आज मैं एक ऐसी बहूरानी की कहानी लिख रही हूँ,जो सच्ची घटना से प्रेरित है तथा उनका जीवन अनुकरणीय है।जब मैंने 90 साल की उम्र में गोरकी
काकी की मौत की खबर सुनी थी,तो उनके अदम्य साहस और जीवट व्यक्तित्व के कारण मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा।उनकी कहानी यादों में विचरण करने लगी।
गाँव जाने पर मैं दादी के साथ ही सोती थी और रोज उनसे कहानी सुनाने का आग्रह करती।एक दिन मैंने दादी से पूछ लिया -“दादी! गोरकी काकी इतनी गोरी क्यों है तथा झु ककर क्यों चलती है?”
दादी ने गोरकी काकी (नीरा) की कहानी सुनाते हुए कहा -“बेटी! अत्यधिक गोरी होने के कारण सब उन्हें गोरकी काकी कहते थे।उम्रे ने भले ही गोरकी काकी की कमर को झुका दिया है,परन्तु उनकी जिन्दगी का दुख-दर्द भी उनका गोरा रंग मलीन न कर सका है।इसलिए गाँव के लोग उन्हें गोरकी काकी भी कहते हैं,नाम तो उनका नीरा था।दादी उनकी कहानी सुनाने लगी।
गोरकी काकी का जन्म ब्राह्मण कुल में जमींदार परिवार में हुआ था।दो भाईयों और दो बहनों में नीरा काकी सबसे बड़ी थीं।घर में माता-पिता,भाई-बहनों,नौकर-चाकर सब पर उनका रौब-दाब चलता था।गोरकी काकी देखने में बहुत खूबसूरत थी,विशेषकर उनका अत्यधिक गोरा रंग और ऊँचा कद उन्हें सबसे अलग करता था। आम तौर पर जिस समय लड़कियों को पढ़ना-लिखना नहीं सिखाया जाता था ,
उस समय भी गोरकी काकी ने पढ़ना-लिखना सीख लिया था,जो उस समय के लिए बहुत बड़ी बात थी। अपनी लंबाई के कारण गोरकी काकी जल्द ही बड़ी दिखने लगीं।उनके पिता ने अच्छा खानदान देखकर मात्र तेरह वर्ष में ही उनकी शादी कर दी।
गोरकी काकी को तो भगवान ने फुर्सत में बनाया था।उनकी सास इतनी खुबसूरत और इतने बड़े खानदान की बहूरानी को पाकर निहाल थीं।ससुराल में सभी गोरकी काकी के रूप-गुण की प्रशंसा करते ,परन्तु कुछ बड़ी-बूढ़ियाँ उनकी लंबाई पर कटाक्ष करती हुई उनकी सास से कहतीं -” बहूरानी तो बहुत सुन्दर है,परन्तु इतनी लंबी लड़कियाँ भाग्यवान नहीं होती हैं।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
गोरकी काकी की सास उनकी बातों को सुनकर हँसकर रह जातीं।अपनी कमसिन बहूरानी के लिए उनकी सास हमेशा ढ़ाल बनकर रहतीं।गोरकी काकी के पति साधारण रुप-रंग के थे,परन्तु उनसे प्यार बहुत करते थे।गोरकी काकी पन्द्रह वर्ष में माँ बननेवाली थीं।घर में सबकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।प्रसव के लिए गोरकी काकी का भाई आकर उन्हें मायके ले गया।एक तो कमसिन उम्र और गाँवों में इलाज की सुविधा न होने के कारण उनकी पहली संतान जन्म के समय ही गुजर गई।
कुछ समय उदास मन और खाली गोद के साथ गोरकी काकी ससुराल आ गई। गोरकी काकी की सास ने बहूरानी को गले से लगा लिया।उनका प्यार गोरकी काकी के टूटे मन पर मरहम का काम करता।गोरकी काकी के पति दो भाई थे।बड़े भाई की चार बेटियाँ थीं।सभी की शादी हो गई थी।आँगन में पति के बड़े भाई-भाभी रहते थे।दोनों घरों के चूल्हे अलग-अलग थे,परन्तु आपस में प्रेम था।
मायके में कभी काम न करनेवाली गोरकी काकी कुछ ही समय में सुघड़ गृहणी बन चुकी थीं।पति बाहर खेती-बाड़ी देखते और वह घर के काम-काज। गाँव की औरतें गोरकी काकी को बहुत इज्जत की नजरों से देखतीं।एक तो जमींदार परिवार की सुन्दर,सुघड़ बेटी,दूसरी पढ़ी-लिखी भी।इस कारण गाँव की महिलाएँ उन्हें घेरे रहतीं।कोई उनसे सिलाई-कढ़ाई सीखता,कोई उनसे पति या बच्चों के लिए चिट्ठियाँ लिखवातीं।
हँसी-खुशी से गोरकी काकी का जीवन बीत रहा था।एक बार फिर से खुशियों ने गोरकी काकी के जीवन में दस्तक दी।माँ बनने की खुशी में उनका गोरा रंग प्रदीप्त हो उठा।इस बार उनकी सास ने उन्हें मायके नहीं जाने दिया।शुरुआत से ही सारी एतिहातें बरती गईं,परन्तु होनी को कौन टाल सकता है?इस बार भी गोरकी काकी की गोद खाली ही रह गई थी।
मैंने उत्सुकतावश पूछा -“दादी!उनलोगों ने डॉक्टर को नहीं दिखाया था?”
दादी-” अरे बिटिया!उस समय जचगी में डाॅक्टर को नहीं दिखाया जाता था।सभी के बच्चे दाईयों के भरोसे ही होते थे।”
मैंने पूछा-“दादी! तुम्हारे बच्चे भी दाईयों के ही द्वारा हुए थे?कभी डॉक्टर को नहीं दिखाया?
दादी -” बिटिया!तुम बहुत सवाल करती हो।पहले का जमाना बिल्कुल अलग था।अब सो जाओ। बाकी की कहानी कल सुनना।”
मैं अगले दिन बेसब्री से रात का इंतजार करने लगी।रात में बिस्तर पर लेटते ही मैंने कहा -“दादी !गोरकी काकी की अधूरी कहानी सुनाओ।दादी ने फिर से कहानी को आगे बढ़ाते हुए सुनाना आरंभ किया।गोरकी काकी गमों को भूलकर फिर से अपनी दिनचर्या में आ चुकी थीं।उनकी सास को अपनी बहूरानी के दिल का हाल मालूम था।वे मुँह से किसी को कुछ नहीं कहतीं,परन्तु बहूरानी का दुख उन्हें दिनोंदिन दीमक की तरह खाए जा रहा था।
इस कहानी को भी पढ़ें:
बहूरानी के दुख और अपने वंश में कोई चिराग न होने के गम में गोरकी काकी के सास-ससुर जल्द ही स्वर्ग सिधार गए।ईश्वर ने गोरकी काकी के जीवन की कथा में गम-ही-गम लिख दिया गया था।गोरकी काकी भी जीवट महिला थी।हर गम के बाद और मजबूती से उठ खड़ी होतीं।तीसरी बार माँ बनने पर भी गोरकी काकी के हाथ निराशा ही लगी।इस सदमे को उनके पति नहीं झेल पाएँ।जवानी में ही गोरकी काकी बेऔलाद और विधवा हो गई। विधाता के ऐसे वज्रपात से गाँववाले भी सहम गए।गोरकी काकी तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठी।
बेटी का दुखद समाचार सुनकर उनके पिता ने अपने बड़े बेटे से कहा -” रवीन्द्र! जाओ।नीरा को सदा के लिए यहाँ ले आओ।वहाँ अब उसका कुछ नहीं बचा है।”
भाई जब गोरकी काकी को लेने आया,तो अचानक से सचेत होते हुए उन्होंने कहा -” भैया! मैं इस घर की एकलौती बहूरानी हूँ।विधाता ने तो मेरी जिन्दगी में दुख-ही-दुख लिख दिया है,परन्तु मैं भागूँगी नहीं,यहीं रहकर उनका सामना करूँगी।मेरी डोली इस घर में आई है,अब मेरी अर्थी भी इसी घर से निकलेगी!”
उनके भाई हताश-निराश होकर लौट गए।
समय के साथ इन सदमों से ऊबरकर एक मजबूत शख्सियत के रुप में गोरकी काकी ने खुद को ढ़ाला।उनकी जिन्दगी का महत्वपूर्ण अध्याय आरंभ हो चुका था।अब वह केवल छुई-मुई सी बहूरानी नहीं रह गई थी,बल्कि अपने भविष्य का खाका खुद बुनने लगीं ।सबसे पहले उन्होंने खेती-बाड़ी के काम को समझना शुरू किया।अपने रैयत को बुलवाकर सारी जमीन-जायदाद की जानकारी ली।उन्हें फसलों के बारे में भी अच्छी जानकारी थी।
किस खेत में किस समय क्या बोया जाएगा,सारे निर्देश वह खुद देती।अब गोरकी काकी की जिन्दगी पटरी पर लौटने लगी।इसी बीच उनके जेठ की छोटी बेटी शान्ति असमय विधवा होकर बेटे के साथ रहने आँगन में आ चुकी थी।जेठ-जेठानी तो गुजर चुके थे,परन्तु शान्ति ने उनकी जिन्दगी में व्यवधान डालना शुरू कर दिया।शान्ति गोरकी काकी को निकालकर पूरी सम्पत्ति की वारिस अपने बेटे को बनाना चाहती थी,परन्तु गोरकी काकी को इतनी विपत्तियाँ नहीं हिला सकीं,तो भला शान्ति की क्या औकात थी!
गोरकी काकी के चट्टान जैसे मजबूत व्यक्तित्व के सामने शान्ति भी नतमस्तक हो गई। अपने बेटे को लेकर उन्हें ब्लैकमेल करने की साजिश नाकामयाब रही।उसने गोरकी काकी से संधि करने में ही अपनी भलाई समझी।
गोरकी काकी गाँव की बहूरानी होने के कारण दिन के समय तो खेतों पर नहीं जातीं,परन्तु शाम के समय जाकर खुद खेतों का जायजा लेतीं,ताकि रैयत कोई बेईमानी न कर सके।अपने आँगन की फुलवारी में गोरकी काकी तरह-तरह के फल-फूल और सब्जियाँ उगातीं।सारा समय उनका इनकी देखभाल में गुजर जाता। जरुरत भर अनाज,फल और सब्जियाँ खुद के लिए रखकर सारा जरुरतमंद को बाँट दिया करतीं थीं।
इस कहानी को भी पढ़ें:
परहित और परोपकार से दिनोंदिन उनका गोरा रंग दमकने लगा था। सभी छोटे बच्चे उनके आँगन में फूल तोड़ने जाया करते थे।उनका आँगन फूलों की खुशबू से सदैव सुवासित रहता,विशेषकर हरसिंगार की खुशबू से खिंचे सारे बच्चे उनके आँगन में में डेरा डाले रहते थे।गोरी काकी हरसिंगार के फूल बच्चों को चुनने देतीं और सख्त हिदायतें देते हुए कहतीं -“बच्चों!हरसिंगार के फूल को छोड़कर कोई अन्य फूलों को हाथ नहीं लगाएगा।”
बच्चे भी कभी उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते।सभी बच्चे हरसिंगार के फूल चुनकर उनकी डंठलों से कागज रंगते,फूलों को नाक के पास ले जाकर सूँघते।गोरकी काकी अपलक ममत्व भरी दृष्टि से उन बच्चों को निहारा करतीं।उन बच्चों को देखकर उनकी अतृप्त ममता तृप्त हो जाती।बच्चों के घर जाने समय उन्हें कुछ-न-कुछ खाने को अवश्य देतीं।उनके स्नेह,दुलार के कारण बच्चे अपने आँगन में कम ,ज्यादा उनके ही आँगन में रहते।
कुछ समय बाद अधेड़ उम्र में पहुँचने के बाद उनकी दिनचर्या में बदलाव आ गया।अब वे सुबह-सुबह सैर के बहाने अपने खेतों का मुआयना कर आतीं।उनकी पारखी नजरों के कारण कोई रैयत बेईमानी नहीं कर सकता था।खेतों से आने के बाद अपने दैनिक क्रिया-कलाप के बाद शाम में कुछ गुड़-पानी और चरखा लेकर अपने दरवाजे पर बैठ जातीं।उस समय लोग घर-घर चरखा कातते थे,जिससे कुछ आमदनी भी हो जाती थी।
गोरकी काकी बिना किसी विशेष प्रयोजन के किसी के घर नहीं जातीं थीं।जो कोई उनके दरवाजे के पास से गुजरता,उसे रोकते हुए कहतीं -“अरे भाई!थोड़ा सुस्ता जाओ।गुड़-पानी ले लो।राहगीर से ढ़ेर सारी बातें करतीं,परन्तु उनका चरखा कातना अनवरत जारी रहता।दरवाजे पर बैठी-बैठी ही वे लोगों की समस्याएँ सुनतीं और उनके निबटारा भी कर देतीं।लोग उनकी बातें मान भी लेते।छोटी-मोटी बीमारियों के घरेलू उपचार भी बतातीं,परन्तु ठीक न होने पर तुरंत मरीज के परिवार के साथ बैलगाड़ी पर बैठकर दूरस्थ अस्पताल भी ले जातीं।मरीज के परिवारवालों के साथ मजबूत सहारा के रूप में खड़ी रहतीं।
अपने सद्व्यवहार से गोरकी काकी गाँव में काफी लोकप्रिय बन गईं थीं।गोरकी काकी जब दूरस्थ मंदिर या गंगा नहाने जातीं तो लोग अपनी बहू-बेटियों की जिम्मेदारी उनपर सौंप देते।गोरकी काकी भी सहर्ष उनकी जिम्मेदारी लेते हुए कहतीं -” तुम सब लोग निश्चिन्त रहो।मेरे रहते बहू-बेटियों को कोई छू भी नहीं सकेगा।”
सचमुच कई मौके ऐसे आएँ,जब गोरकी काकी ने अपनी जान पर खेलकर बहू-बेटियों की इज्जत बचाई थी। पूरा गाँव ही उनका परिवार था।इसी कारण गाँव में लोग उनकी काफी इज्जत करते थे।
समय के अन्तराल पर उनके जेठ की बेटी शान्ति अपने बेटे के नाम जमीन लिखने पर उनपर दबाव बनाती।गोरकी काकी शान्ति के बेटे को बहुत प्यार करतीं थीं,परन्तु भावनाओं वे कोई फैसला नहीं करतीं।गोरकी काकी बहुत ही निर्भीक और निडर व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं।
गोरकी काकी सुनिश्चित करतीं कि गाँव में कोई भूखा न रहें,किसी के बच्चे की पढ़ाई पैसे के कारण बन्द न हों।बिना माँगे ही लोगों की मदद को तत्पर रहतीं।उनकी खुद की आवश्यकताएँ काफी सीमित थीं।एक साधारण-सी सफेद साड़ी में उनका रुप और सत्कर्म आभा के साथ दमकता था।उनकी जिंदगी का सूनापन कब परोपकार के जुनून में बदल गया,उन्हें पता भी नहीं चला।
इस कहानी को भी पढ़ें:
पचासी साल की उम्र में भी गोरकी काकी सारे काम खुद करतीं थीं।उम्र के साथ धीरे-धीरे उन्हें अपनी जिंदगी के अंत का आभास होने लगा था।उन्होंने गाँव के मुखिया को बुलाकर कहा -“मुखिया जी!मेरे मरने पर मेरी एक तिहाई सम्पत्ति शांति के बेटे के नाम कर देना,शेष से एक मंदिर और एक स्कूल खुलवा देना।”
कुछ समय पश्चात गोरकी काकी ने अंतिम साँसें लीं।उनकी मौत की खबर सुनकर सारा गाँव इकट्ठा हो गया।किसी को कोई काम के लिए कहना नहीं पड़ा।सारे काम लोग खुद-ब-खुद कर रहें थे।कोई फूल,गंगाजल ला रहा था कोई खुबसरती से अर्थीं सजा रहा था।सारे काम खुद-ब-खुद हो रहे थे।गोरकी काकी की जब अर्थी उठी तो सारे गाँववाले कंधा देने को तत्पर थे।’गोरकी काकी अमर रहे ‘के नारों से आकाश गुंजायमान था।
दादी कहती थी कि अंतिम विदाई के समय फूलों से सजा गोरकी काकी का चेहरा मानो ईश्वर से पूछ रहा था -” हे प्रभु!आपने तो मेरी संतानें ,मेरी खुशियाँ छीन ली थी,परन्तु देखो मैंने अपने सत्कर्मों से कितनी संतानें तैयार कर ली!”
“हमारे गाँव की एक ऐसी बहूरानी थी “कहकर दादी ने कहानी समाप्त की।
गोरकी काकी की मौत की खबर सुनकर बरबस ही उनकी कहानी याद आ गई और आँखें नम हो उठीं।
आज भी गोरकी काकी की अमिट छाप गाँव के लोगों के दिल पर छाई हुई है।
समाप्त।
लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)