनावट से उसकी उम्र तीस साल से अधिक नहीं लग रही थी। बेटी भी लगभग बारह चौदह बरस की होगी।

   मेरी पत्नी शांति भी वहीं बैठी थी। मेरे कमरे में घुसते ही दोनों माँ बेटी हाथ जोड कर अभिवादन की मुद्रा में खड़ी हो गईं। अभिवादन स्वीकार कर मैंने बैठने का इशारा किया और एक ओर खुद भी बैठ गया।

  शांति ने बताया कि ये सुधा है अपने गाँव के पास ही इनका गाँव है। बेटी को यहीं शहर में रहकर पढाई करनी है। किराऐ पर अपना मकान चाहती हैं।

   ” और कौन कौन है घर में? ” मैने उन माँ बेटी की वस्तु स्थिति जानने की कोशिश की। मकान किराए पर उठाने से पहले जानना जरूरी भी था।

   ‘दोनों माँ बेटी ही हैं ‘ उसने बताया ‘ मेरा नाम सुधा है और बेटी आभा, पति दस साल पहले एक सड़क दुर्घटना में गुज़र गए। कभी कभार भाई ही आता है खैर खबर लेने और शायद नहीं भी। ‘

   कुछ आवश्यक हिदायतें देकर मैने अपनी रजामंदी देदी। मेरे बच्चे बाहर होस्टल में रहकर पढाई कर रहे थे, घर में हम भी दो पति पत्नी ही थे। ‘शांति का मन भी लगा रहेगा ‘ ये सोच कर मैने हामी भर दी।

  अगले दिन ही मां बेटी अपने जरूरत के सामान के साथ आ गईं।

   आठ दस दिन गुजर गए। शांति अब पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी। शायद बच्चों के बाहर निकलने के बाद दो साल की नीरस जिंदगी से निजात दिलाने माँ बेटी आ गई थीं।

   इतने दिनों में जो मैने देखा और महसूस किया वो ये कि अधिकांश समय उसकी बेटी आभा पढती रहती, शांति और सुधा एक दूसरे से बात चीत में मशगूल रहते।

 घर की साफ सफाई, का खयाल रखना, सामान सलीके से रखना, शांति के काम में मदद करना आदि सभी काम सुधा ने अपने ऊपर ले रखे थे।

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  सब ठीक ठाक चलने लगा।

  बोलचाल की सभ्यता, पहनने ओढने का सलीका और शालीनता भरे व्यवहार का में कायल सा होता जा रहा था। कभी आभा अपनी गणितीय समस्या लेकर मेरे पास आ जाती और मैं हल निकाल कर उसे समझा देता। इस दौरान सुधा चाय बनाकर ले आती और फिर हम चारो साथ साथ चाय पीते ।

   ” सुधा, तुम्हारा भाई अभी तक एक बार भी तुम से मिलने नहीं आया? ” एक महीना बीत जाने पर मैने पूछा।

   उसके चेहरे पर सौम्यता की जगह गंभीरता छा गई,

  ” ना ही आये तो ही ठीक है, मुझे ऐसे किसी भी व्यक्ति या सहारे की जरूरत नहीं है जो सिर्फ अपना उल्लू सीधा करना चाहता हो। “

 ” ऐसा क्या ? “

 ” आप शायद नहीं जानते ,मांबाप के न रहने पर मायका मायका नहीं रह जाता, और भाई पर भाभी का एकाधिपत्य हो जाता है। “

    “फिर भी , रिश्ते थोड़ी ना खत्म हो जाते? ” शांति ने चिंतित हो कर सवाल किया। 

  ” कैसा रिश्ता दीदी, जबतक ससुराल से जायदाद का हिस्सा नहीं मिला, तब तक हर हफ्ते भाई भाभी खैर खबर लेने आते रहे ।” सुधा उदास मन से अपनी व्यथा सुना रही थी। ” फिर जब हिस्सा और इसके पापा के बीमे का पैसा हाथ में आया तो भाई और भाभी ने अपनी तंगी और जरूरतों का हवाला देते हुए रोना शुरू कर दिया। जल्द बापस करने की कसमें खा खा कर दो लाख रुपए खींच ले गए। अब तो फोन पर भी कभी कभी ही बात करते हैं।”

  ” मतलब  अब पैसा बापस मिलने की कोई आशा नहीं है? “

  सुधा ने ‘ना  ‘ में सिर हिला दिया।

 हम दोनों पति पत्नी भावुक हो उठे। ” जेठ जेठानी या ससुर ने भी कोई खबर नहीं ली? “

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    ” जायदाद से हिस्सा निकलते ही हम लोगों से जेठानी ने नाता तोड़ दिया। अब हमारे लिए वहां कोई जगह नहीं है। ” कहते कहते सुधा की आवाज़ भर्रा गई।

  मैं सुधा की विवशता पर द्रवित हो गया, ” संभालो अपनेआप को,  दुखी और कमजोर होने की जरुरत नहीं है। जो कुछ भी तुम्हें उपलब्ध है, उसे अपना और अपनी बेटी का सँबल बनाओ। हम हर तरीके से सहयोग करने के लिए तैयार हैं। ” मैने सुधा को ढाढस बंधाते हुए आभा के सिर पर हाथ फेरा।

  ” मैं कमजोर नहीं हूं, “सुधा फिर बोलने लगी , ” और… और ना ही आभा को कमज़ोर पडने दूंगी। मेरे पास इतना पैसा तो है कि आभा की जिंदगी संवार पाऊं। रिशतेदारों की मदद की जरूरत नहीं है, पर अपनों की कमी कभी न कभी तो खलती ही है। “

  ” हमें अपना ही समझो, ” इस बार शांति ने सुधा के कंधे पर थपथपाया।

  अब उस दिन के बाद से शांति और सुधा के बीच आत्मीयता बडती ही गई।

  उसकी वैचारिक क्षमता और आभा के भविष्य को संवारने की लगन देख कर मैं महसूस कर रहा था कि परिस्थिति क्यों न बिपरीत हों, चारित्रिक और नैतिक संबल किसी भी महिला को कमज़ोर नहीं पडने देता।

न जाने क्यों, मेरे अंदर कुछ हलचल सी रहने लगी। सुधा का वैधव्य मुझे कचोटने लगा था।

   उसके वैधव्य पर चर्चा करने का मैं न तो नैतिक साहस जुटा पाया और ना ही मेरी अंतरात्मा ने इजाजत दी। परंतु मैं महसूस कर रहा था कि मैं कमजोर सा पडता जा रहा हूँ। उसका आत्मीय व्यवहार और भरा हुआ बदन मेरे मन में हलचल पैदा कर रहा था। पर मेरा नैतिक संबल मुझे बिचलित होने से पहले ही रोक लेता।

   एक अदद सुंदर और शिक्षित पत्नी के होते हुए भी मन में ऐसे विचारों का आगमन मेरे चरित्र पर मुझे खुद लांछन जैसा लग रहा था। मेरे बच्चे भी बड़े हो चुके थे और सुधा और मेरी उम्र में लगभग पंद्रह साल का फासला रहा होगा।

जो भी हो, मन में उठने बाले अनैतिक बिचारों को मैं झटक कर छिन्न भिन्न कर देता।

   अब दोनों चूल्हे साझा हो गए थे। पत्नी अगर खाना बनाती, तो सुधा झाड़ू बरतन निपटाती। एक कपड़े धोती तो दूसरी फैला कर सुखाने में मददगार होती। आभा की भी बाल सुलभ चंचलता मुखर हो उठी थी।अब वह मुझे ताऊजी और कभी कभी ताया कहकर बुलाने लगी थी।  पारिवारिक परिवेश पनप चुका था।

    इस दौरान मैं महसूस कर रहा था कि मेरे अंतर में बहुत कुछ बदल सा गया है। न चाहते हुए भी मेरी नजरें कभी सुधा के रूपस चेहरे पर गढ जाती तो कभी उसके भरे हुए वदन पर। कभी कभी नजरें चार भी हो जाती तो मैं घबरा कर दूसरी ओर देखने लगता। वो भी मुशकरा कर इधर उधर हो जाती।

  ‘ क्या ये अनुरक्ति है’ ? 

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‘नहीं , नहीं। ये महज एक आकर्षण है। इस पर आगे बढना अनाचरणीय कुप्रयास है। ‘ चंचल मन पर विवेक हावी हो जाता और  मैं सँभल जाता।

   पर कब तक? 

      मैं समरसता के इस तानेवाने की कमजोर कढी कब और कैसे बन गया, पता ही नहीं चला।

   उस दिन मेरा अवकाश था। सुबह सुबह शांति नहाकर मंदिर जाने की तैयारी कर रही थी। सुधा किचन में ही थी।

 ” एक कप चाय मिलेगी? ” मैं शांति से बोला।

  ” सुधा, जरा इनके लिए चाय बना देना, मुझे मंदिर के लिए देर हो रही है। ” शांति अपनी पूजा की टोकरी लेकर बाहर निकल गई।

  मैं बैठ कर न्यूज पेपर पलटने लगा।

” ये लीजिए, ” सुधा ने चाय टेवल पर रखी और खडी हो गई। इतना नजदीक कि उसकी महक से मैं सराबोर हो गया।

 “कुछ बिस्किट बगैरा लेंगे? ” उसके चेहरे पर निश्छलता थी।

    उसकी नजदीकी और महक मुझे उन्माद से भर गई ।

उन्मादी मन विवेक पर हावी हो गया। बुद्धि कुबुद्धि का काम कर बैठी। मैने सुधा का हाथ पकड लिया,  “क्या तुम्हें…….. मेरी….. ”  शरीर में करंट सा दोड गया। शब्द अटक कर गले में फंसे रह गए।

  वह हतप्रद सी खड़ी रह गयी। शायद उसे मुझसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी।

  ”  ये ….. ये मेरी … जरूरत नहीं है ” अपने दूसरे हाथ से मेरा हाथ अलग करते हुए कहा और तेज कदमों से अपने कमरे में चली गई।

    मैं आसमान से एक ही क्षण में जमीन पर आ गिरा। रगों में दौड़ता खून जम गया और तनबदन सुन्न पड गया।

क्षणमात्र में खुद का ही चारित्रिक पतन कर बैठा। अपराध वोध से ग्रस्त हो कर मैं बाहर निकल आया।

 

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     घृणित दुराग्रह से उत्पन्न मानसिक पीड़ा ने मुझे तनाव की स्थिति में खड़ा कर दिया। सूझ नहीं रहा था कि शांति और सुधा का सामना कैसे कर पाऊंगा। शांति के हृदय में जीवन भर के लिए ऐक आदर्श पति की छवि बनाई थी, छितर वितर हो जाएगी। सुधा की नजर में भी अब सम्मान नही दिखाई देगा जो अब तक मिल रहा था।

  आत्म ग्लानि की तपिश से दुखी और मानसिक शून्यता के चलते मैं पार्क में चला गया। बेचैनी में कभीचहलकदमी करता कभी बेंच पर बैठ जाता। समय भी इतना भारी हो सकता है कि एक एक पल भी युगों के बराबर हो जाताहै।

   ” खाने का समय हो गया है और आप…….. ” पीछे से आवाज सुनाई दी, सुधा कब आकर खड़ी हो गई न जान पाया। ” शांति दी ने बताया था कि आप यहां ही होंगे, “

मैं आत्म ग्लानि और शब्द शून्यता से तरबतर हो गया। शायद वह मेरी मनोदशा भाँप गई थी ” बैठिए ” बेंच की ओर इशारा किया और खुद एक ओर बैठ गई। मैं भी किसी कठपुतली की तरह बैठ गया।

   ” मैने शांति दी को कुछ भी नहीं बताया है, ” उसकी आवाज में वही शालीनता थी। ” और ना ही कभी किसी को बताने की इच्छा है। यकीन मानिए, मैं आपकी छवि  धूमिल करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहती। मेरी सोच एसी कभी नहीं रही। “

  ” वह क्षण मेरे लिए भी उतना ही कमजोर था कि मैं भी टूट कर बिखर गई होती ,अगर…. अगर मुझे आभा के भविष्य का खयाल ना आता। ” वह बोलती गई और मैं सिर झुकाए मूर्तिवत सुनता रहा। ” पति के गुज़र जाने के बाद मेरे जेठ भी यही सब चाहते थे। अभी पति की चिता ठंडी भी नहीं हुई थी कि जेठ की हरकतें शुरू हो गईं।

रोज शराब में धुत होकर आते और अनैतिक हरकतों पर उतारू हो जाते।पर मैने उनकी कुचेशटा को कभी सफल नहीं होने दिया। जेठानी को डर था कि मैं अपना हिस्सा लेकर अलग न हो जाऊं और आधी जायदाद से वो हाथ धो बैठे। जेठ और ससुर के कान में जहर वही घोल रही थी। डरी सहमी सी मै अपनी बेटी को लेकर कमरे के कोने में बैठी रहती। फिर एक दिन मुझे खडा होना ही पडा।

खड़ी न होती तो शायद जीतेजी मर जाती। “

  वह बोलती रही, मैं सुनता रहा।

   “उस दिन शाम को मैं छत से कपड़े उतार कर ला रही थी ,कमरे में जाकर देखा तो संन रह गयी। जेठ नशे में धुत होकर आभा को अपने आगोश में जकडे हुए था। आभा छूटने के लिए छटपटा रही थी। चीख भी नहीं पा रही थी क्योंकि उसने हाथ से उसका मुह भींच रखा था। क्रोध के आवेश में मुझे कुछ न सूझा, मैने पास में पडा लकडी का पुराना स्टूल उठा कर जेठ के सिर पर दे मारा और आभा को छुडाया। ना जाने कहाँ से मुझ में ताकत आ गई, जमीन पर बेहोश पड़े उस नराधम की घसीट कर आँगन में पटक दिया। “]

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जब सास बनी गई माँ !

  “फिर उस रात घर में जो तांडव हुआ, मैने ही किया। ससुर आँखों में आँसू लिए घुटनों में मुह छुपाए बैठे रहे।

रात तो बीत गई, अगला दिन भी गुज़र गया पर मेरा क्रोध शांत न हुआ। शाम को ससुर आवाज देते हुए कमरे में आए और एक थैला हाथ में थमाते हुए बोले, ‘मैं तेरे लिए इससे अधिक कुछ नहीं कर पा रहा हूँ ‘। और बाहर निकल गए। थैले में दस बारह लाख रुपए और मेरे पति के हिस्से की जमीन के पेपर थे,जो ससुर पहले ही तैयार करा चुके थे ।

    अब मुझे वहां रहना उचित नहीं लगा। अपनी और बेटी की अस्मिता को बचाए रखना वहां संभव नहीं रहा था। उस दिन से प्रण कर लिया कि आभा को इतना काबिल बनाना है कि वह हर अनैतिक दुराग्रह का कठोरता से प्रतिकार करने में सक्षम हो। और फिर मैं यहाँ आ गई। “

 ” उफ! मैं भी……. क्या लेकर बैठ गई, ” सुधा उठ खड़ी हुई। ” घर चलिए, दीदी इंतजार करती होंगी “

   “तुम.. तुम चलो, मैं आता हूँ, ” मैं भी उठ खड़ा हुआ।

घर पर सब कुछ सामान्य था, बिलकुल पहले जैसा। परंतु मेरे अंतर में बहुत परिवर्तन हो चुका था।  ‘मैं भी अपराधी हूं ‘ बस, इसके अलावा मन कुछ और मानने के लिए तैयार नहीं था।

   अगले दिन शाम को जब विद्यालय से लौटा तो पता चला कि सुधा आभा को लेकर जा चुकी है। यों उसके अचानक जाने का कारण जो सुधा ने शांति को बताया, वो समझ से परे नहीं था। पर असली कारण मुझसे बेहतर कोई भी नहीं जानता।

   फिर समय बीतता चला गया। उन दोनों की फिर कोई खोज मिली न खबर। ढलती उम्र और अपराध वोध से मेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा था। अब तक मै खुद अपने आप को क्षमा नहीं कर सका था।

    लगभग बारह साल गुजर गए।

 एक दिन शाम को जिलाधिकारी की गाड़ी मेरे ही घर के सामने आ कर रुक गई।

    ” ताया……… ताया जी, “

     किसी ने आवाज़ देकर पुकारा।

  देखकर मैं चकित रह गया , यह तो आभा ही थी जो जिलाधिकारी बन कर इसी शहर में आई थी।

 उसके पीछे आँखों पर नजर का चश्मा लगाए सुधा खड़ी थी। चेहरे पर वही सौम्यता और तेज बरकरार था।

  ” रुक जाती तो ठहर जाती, चली गई तो …” आभा के सिर पर हाथ रखकर सुधा बोली, ” मंजिल मिल गई। “

” अब मैं अपने परिवार में आ गई हूँ…….. हमेशा के लिए। “

   खुशी की सुखद अनुभूति के अतिरेक में शांति ने घर के दरबाजे खोल दिए और आभा को अंक में भींच लिया।

 मैं अभी भी  निशब्द खड़ा उन्हें गृहप्रवेश करते हुए देख रहा था।

   कहानी – हरी दत्त शर्मा (फिरोजाबाद)

          (मौलिक)

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