असली मूल्य रिश्तों का होता है – मीनाक्षी सिंह : Moral Stories in Hindi

दिव्या जी के पति के बड़े ताऊ जी का निधन हो गया था और उनकी तेरहवीं में शामिल होने के लिए सभी परिवारजनों को बुलाया गया था। दिव्या जी के मना करने के बावजूद उनके पति ने उन्हें समझाया कि यह केवल एक दिन का ही तो मामला है, शाम तक सबसे मिलकर, दावत खाकर लौट आएंगे।

गांव जाने का विचार दिव्या जी को बिल्कुल पसंद नहीं था, लेकिन पति के जोर देने पर उन्होंने तय किया कि वह बच्चों को साथ लेकर केवल एक दिन के लिए गांव जाएंगी। वे यह सोच रही थीं कि गांव में ना तो सही से बिजली की व्यवस्था होगी, ना साफ पानी, और मच्छरों की बहुतायत होगी, लेकिन पति की बात मानकर वह अपने दोनों बच्चों के साथ गांव पहुंच गईं। गांव का माहौल और वहां की प्राकृतिक सुंदरता देखकर उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं।

जैसे ही वे ताऊजी के घर में घुसीं, सबसे पहले एक शानदार बगीचा देखा जो उनके पूरे शहरी घर से भी बड़ा और खूबसूरत था। बगीचे में तरह-तरह के फूल और पेड़ लगे हुए थे। वह सोचने लगीं कि जहाँ वे शहर में बालकनी में छोटे-छोटे गमलों में पौधे रखती हैं, वहाँ खड़े होने की भी जगह नहीं होती, और यहां इतने बड़े बगीचे में न जाने कितनी तरह के पौधे थे, खुला-खुला और ताजगी से भरा हुआ।

घर में दाखिल होते ही दिव्या जी ने देखा कि वहाँ की रसोई बहुत बड़ी और सजी-संवरी थी, जिसमें दो-दो एसी लगे थे, और कई आधुनिक उपकरण भी रखे थे। यह देखकर वह आश्चर्यचकित हो गईं। उनके बच्चे भी मां से बोले बिना नहीं रह सके, “मम्मा, यहां की रसोई तो हमारी शहर वाली रसोई से बहुत बड़ी है। हम वहाँ एक साथ खड़े भी नहीं हो सकते, और यहां तो पूरी खुली जगह है।” बच्चों के इस सवाल ने दिव्या जी को और सोचने पर मजबूर कर दिया।

जब दिव्या जी ने घर की अन्य औरतों को देखा, तो वे भी बला की खूबसूरत दिख रही थीं। वे गांव की पारंपरिक वेशभूषा में थीं, साड़ी में सजी हुईं, कमर में चांदी के सुंदर गहने पहने हुए। उनका यह रूप देखकर दिव्या जी ने सोचा कि कैसे ये महिलाएँ रोजमर्रा के काम, जैसे कि पशुओं की देखभाल और चूल्हे पर खाना पकाना, करते हुए भी इतनी सुंदर और दमकती हुई लग सकती हैं।

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उनके चेहरे की चमक और हाथों की मुलायमियत देखकर दिव्या जी हैरान थीं। उन्होंने मन ही मन सोचा कि, “शहर में तो मैं इतनी सुविधाओं के बावजूद मेनिक्योर-पेडीक्योर करवाती हूँ और फिर भी मेरे हाथ इनकी तरह सुंदर और मुलायम नहीं हैं। मैं तो हर महीने फेशियल कराती हूँ और फिर भी मेरे चेहरे पर झुर्रियां आ रही हैं, और यहाँ मेरी जेठानी मुझसे बड़ी होते हुए भी मेरे से कम उम्र की लग रही हैं।”

दिव्या जी को समझ आने लगा कि सादगी और स्वाभाविकता का अपना एक अलग ही आकर्षण होता है, जिसे ना तो आधुनिकता छू सकती है, और ना ही कोई महंगी सुंदरता क्रीम। उनकी आंखें यह देखकर चमक उठीं कि कैसे इन महिलाओं का सौंदर्य सादगी में ही छिपा है।

शाम को सबने मिलकर तेरहवीं की दावत में भोजन किया। तेरहवीं का माहौल कुछ भावुक भी था, लेकिन ताऊजी के घर की सजावट और उनके बच्चों की आत्मीयता ने सबको सहज बनाए रखा। दिव्या जी ने देखा कि तेरहवीं की इस परंपरा में कितना अपनापन और एकता है। ये लोग शहर की भाग-दौड़ से दूर, एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर ऐसे रहते हैं जैसे किसी के बिना उनका घर अधूरा है।

खाने के बाद जब सब वापसी की तैयारी में लगे थे, तो दिव्या जी के पति ने मुस्कुराते हुए उनसे कहा, “चलिए, घर चलते हैं। अब यहां रुककर क्या करेंगे, यहाँ की सुविधाएँ तो आपको नहीं भातीं।” यह कहते हुए उन्होंने कार की चाबी निकाल ली। लेकिन उनके बच्चों ने कहा, “पापा, आप घर जाओ, पर हम यहां कुछ दिन रुकना चाहते हैं। अभी हमारी छुट्टियाँ भी बाकी हैं, और हमें यहां बहुत मजा आ रहा है।”

यह सुनकर दिव्या जी के पति हंस पड़े और उन्होंने अपनी पत्नी की तरफ देखा, जैसे पूछ रहे हों, “तुम भी क्या यहाँ रुकने का सोच रही हो?” दिव्या जी हल्की सी मुस्कान के साथ बोलीं, “हाँ, मैं भी यहां कुछ दिन और रहना चाहती हूँ। इस माहौल में एक अलग ही सुकून है। शायद इतने सालों में जो मैं महसूस नहीं कर पाई, वो यहाँ की सादगी में मिला है।”

दिव्या जी के पति यह देखकर खुश हो गए कि उनकी पत्नी और बच्चे गांव की संस्कृति से जुड़ना चाहते हैं। उन्होंने बच्चों के सिर पर हाथ फेरकर कहा, “ठीक है, तुम लोग यहीं रहो। मैं किसी काम से जाना चाहता हूँ, फिर कुछ दिनों बाद आकर तुम्हें लेकर जाऊँगा।”

इस यात्रा ने दिव्या जी के जीवन में कई बदलाव ला दिए। वह शहर की चकाचौंध में खोई रहने वाली महिला थीं, जिन्हें अपने ऐश्वर्य का घमंड था। लेकिन गांव का अपनापन, वहाँ का खुला माहौल और आत्मीयता ने उनके दिल को छू लिया। वहां के लोग बिना किसी दिखावे के भी खुशहाल और संतुष्ट थे। वहाँ की सादगी में दिव्या जी ने वह सच्चा सुख पाया, जिसे उन्होंने अब तक समझा नहीं था।

दिव्या जी ने अपनी सास, ननद और देवरानी से नई बातें सीखीं, ग्रामीण जीवन का आनंद लिया और महसूस किया कि जीवन में असली संतोष और खुशी भौतिक सुविधाओं में नहीं, बल्कि सादगी और अपनेपन में छिपी है।

अब दिव्या जी का शहरी जीवन का नजरिया भी बदल चुका था। उन्हें एहसास हुआ कि पैसा सब कुछ नहीं होता। असली मूल्य रिश्तों का होता है, आत्मीयता का होता है, जिसे उन्होंने गांव में अपने परिजनों के साथ रहकर पाया। गांव में बिताए कुछ दिनों ने उन्हें आत्म-निरीक्षण करने का मौका दिया और इस बात को समझाया कि खुशहाल जीवन के लिए सिर्फ धन-दौलत नहीं, बल्कि अपनों का साथ और अपनापन ही असली दौलत है।

मौलिक रचना 

मीनाक्षी सिंह

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